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Showing posts from July, 2012

सत्‍यमेव जयते-13 : अकेले व्‍यक्ति की शक्ति-आमिर खान

मैं अकेला क्या कर सकता हूं? एक अरब बीस करोड़ की आबादी में मैं तो बस एक हूं। अगर मैं बदल भी जाता हूं, तो इससे क्या फर्क पड़ेगा? बाकी का क्या होगा? सबको कौन बदलेगा? पहले सबको बदलो, फिर मैं भी बदल जाऊंगा। ये विचार सबसे नकारात्मक विचारों में से हैं। इन सवालों का सबसे सटीक जवाब दशरथ मांझी की कहानी में छिपा है। यह हमें बताती है कि एक अकेला आदमी क्या हासिल कर सकता है? यह हमें एक व्यक्ति की शक्ति से परिचित कराती है। यह हमें बताती है कि आदमी पहाड़ों को हटा सकता है। बिहार में एक छोटा सा गांव गहलोर पहाड़ों से घिरा है। नजदीकी शहर पहुंचने के लिए गांव वालों को पचास किलोमीटर घूम कर जाना पड़ता था, जबकि उसकी वास्तविक दूरी महज पांच किलोमीटर ही थी। दरअसल, शहर और गांव के बीच में एक पहाड़ पड़ता था, जिसका चक्कर लगाकर ही गांव वाले वहां पहुंच पाते थे। इस पहाड़ ने गहलोर के वासियों का जीवन नरक बना दिया था। एक दिन गांव में दशरथ मांझी नाम के व्यक्ति ने फैसला किया कि वह पर्वत को काटकर उसके बीच से रास्ता निकालेगा। अपनी बकरियां बेचकर उन्होंने एक हथौड़ा और कुदाल खरीदी और अपने अभियान में जुट गये। गांव वाले उन पर

फिल्‍म समीक्षा : क्‍या सुपर कूल हैं हम

फूहड़ एडल्ट कामेडी -अजय ब्रह्मात्‍मज सचिन यार्डी की क्या सुपर कूल हैं हम अपने उद्देश्य में स्पष्ट है। उन्होंने घोषित रूप से एक एडल्ट कामेडी बनाई है। एडल्ट कामेडी के लिए जरूरी नटखट व्यवहार,द्विअर्थी संवाद,यौन उत्कंठा बढ़ाने के हंसी-मजाक और अश्लील दृश्य फिल्म में भरे गए हैं। उनके प्रति लेखक-निर्देशक ने किसी प्रकार की झिझक नहीं दिखाई है। पिछले कुछ सालों में इस तरह की फिल्मों के दर्शक भी तैयार हो गए हैं। जस्ट वयस्क हुए युवा दर्शकों के बीच ऐसी फिल्मों का क्रेज किसी लतीफे के तरह प्रचलित हुआ है। संभव है ऐसे दर्शकों को यह फिल्म पर्याप्त मनोरंजन दे। आदि और सिड संघर्षरत हैं। आदि एक्टर बनना चाहता है और सिड की ख्वाहिश डीजे बनने की है। दोनों अपनी कोशिशों में लगातार असफल हो रहे हैं। कुछ सिक्वेंस के बाद उन्हें अपनी फील्ड में स्ट्रगल की परवाह नहीं रहती। वे लड़कियों के पीछे पड़ जाते हैं। लेखक-निर्देशक उसके बाद से उनके प्रेम की उच्छृंखलताओं में रम जाते हैं। वही इस फिल्म का ध्येय भी है। क्या सुपर कूल हैं हम में स्तरीय कामेडी की उम्मीद करना फिजूल है। फूहड़ता और द्विअर्थी संवादों की झड़ी लगी रहती है। फ

फिल्‍म समीक्षा:आलाप

नक्सलवाद का काल्पनिक निदान  -अजय ब्रह्मात्‍मज नए डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, एक्टर की टीम ने मिल कर नए माहौल में आलाप रचने की कोशिश की है। छत्तीसगढ़ के इन नौजवानों की कोशिश की सराहना की जानी चाहिए। उन्होंने स्थानीय प्रतिभाओं के साथ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुछ परिचित नामों को जोड़ कर एक फिल्म बनाने का प्रयास किया है। आलाप नक्सलवाद से प्रभावित इलाकों की कहानी है। इस इलाके के निम्न तबके का एक प्रतिभाशाली युवक पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ खास और अलग करना चाहता था। उसे स्थानीय डीएम से ऐसा करने का प्रोत्साहन भी मिलता है। वह तीन दूसरे युवकों के साथ मिल कर अपनी मंडली बनाता है। वे गीत-संगीत के जरिए समाज में प्रेम और सौहार्द्र फैलाने का काम करते हैं। उनका इलाका नक्सल प्रभावित है। नक्सल और पुलिस की मुठभेड़ में आए दिन निर्दोषों की हत्याएं होती रहती हैं। वे अपने गीतों से मानवता का पाठ पढ़ाते हुए नक्सलियों को भी प्रभावित करना चाहते हैं। इसी उद्देश्य से वे उनके सक्रिय इलाके में प्रवेश करते हैं। चारों अपने बलिदान से नक्सली नेता का हृदय परिव‌र्त्तन करने में सफल रहते हैं। आलाप में गंभीर राजनीतिक समस्या के

कैसे याद रखेंगे दिग्गजों को?

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  एक सप्ताह के अंदर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के दो दिग्गज दिवंगत हो गए। पहले दारा सिंह और फिर राजेश खन्ना.., दोनों अपने समय के खास कलाकार थे। अपने-अपने हिसाब से दोनों ने दर्शकों का मनोरंजन किया। उनके निधन के पश्चात पुरानी फिल्मों की तस्वीरों, फुटेज और यादगार लम्हों से उनके करियर और जीवन की जानकारी मिली। सच कहें तो आज के युवा दर्शकों को पहली बार दारा सिंह और राजेश खन्ना के महत्व का पता चला। लोकप्रिय संस्कृति का यह बड़ा दोष है कि वह मुख्य रूप से वर्तमान से संचालित होती है। अभी जो पॉपुलर है, हम उसी के बारे में सब कुछ जानते हैं। दोनों दिग्गजों की मौत के बाद मुमकिन है कि सभी ने महसूस किया हो कि ज्यादातर चैनलों पर उथली जानकारियां ही परोसी जा रही थीं। विकीपीडिया, आईएमडीबी और फिल्मी वेबसाइट से उठाई गई जानकारियों को ही रोचक तरीके से पेश किया जा रहा था। वैसे कहने को तो देश में हजारों फिल्म पत्रकार हैं और लाखों दर्शक-प्रशंसक सोशल मीडिया नेटवर्क पर अपने विचार प्रकट करते रहते हैं। ज्यादातर विचारों में सोच और संगति नहीं रहती। पूरे देश में एक भी ऐसी लाइब्रेरी, संग्रहाल

हीरोइन की छह तस्‍वीरें

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Blood and lust-partha chatterjee

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partha chatterjee has written this article in Fronline   Volume 29 - Issue 15 :: Jul. 28-Aug. 10, 2012   issue “Gangs of Wasseypur” typifies the commercial cinema in which paranoia passes for intensity.   Director Anurag Kashyap during a road show to promote the film "Gangs of Wasseypur", in Mumbai on June 5. There is more of the withered state of contemporary India to be found in commercial films, particularly those in Hindi, produced in Mumbai, or Bollywood, than in daily newspapers, magazines or even television news channels. If news channels give you a slice of life, commercial films give you a slice of cake disguised as a slice of life! India’s chaotic economic and political condition gets best reflected in the paranoia that passes for intensity in commercial cinema. A case in point is Gangs of Wasseypur, directed by Anurag Kashyap. He is believed to be one of the leading lights of what might be called the “neo-progressives” among Hindi film

अब्बा कैफी आजमी को याद कर रही हैं शबाना आजमी

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-रघुवेन्‍द्र सिंह कैफी आजमी बहुत कम उम्र में जाने-माने शायर हो चुके थे. वे मुशायरों में स्टार थे, लेकिन वे पूरी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे. वे पार्टी के कामों में मशरूफ रहते थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी के पेपर कौमी जंग में लिखते थे और ग्रासरूट लेवल पर मजदूर और किसानों के साथ पार्टी का काम भी करते थे. इसके लिए पार्टी उनको माहवार चालीस रूपए देती थी. उसी में घर का खर्च चलता था. उनकी बीवी शौकत आजमी को बच्चा होने वाला था. कम्युनिस्ट पार्टी की हमदर्द और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की मेंबर थीं इस्मत चुगतई. उन्होंने अपने शौहर शाहिर लतीफ से कहा कि तुम अपनी फिल्म के लिए कैफी से क्यों नहीं गाने लिखवाते हो. कैफी साहब ने उस वक्त तक कोई गाना नहीं लिखा था. उन्होंने लतीफ साहब से कहा कि मुझे गाना लिखना नहीं आता है. उन्होंने कहा कि तुम फिक्र मत करो. तुम इस बात की फिक्र करो कि तुम्हारी बीवी बच्चे से है और उस बच्चे की सेहत ठीक होनी चाहिए. उस वक्त शौकत आजमी के पेट में जो बच्चा था, वह बड़ा होकर शबाना आजमी बना. कैफी साहब ने 1951 में पहला गीत बुजदिल फिल्म के लिए लिखा रोत

सत्‍यमेव जयते-12 : हाथ से फिसलते हालात-आमिर खान

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जब मानव अंतरिक्ष के बाहर जीवन के लक्षणों की तलाश करता है तो सबसे पहले क्या देखता है? वह देखता है जल का अस्तित्व। किसी भी ग्रह में जल की उपस्थिति से यह संकेत मिलता है कि वहां जीवन संभव है। जाहिर है कि जल का अर्थ जीवन है और जीवन का अर्थ जल। हमारी पृथ्वी का 70 प्रतिशत भाग जल में डूबा है, लेकिन इस जल का अधिकांश हिस्सा खारा है। 97 प्रतिशत जल समुद्र के रूप में है, जो पीने के योग्य नहीं है। शेष तीन प्रतिशत जल ही मीठा है, जो बर्फ के रूप में है। दूसरे शब्दों में कहें तो मात्र एक प्रतिशत जल ही सात अरब की मानव आबादी के लिए पेयजल के रूप में उपलब्ध है। केवल मानव आबादी ही नहीं, बल्कि सभी जीव-जंतुओं के लिए भी यही जल जीने का सहारा है। भारत के बारे में यह माना जाता है कि यहां पानी पर्याप्त मात्र में उपलब्ध है। इसका अर्थ है कि हम जितना चाहें उतना पानी हासिल कर सकते हैं, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है कि प्रति वर्ष पानी की यह उपलब्धता घटती जा रही है। अब लगभग पूरे देश में जल संकट की आहट महसूस की जाने लगी है। एक अनुमान के अनुसार ग्रामीण भारत में रहने वाली एक महिला को पानी हासिल करने के

फिल्‍म समीक्षा : गट्टू

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निश्‍छल और मासूम -अजय ब्रह्मात्‍मज  हिंदी में बच्चों पर केंद्रित फिल्में बहुत कम बनती हैं। चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी के सौजन्य से कुछ बनती भी हैं तो रेगुलर थिएटर में रिलीज नहीं हो पातीं। इस लिहाज से राजन खोसा की गट्टू खास फिल्म है। चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी की इस फिल्म को राजश्री ने वितरित किया है। रुड़की शहर का गट्टू अपने चाचा के साथ रहता है। उसका चाचा उसे लाड़-प्यार देता है, लेकिन अपनी तंगहाली और बदहाली की खीझ में कभी-कभी उसकी पिटाई भी कर देता है। गट्टू को चाचा की मार से फर्क नहीं पड़ता। कबाड़ का काम सीखने में उसका ज्यादा मन नहीं लगता। उसे अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह पतंगाबजी का शौक है। वह पतंग उड़ाता है और सपने पालता है कि एक दिन शहर की काली पतंग वह जरूर काटेगा। काली पतंग उड़ाने वाले की किसी को जानकारी नहीं है। काली पतंग सभी पतंगों को काट कर आसमान में अकेली उड़ती रहती है। गट्टू की समझ में आता है कि शहर की सबसे ऊंची छत से पतंग उड़ाई जाए तो काली पतंग को काटा जा सकता है। बाल दिमाग से वह युक्ति भिड़ाता है और स्कूल में दाखिल हो जाता है। अपने आत्मविश्वास और नेकदिल

हौले-हौले आ गया हॉलीवुड

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  बीस जुलाई को बैटमैन की अगली कड़ी भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज होगी। अंग्रेजी के साथ हिंदी, तमिल, तेलुगु में रिलीज हो रही इस फिल्म को भी वफादार दर्शकों के साथ कुछ और दर्शक भी मिलेंगे। हॉलीवुड की फिल्में भारतीय फिल्म बाजार में हौले-हौले अपनी जगह बना रही हैं। साधारण से साधारण हॉलीवुड फिल्में भी उल्लेखनीय कलेक्शन कर रही हैं। अगर चर्चित और प्रतीक्षित फिल्म हो तो उसका कलेक्शन हिंदी फिल्मों के समकक्ष या उससे ज्यादा भी होता है। हॉलीवुड की द अमेजिंग स्पाइडरमैन का कलेक्शन पहले ही हफ्ते में 41 करोड़ का आंकड़ा पार कर गया था। हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में डब करने का चलन बढ़ने से हॉलीवुड का बाजार बढ़ा है। भारतीय दर्शकों को अपनी भाषा में वहां की फिल्में देखने को मिल रही हैं। हॉलीवुड के निर्माता मामूली खर्च कर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में डबिंग कर लेते हैं। इन फिल्मों का जमकर प्रचार किया जाता है। टीवी प्रोमो से लेकर प्रिंट माध्यम में फिल्म के विज्ञापन चलते-छपते हैं। मिशन इंपॉसिबल-4 के लिए तो खुद टॉम क्रूज भारत आए। यहां अनिल कपूर ने उनकी अगवानी की और पूरी ह

राजेश खन्‍ना : जिंदगी पर हावी रहा स्टारडम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  राजेश खन्ना के आने की आहट तो फिल्मफेअर टैलेंट हंट में चुने जाने के साथ ही मिल गई थी, जिसे देश के कुछ दर्शकों ने पहली बार ‘आखिरी खत’ में पहचाना। 1969 में आई ‘आराधना’ से पूरा देश उनका दीवाना हो गया। उसके बाद एक-एक कर उनकी फिल्में गोल्डन जुबली और सुपरहिट होती रहीं। एकाएक हमें देव आनंद, राजेंद्र कुमार और शम्मी कपूर का रोमांस पुराना लगने लगा। तिरछी चाल से पर्दे पर आकर दाएं-बाएं गर्दन झटकते हुए दोनों पलकों को झुकाकर आमंत्रित करती उन आंखों ने दर्शकों पर सीधा जादू किया। देश भर के नौजवान राजेश खन्ना बनने और दिखने को बेताब नजर आए और लड़कियों का तो हसीन ख्वाब बन गए राजेश खन्ना। कहते हैं उनकी सफेद गाड़ी शाम में आशीर्वाद लौटती तो दूर से गुलाबी नजर आती थी। गाड़ी के शीशे, बोनट और डिक्की पर लड़कियों के होंठों की लिपस्टिक उतर आती थी। उनके पहले हिंदी फिल्मों के रूपहले पर्दे पर देव आनंद, राजेंद्र कुमार और शम्मी कपूर की रोमांटिक छवि की धूम थी। तीनों अलग-अलग अंदाज के अभिनेता थे। उन तीनों को पीछे करते हुए राजेश खन्ना अपनी शरारती मुस्कराहट के साथ अवतरित हुए। तब तक हिं

राजेश खन्‍ना

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बारह साल पहले लिखा गया था यह लेख... -अजय ब्रह्मात्‍मज  हिंदी फिल्मों के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना ने लोकप्रियता की वह ऊंचाई हासिल की, जो कभी देव आनंद ने हासिल की थी। बाल काढ़ने की शैली से लेकर पहनावा और बात-व्यवहार तक में युवक इस सुपर स्टार की नकल करते थे। लड़कियां उनकी एक मुस्कान और आंखों की झपकी के लिए घंटों उनके बंगले के आगे खड़ी रहती थीं। राजेश खन्ना ने अपनी इस लोकप्रियता को जी भर कर जिया और जब यह लोकप्रियता हाथों से फिसलने लगी तो समाचार में रहने के लिए पुरानी प्रेमिका अंजू महेन्द्रू को छोड़कर डिंपल कपाडि़या से शादी कर ली। समाचारों में तो वे बने रहे, पर बॉक्स ऑफिस पर उनका जादू फिर से नहीं चल सका। नए सुपर स्टार के 'एक्शन' और 'एंगर' ने राजेश खन्ना को पीछे छोड़ दिया। फिल्में सफल न हों तो नायक का अवसान हो जाता है। राजेश खन्ना का वास्तविक नाम जतिन खन्ना था। फिल्मों में आने का फैसला उन्होंने बहुत पहले कर लिया था, मगर कोई मौका नहीं मिल रहा था। जतिन खन्ना ने तब रंगमंच पर खुद को मांजना शुरू किया। उन्होंने कई नाटक मंचित किए। वार्डन रोड के भूलाभाई देसाई मेमोरियल इं

दमदार कश्यप बंधु -रघुवेन्‍द्र सिंह

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यह आर्टिकल चवन्‍नी के पाठकों के लिए रघुवेन्‍द्र सिंह के ब्‍लॉग अक्‍स-रघुवेन्‍द्र से यहां कट-पेस्‍ट किया गया है.... बड़े भाई ने हिंदी फिल्मों के पारंपरिक ढांचे को ढाह दिया और एक नई सिनेमाई परंपरा की शुरुआत की, और छोटे भाई ने हिंदी सिनेमा की प्रचलित परंपरा की परिधि में रहकर कीर्ति अर्जित की. हिंदी सिनेमा की पाठशाला में दोनों साथ बैठा करते थे, फिर एक क्रांतिकारी और दूसरा अनुयायी कैसे बन गया? चर्चित फिल्मकार बंधुओं अनुराग कश्यप और अभिनव कश्यप के साथ पहली बार उनके रोमांचक अतीत की यात्रा कर रहे हैं रघुवेन्द्र सिंह .   अनुराग कश्यप ने अपना वादा निभाया. उन्होंने अपने छोटे भाई अभिनव कश्यप से स्वयं बात की और फिल्मफेयर के लिए इस संयुक्त बातचीत का प्रबंध अपने घर पर किया. कश्यप बंधुओं का एक साथ बातचीत के लिए तैयार होना हमारे लिए प्रसन्नता और उत्साह का विषय था. हमारी इस भावना से जब अनुराग और अभिनव वाकिफ हुए तो दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े. अनुराग ने अपनी हंसी पर नियंत्रण किया और बड़े सहज भाव से कहा, ‘‘लोगों को पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि हम आपस में बात नहीं करते. लोगों के