कहानी की खोज सबसे बड़ी चुनौती होगी : कमलेश पांडे

कमलेश पांडे का यह लेख अनुप्रिया वर्मा के ब्‍लॉग अनुख्‍यान से लिया गया है। 
मैं सीधे तौर पर मानता हूं कि आनेवाले सालों में बल्कि यूं कहें आने वाले कई सालों में हिंदी सिनेमा व टेलीविजन दोनों ही जगत में कहानी की खोज ही एक बड़ी चुनौती होगी. मेरा मानना है और मेरी समझ है कि हां, हमने अपने तकनीक में सिनेमा को हॉलीवुड के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है. हमारी फिल्मों की एडिटिंग अच्छी हो गयी है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी हो गयी है. हम तकनीक रूप से काफी आगे बढ़ चुके हैं. लेकिन हमने कहानी को फिल्म की आखिरी जरूरत बना दी है. आज फिल्मों में खूबसूरत चेहरा है. खूबसूरत आवाज है. चमक है. धमक है. कुछ नहीं है तो बस कहानी नहीं है. जो हमारी पहली जरूरत होती थी. अब आखिरी हो चुकी है. फिल्मों का शरीर खूबसूरत हो गया है लेकिन आत्मा खो चुकी है. आपने बाजारों में देखा होगा जिस तरह दुकानों में औरतों और मर्दों के पुतले खड़े होते हैं. खूबसूरत से कपड़े पहन कर और उन डम्मी क ो देख कर आप किसी दुकान में प्रवेश करते हैं. लेकिन उनमें जान नहीं होती. फिल्मों की भी यही स्थिति हो गयी है. अभी हाल ही में मैं बंगलुरु में था. फिक्की के कार्यक्रम के लिए. स्क्रिीप्टिंग का वर्कशॉप कर रहा था. वहां जितने बच्चे थे मैंने उनसे कहा कि 2003 से लेकर अब तक 2013 में 10 सालों में कम से कम आठ हजार फिल्में बनी हंै. तो कोई दो फिल्मों का नाम बताओं जो आपको आज भी याद है. किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया. लेकिन हमारा सिनेमा यह तो नहीं था. हम आज भी शोले, मुगलएआजम, श्री 420, आवारा और कई फिल्में देखना पसंद करते हैं. आज भी इन फिल्मों का हैंगओवर हम पर  से उतरा नहीं है. आज भी ये फिल्में प्रासंगिक लगती हैं और हम पर उतना ही असर छोड़ती हैं. जबकि कितनी पुरानी हो चुकी हैं. लेकिन पिछले कई सालों में जो फिल्में बनी हैं और जिन फिल्मों ने 100 करोड़, 200 करोड़ क्लब में शामिल होने का दावा ठोखा है,. क्या वे फिल्में 10 साल बाद भी याद की जायेगी. शायद नहीं. तो मेरी समझ से फिल्मों ने अपनी आत्मा को खोया है और कहानी ही उसकी आत्मा है. मुझे तो लगता है कि अब फिल्म और टेलीविजन में उन लोगों की भी कमी हो गयी है जो अच्छी कहानियों की पहचान कर सकें. हां, मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा और टेलीविजन ने जो मार्केटिंग स्ट्रेजी तैयार की है वह अब विशेषता बन चुकी है. जिस तरह से यहां फिल्मों की मार्केटिंग की जाती है कि बुरी से बुुरी फिल्में भी रिलीज होती हैं और दर्शक जाते ही देखने. चूंकि दर्शकों को तो फिल्म चाहिए हर वीकएंड. फिर वह बुरी हो या अच्छी तो उस लिहाज से आनेवाले सालों में भी मार्केटिंग की वजह से फिल्में चलेंगी. लेकिन मैं मानता हूं कि आप इसे कामयाबी न समझें. हिम्मत हैं तो वैसी फिल्में बनायें जो 10 साल के बाद भी प्रासंगिक हो. टीवी की बात करें तो वाकई बड़े परदे से वह किसी भी तरह कम नहीं हैं. लेकिन चूंकि वहां भी  कहानियों की कमी है तो लोगों ने वहां रियलिटी शोज से काम चलाना शुरू कर दिया है तो आनेवाले साल में यह चुनौती फिर से रहेगी कि हम कहानियों की खोज करें. मैं पूछता हूं कि क्या है सैटेलाइट चैनल्स के पास तो इतने पैसे हैं तो क्यों नहीं वह नये तरह के शोज और कहानियों को लेकर आता है. 80 के दशक में जो टीवी ने गोल्डन एरा देखा है वह फिर से क्रियेट क्यों नहीं कर पाता. इसकी सीधी वजह यह है कि सैटेलाइट चैनल के पास पैसे हैं. लेकिन सोच नहीं है. हिम्मत नहीं है. साहस नहीं है. साहस है तो जायें ऐसे जगहों पर जहां कहानियां हैं और ढूंढ कर निकालें. हर चैनल पर आपको रियलिटी शोज ही नजर आते हैं और एक से होते हंै.तो मेरा मानना है कि फिल्मों और धारावाहिक छोटे परदे का इम्तिहान यही है कि वह कब तक लोगों के जेहन में जिंदा हैं. मुख्य मकसद यही है कि वह कब तक लोगों के साथ चल पाती है. लोगों को लग रहा है कि अरे 100 करोड़ 200 करोड़. तो मैं कहना चाहूंगा कि जनाब यह सब कामयाबी का सबूत नहीं है. बल्कि यह चमत्कार मार्केटिंग है. मार्केटिंग को आपने विशेषता बना ली है और फिल्म मेकिंग और टेलीविजन मेकिंग को कहीं पीछे छोड़ दिया है. और जो लोग ये सारी बातें करते हैं. उन्हें आप कहने लगते हो कि जमाने के साथ आप नहीं चल रहे. जबकि हकीकत यही है कि जो लंबे समय तक आपके साथ रहे वही असली कहानी है. वही अच्छी सिनेमा है. वही अच्छी टीवी है. टिकट के दाम बढ़ा कर, हजारों स्क्रीन पर फिल्में रिलीज करके तीन दिनों में पैसा कमा कर आप सोच रहे हैं कि आप कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं तो यह आपकी गलत सोच है. हालांकि भाग मिल्खा भाग और रांझणा जैसी फिल्में अपवाद रही हैं. बात वही है कि बबूल के पेड़ को भी लोग पड़ समझने लगते हैं तो कुछ फिल्में हैं जो अंधों में काना राजा बन जाती हैं. लेकिन इसका मतलब आप यह समझ लें कि बहुत अच्छे काम हो रहे तो मैं नहीं मानता. चुनौतियां यही हैं कि फिल्मों में नये लोगों को जो मौके मिल रहे हैं, वे मिलते रहें. प्रतिभाओं की खोज हो, अच्छी कहानियों की खोज हो, छोटे परदे पर रियलिटी शोज कम हो. अच्छी कहानियों वाले शोज आये और जितना आगे बढ़ें अपने इतिहास की धरोहर को सहेंजे. वह गोल्डन ऐरा वापस लाने की कोशिश करें
लेखक फिल्म व टेलीविजन लेखक हैं. रंग दे बसंती जैसी फिल्मों का लेखन किया है।

Comments

कहानी की खोज रोचक है, कुछ अच्छी कहानी भी छूट जाती हैं।
sanjeev5 said…
आपने कुछ रोचक बातें बतायीं. हमारे सिनेमा का स्तर तकनीक के हिसाब से भी कम से कम हॉलीवुड से २० बरस पीछे है. और कहानी के तो क्या कहने....हम और भी पीछे रह जाते हैं. वैसे हॉलीवुड की फिल्मों के हाल तो बिलकुल खाली होते हैं. वहां भी कहानी का अकाल है. कुछ उम्मीद अगर है तो वो लेखकों से ही है. अनर्गल फिल्मों पे अगर रूक लगा दी जाए तो बालीवुड तो बंद ही हो जाएगा...
Anonymous said…
I feel those kids were cinematic illiterates, from 2003-13 we had Munnabhai MBBS, A Wednesday, Rang De Basanti, Taste Zameen Par, 3 Idiots, Lage Raho Munnabhai, Chak De India, Shades, Maqbool and many more. We cannot forget these films ever. Modern day classics.

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

फिल्‍म समीक्षा : आई एम कलाम