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Showing posts from May, 2013

इस पागल दुनिया में सच्‍चा सरल आदमी ही पागल लगता है-किशोर कुमार

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कुछ समय पहले यह इंटरव्‍यू अंग्रेजी  में चवन्‍नी पर आ चुका है। अभी यह हिंदी में आया है। मोहल्‍ला लाइव से साधिकार यहां प्रस्‍तुत है  गायक-अभिनेता किशोर कुमार से पत्रकार प्रीतीश नंदी की बातचीत यह एक दिलचस्‍प बातचीत है। अपनी तरह के अकेले और बेमिसाल गायक-अभिनेता किशोर कुमार से यह बातचीत पत्रकार प्रीतीश नंदी ने की थी। प्रीतीश के औपचारिक-पेशेवर सवालों का जवाब जितनी खिलंदड़ सहजता के साथ किशोर कुमार दे रहे हैं, उससे पता चलता है कि अपनी चरम लोकप्रियता का कोई बोझ वह अपने साथ लेकर नहीं चलते। इस बातचीत से यह भी पता चलता है कि एक महान रचनात्‍मक आदमी दुनियावी अर्थों में सफल होने के बाद भी अपना असल व्‍यक्तित्‍व नहीं खोता। यह इंटरव्यू पहली बार इलेस्‍ट्रेटेड वीकली के अप्रैल 1985 अंक में छपा था। इसका अनुवाद करके हिंदी में उपलब्‍ध कराने का श्रेय रंगनाथ सिंह को जाता है और सुना है कि ये अहा जिंदगी के जून अंक में प्रकाशित भी हुआ है: मॉडरेटर मैंने सुना है कि आप बंबई छोड़ कर खंडवा जा रहे हैं… इस अहमक, मित्रविहीन शहर में कौन रह सकता है, जहां हर आदमी हर वक्त आपका शोषण करना चाहता है? क्य

The Popular Melodramas of 1950s and their Engagement with the Nehruvian Politics - Prakash K ray

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए प्रकाश के रे का यह लेख....  “..planning does not mean industrialization alone; on the other hand, it embraces the entire national life.”                 -Nehru (Nehru’s speech at Delhi University, in The Hindustan Times, 15 February, 1939.) It is often argued that the popular melodramas of the 1950s failed to portray the reality of India in an apt manner since the film industry was too busy in projecting the nationalist myths created by the new government under the leadership of Nehru. The Centenary Year of Indian cinema offers an opportune occasion to revisit the cinematic scenario of the Nehruvian era, that is widely considered our cinema's Golden period. Realizing the great potential of mass media, particularly film, the government established various institutions and ordered vast set of rules and regulation. In 1949, the Film Enquiry Committee called upon the film industry to contribute to the responsibility in the course of nation building an

अनुभूति कश्‍यप और श्‍लोक शर्मा की प्रस्‍तुतियां

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अनुभूति कश्‍यप की प्रस्‍तुति...मोइ मरजानी A spirited independent single mother struggles on a daily basis to provide a comfortable life to her son and herself. She runs a small Internet cafe in Patiala, Punjab for a living, and is an Internet user herself. The film highlights a phase in her life when love comes knocking on her door. If only its timing was right! श्‍लोक शर्मा की प्रस्‍तुति .... हिडेन क्रिकेट A country that is divided in the name of religion, state, language, caste, economy, profession and even god... breathes together, stands together in the name of CRICKET! A sport that defines the country. Cricket is in our blood and rules our hearts. A synonym to passion -- cricket redefines enthusiasm, craze, zeal and excitement. We are a nation that loves cricket, lives cricket, beyond conventions and beyond rules, from breaking boundaries to breathtaking highs, a million cheers and a zillion sighs, such is the madness, such is the passion to play it any

कान फिल्म फेस्टिवल में गूंजी हिंदी

-अजय ब्रह्मात्मज     देवियों और सज्जनों, नमस्कार। भारतीय सिनेमा 100 वर्ष पूरे कर चुका है और इस अवसर पर में कान फिल्म फेस्टिवल में अपना आभार प्रकट करता हूं और धन्यवाद देता हूं कि मुझे आज यहां आमंत्रित किया और इतने भव्य समारोह में हमें सम्मानित किया।     मुख्य रूप से चार मनोभावों को और  ़ ़ ़ और से जोड़ता हिंदी में बोला गया यह लंबा वाक्य अमिताभ बच्चन के आत्मविश्वास को जाहिर करता है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में फिलहाल अमिताभ बच्चन अकेले ऐसे शख्स हैं, जो निस्संकोच और धाराप्रवाह हिंदी बोलते हैं। आप उनसे हिंदी में सवाल पूछें तो उसका जवाब हिंदी में मिलेगा। आप के सवाल में भले ही आदतन अंग्रेजी के शब्द आ गए हों, लेकिन वे जवाब देते समय अंग्रजी के एक भी शब्द का प्रयोग नहीं करते। उनकी भाषा सातवें-आठवें दशकों के मुहावरे और शब्दों से सनी होती है। हम जिन शब्दों का प्रयोग भूल गए हैं या जिनका अनुचित उपयोग करते हैं। अमिताभ बच्चन उन शब्दों को आज भी पुराने संदर्भ और अर्थ में इस्तेमाल करते हैं।     अमिताभ बच्चन ने पहली बार हालीवुड की एक फिल्म में काम किया है। ‘द ग्रेट गैट्सबाय’ नामक उनकी फिल्म कुछ ही दिनों

कान फिल्‍म फेस्टिवल में भारत की मौजूदगी

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दर्शक बढ़े हैं मेरे-अजय देवगन

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-अजय ब्रह्मात्मज     दो फिल्मों के अंतराल के बाद अजय देवगन और प्रकाश झा फिर से एक साथ आ रहे हैं। पिछले कुछ सालों में दोनों की जोड़ी ने अनेक सारगर्भित और मनोरंजक फिल्में दी हैं। ‘आरक्षण’ के समय यह खबर आई थी कि दोनों के बीच कोई अनबन हो गई है, लेकिन ‘सत्याग्रह’ की शूटिंग के साथ यह खबर बेबुनियाद साबित हुई। दोनों ने हाल ही में भोपाल में ‘सत्याग्रह’ की शूटिंग पूरी की। अजय देवगन ने अजय ब्रह्मात्मज से इस अंतरंग बातचीत में अनेक पहलुओं को उजागर किया। - ‘दिल क्या करे’ से ‘सत्याग्रह’ तक प्रकाश झा के साथ आपकी सफल पारी रही है। इस परस्पर रिश्ते के बारे में कुछ बताएं? 0 हम दोनों को इस परस्पर रिश्ते से फायदा हुआ है। प्रकाश जी के बारे में सभी जानते हैं। वे पैरेलल सिनेमा के आर्ट फिल्म डायरेक्टर रहे हैं। साथ काम करते हुए उन्होंने एक नई फिल्म भाषा विकसित कर ली है। वास्तविकता के नजदीक रहते हुए उन्होंने व्यावसायिक फिल्म बनाने की तरकीब सीख ली है। ‘गंगाजल’ में हम दानों को सभी ने देखा। व्यावसायिक होने से मेरा मतलब दर्शकों से जुडऩा है। उनके साथ के बाकी फिल्मकार ऐसा नहीं कर पाए। फिल्मों को वास्तविक रखने की को

फिल्म समीक्षा : औरंगजेब

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-अजय ब्रह्मात्मज  अरसे बाद अनेक किरदारों के साथ रची गई नाटकीय कहानी पर कोई फिल्म आई है। फिल्म में मुख्य रूप से पुरुष किरदार हैं। स्त्रियां भी हैं, लेकिन करवाचौथ करने और मां बनने के लिए हैं। थोड़ी एक्टिव और जानकार महिलाएं निगेटिव शेड लिए हुए हैं। फिल्म में एक मां भी हैं, जो यश चोपड़ा की फिल्मों की मां [निरुपा राया और वहीदा रहमान] की याद दिलाती हैं। सपनों और अपनों के द्वंद्व और दुविधा पर अतुल सभरवाल ने दिल्ली के गुड़गांव के परिप्रेक्ष्य में क्राइम थ्रिलर पेश किया है। यशराज फिल्म्स हमेशा से सॉफ्ट रोमांटिक फिल्में बनाता रहा है। यश चोपड़ा और आदित्य चोपड़ा की देखरेख में इधर कुछ सालों में कॉमेडी या रॉमकॉम भी आए, लेकिन अपराध की पृष्ठभूमि पर बनी यशराज फिल्म्स की यह प्रस्तुति नयी और उल्लेखनीय है। अतुल सभरवाल ने हमशक्ल जुड़वां अजय और विशाल के लिए अर्जुन कपूर को चुना है। दूसरी फिल्म में ही डबल रोल करते अर्जुन कपूर के एक्सप्रेशन की सीमाओं को नजरअंदाज कर दें तो उन्होंने एक्शन और मारधाड़ दृश्यों में अच्छा काम किया है। अजय बिगड़ैल और दुष्ट मिजाज का लड़का है और विशाल सौम्य और सभ्य दिमाग का..

कान फिल्‍म फेस्टिवल में अमिताभ बच्‍चन का हिंदी संभाषण

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कान फिल्‍म फेस्टिवल के उद्घाटन समारोह में अमिताभ बच्‍चन का हिंदी संभाषण....

दरअसल ...तकनीकी पक्षों की तारीफ

-अजय ब्रह्मात्मज     पिछले दिनों देश के एक मशहूर कैमरामैन से बातें हो रही थीं। पिछले बीस सालों से वे सक्रिय हैं। उन्होंने हिंदी में बनी कुछ लोकप्रिय और खूबसूरत फिल्मों की फोटोग्राफी की है। कहने लगे कि एक तो हम तकनीशियनों से कोई बातें नहीं करता। लोकप्रिय फिल्मों की तारीफ में भी हमारा उल्लेख नहीं होता। दर्शक ढंग से नहीं जानते कि किसी भी फिल्म में हमारा क्या योगदान होता है? मैंने बड़े से बड़े समीक्षकों की फिल्म समीक्षा में फिल्म के तकनीकी पक्षों को चंद वाक्यों में निबटाते देखा है। दर्शकों को जो बताया जाएगा,वही तो वे जानेंगे। ज्यादा से ज्यादा एक फिल्म समीक्षक जब फिल्म के छायांकन की तारीफ करता है तो यही लिखता हैं कि दृश्य बेहद खूबसूरत लगे। अब अगर फिल्म की पृष्ठभूमि में काश्मीर है तो वह खूबसूरत होगा ही। कैमरामैन ने इसमें क्या योगदान किया? इसे समझने और समझाने की जरूरत है।     सिर्फ फोटोग्राफी ही नहीं। हम फिल्मों की समीक्षा या उस पर विमर्श करते समय सिनेमा के तकनीकी पक्षों को आम तौर पर छोड़ देते हैं। हम उनका जिक्र नहीं करते। एडीटिंग,साउंड,कोरियोग्राफी,प्रोडक्शन डिजायनिंग,कास्ट्यूम,मेकअप आदि त

दरअसल ... भारतीय जन-जीवन में सिनेमा

-अजय ब्रह्मात्मज     भारतीय सिनेमा के सौ साल हो गए। सदी बीत गई। सिनेमा ने अगली सदी में प्रवेश कर लिया। भारतीय सिनेमा के इतिहास की इस चाल की धमक हर जगह सुनाई पड़ी। खास कर हिंदी सिनेमा को लेकर ज्यादा चहल-पहल रही। पहुंच और विस्तार में अन्य भारतीय भाषाओं से अधिक विकसित और व्यापक होने की वजह से यह स्वाभाविक है। कमोबेश सभी क्षेत्रों, समुदायों और देश के समस्त नागरिकों को सिनेमा ने प्रभावित किया है। अगर किसी ने अपनी जिंदगी में केवल एक फिल्म देखी है तो भी वह अप्रभावित नहीं रह सका। सिनेमा का जादू कहावत के मुताबिक सिर चढ़ कर बोलता है। कभी यह जादू हमारे बात व्यवहार में दिखता है तो कभी हमें पता भी नहीं चलता और हम अपने व्यवहार, प्रतिक्रिया और संवेदना में फिल्मी दृश्य का अनुकरण कर रहे होते हैं।     भारतीय परिवेश में सिनेमा हमें बहुत कुछ सिखाता है। प्रेम, संबंध, दोस्ती, नाते-रिश्ते और उनके साथ के अपने व्यवहार में हम फिल्मी चरित्रों की नकल कर रहे होते हैं। प्रेम हिंदी फिल्मों का प्रमुख अवयव है। अपनी जिंदगी में झांक कर देखें तो प्राय: सभी ने किशोर और युवा उम्र में फिल्मी हीरो या हीरोइन की नकल की होगी।

औरत हूं तो सवाल पूछते हैं? -माधुरी दीक्षित

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  शादी के बाद हिंदी फिल्मों की अभिनेत्रियां धीरे-धीरे अनेक प्रकार के दबावों की वजह से रुपहले पर्दे से गायब होने लगती हैं।निर्माता-निर्देशक और दर्शकों की रुचि उनमें कम होने लगती है। उन्हें हिंदी फिल्मों के अभिनेताओं की तरह लंबी उम्र नहीं मिलती। यही वजह है कि कुंवारी रहने पर उम्र बढऩे के साथ उन्हें तवज्जो नहीं दी जाती। अभिनेत्रियां इसे सहज तौर पर स्वीकार करती हैं। अभिनय क्षेत्र में सक्रिय रहने की लालसा रहन परे उन्हें सहयोगी,चरित्र और मां-बहन की भूमिकाएं ही मिल पाती हैं। कुछ ही अभिनेत्रियां अपवाद बन पाती हैं। उन्हें केंद्रीय किरदार मिलते हैं। उन्हें दर्शक भी पसंद करते हैं। उनकी फिल्मों का इंतजार करते हैं। मााधुरी दीक्षित ऐसी अभिनेत्रियों में से एक हैं। अभी वह निर्माता अनुभव सिन्हा की सौमिक सेन निर्देशित गुलाब गैंग में प्रमुख भूमिका निभा रही हैं।वह अभिषेक चौबे की डेढ़ इश्किया भी कर रही हैं,जिसके निर्माता विशाल भारद्वाज हैं। अभी दो हफ्ते के अंदर 15 मई को अपने जीवन के 46 वसंत पूरे करेंगी। उनकी सक्रियता और समर्पण से अचंभा होता है। सहसा मुंह से निकलता है इस उम्र में भी?

फिल्म समीक्षा : गो गोवा गॉन

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों में इन दिनों अनोखे प्रयोग हो रहे हैं। अच्छी बात तो ये है कि उन्हें समर्थन भी मिल रहा है। निर्माता और दर्शकों के बीच इस नए रिश्ते को प्रयोगवादी निर्देशक मजबूत कर रहे हैं। युवा निर्देशकों की जोड़ी राज-डीके जैसे निर्देशक हैं। अपनी नई कोशिश में उन्होंने जोमकॉम पेश किया है। जोम्बी और कॉमेडी के मिश्रण से तैयार यह फिल्म भारत के लिए नई है। अभी तक हम भूत,प्रेत,चुड़ैल और डायन की फिल्मों से रोमांचित होते रहे हैं। लेकिन अब राज-डीके जोम्बी लेकर आए हैं। विदेशों में जोम्बी फिल्में खूब बनती और चलती हैं। जोम्बी अजीब किस्म के प्राणि होते हैं। देखने में वे आदमी की तरह ही लगते हैं,लेकिन संवेदना शून्य और रक्तपिपासु होते हैं। उन्हें विदेशी जोम्बी फिल्मों में विभिन्न रूपों में दिखाया गया है। राज-डीके की गो गोवा गॉन में ड्रग्स के ओवरडोज से आम इंसान जोम्बी में तब्दील होता है। और फिर कोई जोम्बी किसी सामान्य व्यक्ति को काट खाए तो वह भी जोम्बी बन जाता है। जोम्बी मतलब जिंदा लाशें ़ ़ ़ हार्दिक,लव और बन्नी तीन दोस्त हैं। तीनों नई नौकरियों में कार्यरत हैं। आज के कुछ

मटरु की बिजली का मंडोला-विनीत कुमार

चवन्नी के पाठकों के लिए विनीत कुमार का यह लेख…  विशाल भारद्वाज की फिल्म मटरु की बिजली का मंडोला जगह-जगह ऊब और बहुत ही औसत दृश्यांकन के बावजूद बड़े फलक की फिल्म है. लेकिन फिल्म का विस्तार जिस बड़े फलक तक है, ऐसे में ऊब पैदा करनेवाले फ्रेम्स को पीवीआर जैसे थिएटर में बैठकर देखते रहने के बावजूद कोई चाहे तो अर्थशास्त्र या संस्कृति समीक्षा की कक्षाओं में बैठकर व्याख्यायन सुनने के एहसास के साथ बहुत ही सादे ढंग से गुजर सकता है. वैसे भी जहां हर सांस्कृतिक चिन्हों,मानवीय संवेदना और यहां तक कि सरोकार की जमीन को हद तक एक चमकीले उत्पाद में तब्दील किए जाने के बावजूद कुछ चिन्ह अपनी मूल अवस्था में ऊबाउ ही बने रह जाते हैं, इस स्थिति में फिल्म निर्देशक से अतिरिक्त अपेक्षा करने के बजाय हम इसे क्लासरुम के सांस्कृतिक पाठ मानकर ही उससे समझने-गुजरने की कोशिश करें तो इस ऊब में अटके रहने के बजाय बाकी के हिस्सों पर बात कर सकेंगे. ये फिल्म दर्शकों से बीच-बीच में इस “ मेंटल शिफ्टिंग ” मांग करती नजर आती है.  एक तरह से देखें तो मटरु की बिजली का मंडोला के ऊब पैदा करनेवाले दृश्य विषय की उस आदिम अवस्था की