फिल्‍म समीक्षा:आलाप

नक्सलवाद का काल्पनिक निदान  -अजय ब्रह्मात्‍मज
नए डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, एक्टर की टीम ने मिल कर नए माहौल में आलाप रचने की कोशिश की है। छत्तीसगढ़ के इन नौजवानों की कोशिश की सराहना की जानी चाहिए। उन्होंने स्थानीय प्रतिभाओं के साथ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कुछ परिचित नामों को जोड़ कर एक फिल्म बनाने का प्रयास किया है।
आलाप नक्सलवाद से प्रभावित इलाकों की कहानी है। इस इलाके के निम्न तबके का एक प्रतिभाशाली युवक पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ खास और अलग करना चाहता था। उसे स्थानीय डीएम से ऐसा करने का प्रोत्साहन भी मिलता है। वह तीन दूसरे युवकों के साथ मिल कर अपनी मंडली बनाता है। वे गीत-संगीत के जरिए समाज में प्रेम और सौहार्द्र फैलाने का काम करते हैं। उनका इलाका नक्सल प्रभावित है। नक्सल और पुलिस की मुठभेड़ में आए दिन निर्दोषों की हत्याएं होती रहती हैं। वे अपने गीतों से मानवता का पाठ पढ़ाते हुए नक्सलियों को भी प्रभावित करना चाहते हैं। इसी उद्देश्य से वे उनके सक्रिय इलाके में प्रवेश करते हैं। चारों अपने बलिदान से नक्सली नेता का हृदय परिव‌र्त्तन करने में सफल रहते हैं।
आलाप में गंभीर राजनीतिक समस्या के काल्पनिक निदान है। इस जटिल समस्या का फिल्म के कुछ किरदारों में सरलीकरण कर लेखक-निर्देशक ने हल खोज लिया है। आलाप की कोशिश अच्छी है। अगर यह स्थानीय रंग में लिपटी रहती तो बेहतरीन फिल्म होती। मुंबई की मसाला हिंदी फिल्मों से प्रभावित आलाप न तो स्थानीय रह पाती है और न मुंबइया मसाला फिल्म बन पाती है। फिल्म के प्रमुख किरदारों का चरित्र निर्वाह मामूली है। नक्सली नेता और पुलिस अधिकारी के चरित्र को भी अच्छी तरह विकसित नहीं किया गया है। हालांकि अभिमन्यु सिंह और मुरली शर्मा ने स्क्रिप्ट की सीमाओं से उठने की कोशिा की है। रघुवीर यादव, ओमकार दास माणिकपुरी और विजय राज जैसे अभिनेताओं का भी सही इस्तेमाल नहीं हुआ है। आलाप एक अनगढ़ फिल्म बनकर रह गई है।
फिल्म का गीत-संगीत प्रभावशाली है। पंछी जालौनवी और अग्नि बैंड ने फिल्म की थीम को समझा और उन्हें उपयुक्त शब्द, स्वर और धुनें दी हैं। फिल्म की आंतरिक बनावट और प्रस्तुति की कमी से गीत-संगीत की विशेषता दब गई है।
** दो स्टार

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