छठे दशक के पॉपुलर मेलोड्रामा और नेहरूवियन राजनीति-प्रकाश के रे



छठा  दशक हिंदुस्तानी सिनेमा का स्वर्णिम दशक भी माना जाता है और इसी दौरान इस सिनेमा के व्यावसायिकता, कलात्मकता और नियमन को लेकर आधारभूत समझदारी भी बनी जिसने आजतक भारतीय सिनेमा को संचालित किया है। यही कारण है कि सौ साल के इतिहास को खंगालते समय इस दशक में बार-बार लौटना पड़ता है। इस आलेख में इस अवधि में बनी फिल्मों और उनके नेहरूवियन राजनीति से अंतर्संबंधों की पड़ताल की गई है। अक्सर यह कहा जाता है कि छठे दशक की पॉपुलर फिल्मों ने तब के भारत की वास्तविकताओं की सही तस्वीर नहीं दिखाई क्योंकि तब फिल्म उद्योग जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में बनी नई सरकार द्वारा गढ़ी गईं और गढ़ी जा रहीं राष्ट्रवादी मिथकों को परदे पर उतरने में लगा हुआ था। फिल्मों के व्यापक महत्व को समझते हुए नई सरकार ने कई संस्थाएँ स्थापित कीं और बड़े पैमाने पर दिशा-निर्देश जारी किये। 1951 में फिल्म इन्क्वायरी कमिटी ने फिल्म उद्योग से आह्वान किया कि वह राष्ट्र-निर्माण में अपना योगदान दे और सरकार को मज़बूत करे। इस रिपोर्ट में सरकार ने उम्मीद जताई कि हिंदुस्तानी सिनेमा 'राष्ट्रीय संस्कृति, शिक्षा और स्वस्थ मनोरंजन' को केंद्र में रखकर काम करेगा जिससे 'एक बहुआयामीय राष्ट्रीय चरित्र' का निर्माण हो सके। सरकार ने सिनेमा को नियंत्रित करने के लिए आर्थिक नियंत्रण और सेंसरशिप का भी सहारा लिया। लम्बे समय तक सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे बी वी केसकर ने तो आकाशवाणी पर फिल्मों गीतों के प्रसारण को ही प्रतिबंधित कर दिया था।

इस लेख में उस दौर की कुछ प्रतिनिधि फिल्मों- श्री 420 (राज कपूर, 1955), आवारा (राज कपूर, 1951), दो बीघा ज़मीन (बिमल रॉय, 1953), प्यासा (गुरु दत्त, 1957), मदर इण्डिया (महबूब खान, 1957)  और नया दौर (बी आर चोपड़ा, 1957)- के माध्यम से यह रेखांकित करने की कोशिश की गयी है कि तमाम नियंत्रणों और नियमन के बावजूद तत्कालीन हिन्दुस्तानी सिनेमा ने नेहरु युग के चित्रण बड़ी परिपक्वता के साथ किया। इनमें से कुछ फिल्में राज्य के राष्ट्रवादी चिंतन को स्पष्ट रूप से समर्थन करती हैं, वहीँ कुछ उसकी ज़ोरदार आलोचना करती हैं। फिल्मों पर बात करने से पहले नेहरु-युग के महत्वपूर्ण आयामों को यहाँ चिन्हित करना आवश्यक है।

नेहरु-युग, जिसे 'आशा का युग' भी कहा जाता है, की आधारभूत समझदारी उनकी किताब 'डिस्कवरी ऑव इण्डिया' से निकलती है जिसमें आधुनिक राष्ट्रवाद के दौर में परंपरा की पुनर्व्याख्या की कोशिश की गयी है। किताब का दावा है कि भारतीय सभ्यता श्रेष्ठ है और उसमें हजारों साल से चली आ रही अन्तर्निहित निरंतरता है, तथा व्यापक वैविध्य के बावजूद 'एकता का कोई स्वप्न सभ्यता के प्रारम्भ से भारतीय मष्तिस्क में उपस्थित है'। पार्था चटर्जी के अनुसार, नेहरु के नेतृत्व में राष्ट्रवाद की जो विचारधारात्मक पुनर्रचना की गयी वह 'एक ऐसी विचारधारा है जिसका केन्द्रीय संगठनात्मक सिद्धांत राज्य की स्वायत्तता है और इसे वैधानिक बनाने वाला सिद्धांत सामाजिक न्याय की अवधारणा है'। इस विचारधारा को लागू करने के लिए ऐसे संस्थानों की आवश्यकता थी जो 'विकास की भावना, जो कि आधुनिकता का पर्यायवाची है' को अंगीकार करते हों। नेहरु के लिए आधुनिकता का मूल-मन्त्र 'वैज्ञानिक सोच' थी जिसका मूर्त रूप वे 'भारी उद्योग-तंत्र' में देखते थे। हालाँकि 1950 के दशक के आखिरी वर्षों में उनके विचारों में परिवर्तन हुआ और वे कृषि तथा लघु और कुटीर उद्योगों पर पर्याप्त ध्यान देने के महत्व को समझने लगे थे, लेकिन तबतक उनकी योजनायें और नीतियाँ भारतीय जीवन पर हावी हो चुकी थीं। नेहरु योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए राज्य द्वारा बल-प्रयोग के हामी थे। सुनील खिलनानी की स्थापना है कि नेहरु के शासन की असली उपलब्धि यह थी कि उन्होंने भारतीय समाज के केंद्र में राज्य की सत्ता को अधिष्ठित कर दिया। जीवन के हर क्षेत्र- रोज़गार, राशन, शिक्षा, सुरक्षा और सांस्कृतिक पहचान- में राज्य ने अपने उत्तरदायित्व का दावा कर दिया था। भारतीय चेतना में राज्य जिस गहरी तक पैठ चुका था, वहां इससे पहले कोई और राजनीतिक एजेंसी नहीं पहुँच सकी थी। भाखरा-नांगल बाँध सरीखे 'आधुनिक पूजा-स्थल' देश के मानचित्र पर तेज़ी से उभरने लगे थे। देश लोहे और सीमेंट के प्यार की गिरफ़्त में था।

नेहरु के नेतृत्व में भारतीय समाज को बदल देने की राष्ट्रवादी राज्य की महत्वकांक्षा का स्क्रिप्ट शहरों में तैयार हुआ और यहाँ से गाँव-कस्बों में ले जाया गया। इस आधुनिकता ने हिन्दुस्तान और उसके बाशिंदों को जटिलताओं और विरोधाभासों के अखाड़े में धकेल दिया। खिलनानी रेखांकित करते हैं कि आधुनिक विश्व के सभी प्रलोभन शहरों में केन्द्रित हैं, लेकिन यहीं पर अनेक हिन्दुस्तानियों ने इस आधुनिकता की मृग-मरीचिका को भी समझा। इन अनुभवों ने भरोसों को झिंझोड़ा, नई राजनीति को पैदा किया, और ये शहर भारतीय लोकतंत्र के विरुद्धों के रंगमंच बने। इन शहरों में 'भारत' की समझदारी को लेकर नए विवाद हुए और नई परिभाषाएं गढ़ी गयीं।

शहरों के इस बदलते माहौल ने फिल्मकारों को जटिल कथानकों की ओर आकृष्ट किया जिन्हें मेलोड्रामा और सामाजिक फिल्म शैली में परदे पर उतारा जा सके। यह महज़ कहीं पीछे छूट गई सीधी-सादी जीवन-शैली के लिए ललक नहीं थी, बल्कि यह खो गई निर्दोषता की तलाश थी और राष्ट्र-निर्माण के वृहत उत्सव में एक कला-रूप द्वारा अपनी जगह तलाशने और बनाने की जिद्द भी थी। उल्लेखनीय है कि श्री 420 में बेतरतीब कपड़े पहने एक बेघर-बार नायक उस नेहरु की राजनीति को प्रतिनिधित्व देता है जो सुरुचि-पूर्ण कपड़े पहनता है। नायक गाता है-

निकल पड़े हैं खुली सड़क पर अपना सीना ताने
हैं मंजिल कहाँ, कहाँ रुकना है, ऊपर वाला जाने
नादान हैं जो बैठ किनारे पूछें राह वतन की
चलना जीवन की कहानी
रुकना मौत की निशानी 


इस गीत में आज़ादी की आधी रात को दिए गए नेहरु के 'नियति के साथ करार' भाषण की गूँज सुनाई देती है जिसमें उन्होंने कहा था कि 'क्या हममें इतना साहस है की हम इस अवसर को थामें और भविष्य की चुनौतियों को स्वीकार करें!'। फिल्म के शुरू में ही शहर को लेकर बनी समझदारी को उस मील के पत्थर के माध्यम से दिखाया गया है जिसपर शहर- बंबई- की दूरी 420 किलोमीटर लिखा हुआ है। भारतीय दंड-संहिता में यह उस धारा की संख्या है जिसके अंतर्गत धोखाधड़ी और जालसाज़ी जैसे अपराध आते हैं। शहर को धूर्तता से भरी जगह होने के लोकमानस की आम-समझ से ही यह फिल्म शुरू होती है। शहर से नायक राजू का पहला परिचय उसकी भागती-दौड़ती जीवन-शैली से होता है। अराजक शहर को देखकर विस्मित राजू खुद से कहता है- क्या बम्बई में रहने वाले सभी बहरे हैं! बम्बई से परिचय के प्रारम्भिक क्षण दिखाते हैं कि राजू की कस्बाई निर्दोषता शहरी संस्कृति से बेमेल है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का केंद्र रहे शहर इलाहाबाद के राजू के लिए देश की आर्थिक राजधानी बम्बई एक ऐसा स्थान है जहाँ उसके लिए जगह नहीं है। राजू के पास बैठा भिखारी सीधे-सीधे कहता है- ये अंधे-बहरे पैसे के अलावा कुछ और नहीं देखते। यहाँ इमारतें कंक्रीट की बनी हैं और दिल पत्थर के। इस शहर में बचे रहने की लड़ाई की इस कहानी में फिल्म लगातार नैतिकता और अच्छाई का पक्ष लेती चलती है। महानगर निरंतर विलगाव पैदा करता है, लेकिन नायक बिना अपनी संवेदनशीलता खोये वहीँ रहने की ज़िद्द धरे हुए है। फिर वहां विस्थापित बेघर मजदूर हैं जो नायक को पनाह देते हैं। एक जैसे मुश्किलों के आधार पर यह सहभागिता बनती है। यह सहभागिता उस छूट गए अंचल की एका से मज़बूत होती है जो लाक्षणिक रूप में यूँ बयान होती है- 'गंगा माई के बच्चे सब भाई-भाई हैं'। शहर के हाशिये उस फूटपाथ की बूढ़ी महिला का नाम गंगा है जो उस समूह की 'माँ' है। इस नाम से दो तत्व सांकेतिक होते हैं: एक, वह 'देस' जो मूल निवास है- संयुक्त प्रान्त, और दूसरा, साझी संस्कृति। यह उस अथाह अँधेरे में पवित्रता की तलाश भी है। ये लोग 'भूखे-नंगों का राज' का सपना देखते हैं। राजू यानि राज का फूटपाथ पर आना एक नई उम्मीद का संकेत है। दिल का हाल सुने दिलवाला गीत शहर को उसके हाशिये से देखने की कोशिश है और उसके विरुद्ध आरोप-पत्र भी।

फिल्म की नायिका का नाम विद्या है जो 'नैतिक मूल्यों' की वाहक है। उसके साधारण घर में उसकी माँ के चित्र के अतिरिक्त दो और चित्र हैं- नेहरु और विवेकानंद के। इस नए राष्ट्र के ये 'मानक आदर्श' हैं जिनका अनुसरण जनता को करना है। इसके विपरीत जो महिला चरित्र है, उसका नाम माया है जो 'धन-लोलुप' है और पाश्चात्य संस्कृति के 'विकृत मूल्यों' से प्रभावित है। लेकिन फिल्म संस्कृति और संस्कारों का अँधा समर्थन नहीं करती। फिल्म में जो चरित्र 'स्वदेशी, धर्म, संस्कृति, मन की शांति, आत्मा और देश' की दुहाई देता है, वह एक बेईमान नेता और व्यवसायी है। उसके उलट राजू दिन्दुस्तानी 'दिल' और रोटी की ज़रुरत की बात करता है। फिल्म में मकान की समस्या शहर की केन्द्रीय समस्या है। भ्रष्ट व्यवसायी सस्ते मकान का लालच देकर ग़रीबों को ठगने की कोशिश करता है। जब उन्हें इस बात का पता चलता है तो वे सहकारी प्रोजेक्ट के आधार पर सामूहिक प्रयास से इस समस्या का निदान ढूंढते हैं। फिल्म उस दृश्य के साथ समाप्त होती है जिसमें एक सुनोयोजित कालोनी है जहाँ सभी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं। यह फिल्म नेहरु के योजना और सामाजिक न्याय की समझ से प्रेरित है और उन तमाम तत्वों का विरोध करती है जो इसमें बाधक बन रहे थे। लेकिन, यह फिल्म राज्य को भी अधिक मानवीय और संवेदनशील बनाती है।

श्री 420 का बेघर-बार विस्थापित नए भारत का अपना दृष्टिकोण लेकर आवारा  में भी उपस्थित है। इस फिल्म में भी झुग्गी-झोपड़ी में जी रही ज़िंदगी का चित्रण है और इसका मानना है कि बुनियादी ज़रूरतों के पूरा न होने की मजबूरी में ही ग़रीब को अपराध करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। मशहूर आवारा हूँ  गीत शहर की सड़कों और बाज़ारों की हलचलों को रेखांकित करती है। इस फिल्म में भी आपराधिक तत्व और पुराने मूल्य खलनायक के बतौर मौजूद हैं। शहर अमीरों और ग़रीबों के द्वैत में बंटा है। जज रघुनाथ जब अपनी पत्नी को घर से निकाल देते हैं जो फिल्म सीता के मिथक का सहारा लेकर महिलाओं की आम स्थिति को बयान करती है- जुलम सहे भारी जनकदुलारी। कुल मिलाकर यह फिल्म भी नेहरूवियन दृष्टि को भविष्य का रास्ता बताती है।

लेकिन फिल्में नेहरु के विचारों को आलोचनात्मक नजरिये से भी परख रही थीं। बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन  राष्ट्र के विकास के मॉडल और उसके वर्गीय सांठ-गाँठ को सामने लाती है। इस फिल्म का केन्द्रीय चरित्र क़र्ज़ की रकम चुकाने के लिए रोज़गार की तलाश में गाँव से शहर- कलकत्ता जाता है। आधुनिकता समृद्धि पैदा करती है- इस अफवाह से प्रभावित नायक शम्भू महतो कहता है- कलकत्ता में पैसे हवा में उड़ते हैं। शहर एक बार फिर गाँव से आये आदमी के लिए सहज नहीं हैं और रहने की जगह बड़ी समस्या है। यह समस्या ग़रीबों में एक साझेदारी पैदा करती है। फिल्म यह भी दिखाती है कि सरकारी तंत्र खाली पड़े जगहों पर ग़रीबों को बैठने भी नहीं देती। यह दृश्य राज कपूर और गुरु दत्त की फिल्मों में भी दिखता है। पानी को लेकर हो रहे झगड़े के माध्यम से झुग्गी की ज़िंदगी की मुश्किलों को दिखाया गया है। एक दृश्य में महतो कहता है- पैसे के बिना साँस लेना भी मुश्किल है। ग़रीबों की दशा को विकलांग मजदूर, बूढ़ा रिक्शावाला, बाल मजदूर आदि के माध्यम से भी रेखांकित करने की कोशिश की गयी है। शहर के वंचित तबकों की जिंदा रहने की लड़ाई को फिल्म दिखाती चली जाती है लेकिन इससे पहले उल्लिखित फिल्मों की तरह कोई 'नियति के साथ करार' मॉडल का समाधान नहीं देती। सत्ता तो सत्ता, गजब तेरी दुनिया गीत के माध्यम से ग़रीब भगवान् से नाराजगी दिखाते हैं। इन तीनों फिल्मों में महानगर को 'परदेस' और मूल निवास को 'देस' की संज्ञा दी गयी है। यह आधुनिकता के विचारधारा से हिन्दुस्तान के बड़े हिस्से की असहजता का द्योतक है।

इस दशक की बड़ी फिमों से एक है बी आर चोपड़ा की नया दौर। इसका कथानक पारंपरिक उद्योग और मशीनीकरण के बीच बहस पर केन्द्रित है। फिल्म की शुरुआत महात्मा गांधी के एक कथन से होती है जिसमें श्रम की महत्ता की बात कही गयी है। पूरी तरह से गाँव में स्थित यह फिल्म शहर के सन्दर्भों से भरी है। गाँव के आर्थिक मुखिया का बेटा शहर से शिक्षित होकर लौटता है और आधुनिकीकरण तथा अधिक लाभ के लिए प्रेरित है। वह शहर से प्रशिक्षित श्रमिक मांगता है, मशीनें लगता है और बेरोजगार गाँव वालों को शहर जाने की सलाह देता है। इस पर नायक कहता है- 'देसवालों को परदेस भेजना चाहते हो'। शहर से आया पत्रकार वामपंथी रुझान का है जो चीन और रूस की बात करता है। फिल्म मशीनों और पारंपरिक कौशल के बीच संतुलन बनाने के सन्देश के साथ ख़त्म होती है। यह फिल्म जहाँ नेहरुवादी रुझान के साथ चलती है, वहीँ फिल्म का खलनायक नेहरु की भाषा में बोलता है। इसे नेहरु की आलोचना के तौर पर देखा जाना चाहिए क्योंकि उसके पिता गाँधी की समझदारी का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी नज़र में गाँव के मूल्य पवित्र हैं और वे ख़ुद को ग्रामीण अर्थव्यवस्था के तरसती के रूप में देखते हैं। कई जगह नायक शंकर वामपंथी सिद्धांतों से प्रभावित नज़र आता है। इन अलग-अलग समझदारियों के बीच संतुलन और सामंजस्य की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए फिल्म पूरी होती है। लेख में पहले ही कहा गया है कि नेहरु 1957 तक खुद अर्थव्यवस्था के सभी घटकों में संतुलन की बात कहने लगे थे और औद्योगिकीकरण को लेकर उनकी ज़िद्द में कमी आ रही थी। फिल्म धार्मिक अंधश्रद्धा पर भी प्रहार करती है। नायक एक जगह ऊँची जातियों और वर्गों पर ग़रीबों के शोषण के लिए धर्म और आस्था की आड़ लेने का आरोप भी लगाता है और कहता है- 'आदमी के रस्ते में भगवान भी आएगा तो मैं रुकूँगा नहीं'।
   
दो बीघा ज़मीन की तरह गुरु दत्त की प्यासा भी स्थिति पर संताप करती है। उस युग के बुरे हालात को फिल्म भूख, बेरोज़गारी, वेश्यावृति आदि के माध्यम से दिखाती है और किसी समाधान को सुझाने से बचती है। फिल्म के अंत में नायक और नायिका शहर छोड़ कर किसी अनजान जगह की ओर चल देते हैं। 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं' गीत के ज़रिये नायक ग़रीबों की दुर्दशा के लिए राज्य और समाज को सीधे-सीधे दोषी ठहराता है। हिन्दुस्तान की महान फिल्मों से एक मानी जाने वाली मदर इण्डिया को नेहरूवियन राजनीति का सिनेमाई अनुवाद कहा जाता है। स्त्री, किसान और विकास के सहारे यह फिल्म महाजनी व्यवस्था और शोषण के विरुद्ध हिंसक विद्रोह की आलोचना करती हुई यह फिल्म राज्य और उसके आधुनिक विकास के मॉडल को समाधान के रूप में सामने रखती है। इसी कारण मदर इण्डिया को सिनेमाई 'भारत की खोज' भी कह दिया जाता है।

इन फिल्मों पर बात करते हुए हमें मेलोड्रामा को भी ध्यान में रखना चाहिए जहाँ ज़ोरदार भावुकता, नैतिक ध्रुवीकरण, स्पष्ट दुष्टता, संवादों, हाव-भाव और स्थितियों का अतिरेक, अच्छाई की जीत आदि तत्वों की निरंतर मौजूदगी रहती है। अच्छाई और बुराई के साफ ध्रुवीकरण के द्वारा मेलोड्रामा देश और काल के असली शक्तिओं का चित्रण करता है और बुराई से संघर्ष के लिए प्रेरित करता है ताकि सामाजिक-व्यवस्था को बरकरार रखा जा सके। इसी क्रम में गीत-संगीत और अन्य कला-पक्षों का भी ख्याल रखा जाना चाहिए। यह सही है कि अभी-अभी आज़ाद हुआ देश नेहरु के जबरदस्त आकर्षण में था और उनके नेतृत्व से उससे बड़ी उम्मीदें थीं। उन्हें उस समय कई तरह की राजनीतिक विचारधाराओं से समर्थन मिल रहा था जो समय-समय पर उनका विरोध भी करते थे। ऐसे में तब की फिल्मों में वामपंथी रुझान के कलाकारों, लेखकों और तकनीशियनों के योगदान को समझना बहुत आवश्यक हो जाता है। नेहरु, जिनके बारे में टैगोर ने कहा था कि वे अपने कामों से कहीं अधिक बड़े और अपने परिवेश से कहीं अधिक सच्चे थे, के व्यक्तित्व और उनके विचारों को तथा हिंदुस्तानी सिनेमा में उसके चित्रण को ठीक से समझने के लिए विस्तार से लिखे और पढ़े जाने की ज़रूरत है। साथ ही, इन फिल्मों पर कोई अंतिम निर्णय देने से पहले इस माध्यम की सीमाओं और उस समय की पड़ताल भी ज़रूरी है। अगर हम फिल्मों को उनके सन्दर्भों और तत्कालीन परिस्थतियों से काटकर देखने की कोशिश करेंगे तो कला के रूप में तथा सामाजिक बदलाव के एक औजार के रूप में इसे कुंद ही करेंगे।
प्रकाश के रे के मार्फत हंस से उधार

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