स्‍नेहा खानवलकर : एक ‘टैं टैं टों टों’ लड़की -गौरव सोलंकी

चवन्‍नी के पाठकों के लिए रोटी,कपड़ा और सिनेमा से साभार 
वह एक लड़की थी, स्कूलबस के लम्बे सफ़र में चेहरा बाहर निकालकर गाती हुई, रंगीला का कोई गाना और इस तरह उस संगीत की धुन पर कोर्स की कविताएं याद करती हुई, जिन्हें स्कूल के वाइवा एग्ज़ाम में सुना जाता था। वाइवा पूरी क्लास के सामने होता था। ऐसे ही एक दिन वह टीचर के पास खड़ी थी और कविता उस संगीत से इतना जुड़ गई थी कि पहले उसे उसी धुन पर कविता गुनगुनानी पड़ रही थी और तभी बिना धुन के टीचर के सामने दोहरा पा रही थी। 

टीचर ने पूछा- यह क्या फुसफुसा रही हो?
- मैम, म्यूजिक से याद की है poem..
- तो वैसे ही सुनाओ...
और तब याई रे की धुन पर वह अंग्रेज़ी कविता उस क्लास में सुनाई गई। डाँट पड़ी। लड़की को चुप करवाकर बिठा दिया गया।

लेकिन घर में ऐसा नहीं होता था। कभी कोई मेहमान आता, कोई फ़ंक्शन होता या लम्बे पिकनिक पर जाते तो गाना सुनाने को कहा जाता था। तब शाबासी मिलती थी। उसके चचेरे भाई-बहन भी गाते थे। गाते हुए अच्छे से चेहरे और हाथों की हरकतें कर दो तो घरवाले बहुत ख़ुश होते थे- अरे, आशा से अच्छा गाया है तुमने यह गाना।
और वह कहती है कि हम अच्छा गाते भी थे। मगर आप उसके कहने पर मत जाइए। एक फ़िल्म आई है गैंग्स ऑफ़ वासेपुर। उसमें सुनिए कि कैसे वह चुनौती और बदले से भरा कह के लूंगा गाती है, और उसी के साथ बच्चों सी प्यारी आवाज़ में टैं टैं टों टों। उसका नाम स्नेहा खानवलकर है। ऐसी मराठी संगीतकार, जो जिया तू बिहार के लाला कम्पोज करती है और आप अब भी कहते हैं कि मोहब्बत, दूसरों की इज़्ज़त और बराबरी संविधान के रास्ते से आएगी।
लेकिन फ़िलहाल दुनिया बदल डालने की बड़ी बड़ी बातें करने की बजाय हमें अपनी कहानी पर लौटना चाहिए, जहाँ स्नेहा से गाना गाने के लिए कहा गया है और वह अच्छी बच्ची की तरह गरदन झुकाकर बैठ गई है, दोनों हथेलियां गोद में रखकर, और गाना शुरू कर रही है। वह अब भी ऐसे ही अच्छी बच्ची बनकर बैठ जाती है, जब दिबाकर बनर्जी या अनुराग कश्यप कहते हैं कि जो कम्पोज किया है, गाकर बताओ ना।

गाने में उसका हमेशा अलग ज़ोन में आ जाना इसलिए भी है कि उसे हमेशा लगता रहा कि जो परंपरागत अच्छी मानी जाने वाली आवाज़ है, लता, आशा, चित्रा या कविता की, या सुनिधि की, वह उससे बहुत दूर है। यूं तो बचपन से ही तारीफ़ मिलती थी और कहा जाता था कि सिंगर बनो तुम, लेकिन उसे कहीं न कहीं लगता रहा कि उसकी आवाज़ को स्वीकार नहीं किया जाएगा। टीवी पर जो गाने की प्रतियोगिताएं आती थीं या तारीफ़ के साथ जैसी प्रतिक्रियाएं उसे घर और स्कूल में मिलती थीं, उनमें यह दिखता भी था। इसीलिए उसने गायिका बनने के विकल्प को बहुत पहले ही दरवाज़ा दिखा दिया था। उसे दूसरों के हिसाब से ढलने और उन्हें खुश करते रहने में ज़िन्दगी नहीं बितानी थी।
लेकिन ज़िन्दगी बितानी कैसे थी? एक मध्यमवर्गीय मराठी परिवार था। पिता इंजीनियर थे, भाई भी इंजीनियर। स्नेहा की ड्रॉइंग अच्छी थी तो कहते थे कि इसे आर्किटैक्ट बनाएंगे। पर स्नेहा तो म्यूजिक को लेकर टची होती जा रही थी। सब मैटल सुन रहे हैं तो उसे क्यों नहीं समझ आ रहा? अनजाने में ही भीतर कहीं था कि मुझे तो सुर-ताल सब पता है, मुझे तो सब आना ही चाहिए। संगीत मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है जैसी यह भावना ही उसे संगीत में और डुबोती गई।
उसकी एक और ख़ासियत थी कि जब भी बातें करती थी, उनमें ध्वनियां बहुत स्वाभाविक ढंग से आती थी। साउंड उसके डायलॉग्स का ज़रूरी हिस्सा था। मोटरसाइकिल पर कहीं जाने की बात करनी हो तो उसके ढक ढक ढर्र स्टार्ट होने की आवाज़ के बिना पूरी नहीं होती थी। किसी अंग्रेजी गाने के बोल नहीं आते थे तो टैंग टैंग टिंग टिंग या ऐसी ही किसी मज़ेदार ध्वनि से रीप्लेस करके गाती रहती थी। उसे इसमें मज़ा आता था कि कितने सारे वाद्ययंत्रों की आवाज़ों की हम नकल करते हैं, कर सकते हैं और तब वह नकल अलग ही आवाज़ बन जाती है और उस इंस्ट्रूमेंट का चरित्र ही बदल देती है। तब उसे नहीं पता था कि उसे कुछ साल बाद साउंड ट्रिपिंग नाम का एक टीवी शो करना है, जिसमें वह भारत के गली-मोहल्लों-गाँवों-खेतों-मैदानों-पहाड़ों में जाकर आवाज़ें ढूंढ़ेगी और उनसे संगीत रचेगी। तुम्बी की टुंग टुंग उसे इतनी ग्रेसफ़ुल और अद्भुत लगती थी कि वह जब भी अपनी हाई फ़्रीक्वेंसी पर बजती है, कहीं भी अलग ही सुनाई देती है। इसीलिए उसने पंजाब की प्रतिभावान नूरा बहनों के साथ मिलकर और उसमें स्पोर्ट्स कमेंट्री मिलाकर टुंग टुंग बनाया। एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी की आवाज़ों से स्क्रैप रैप बनाया, अफ्रीकन मूल की कर्नाटक में रहने वाली एक जनजाति के कोंकणी गीत से येरे येरे बनाया और नौटंकी के हर द्विअर्थी रंग को उसकी पूरी स्वाभाविकता के साथ फिंगर में लेकर आई। उसके गानों में झाडू की आवाज़ें भी आईं, कपड़े धोने की आवाज़ें भी और मुर्गे की बांग भी। उसने गैंग्स ऑफ वासेपुर के गानों में फ़ैक्ट्री के सायरन भी इस्तेमाल किए और हँसते हुए और कविता गाते बच्चे भी। ओए लकी लकी ओए में उसने ट्रक की सारी आवाज़ों से ट्रकां वाला गीत रचा और एक किशोर से मांगेराम की लिखी क्लासिक रागिनी तू राजा की राजदुलारी गवाई। वही कु कु कु कु फुतर फू जैसे कोरस लाई और हमें हँसाते हँसाते हमारी आदतें बदलीं।
लेकिन तब वह दसवीं में थी और ठीक से नहीं जानती थी कि उसे क्या करना है। उन्हीं दिनों उसका परिवार मुम्बई शिफ़्ट हो गया। वे तो शायद बेटी को इंजीनियर या आर्किटेक्ट बनते देखना चाहते थे, लेकिन मुम्बई में बेटी ने चारों तरफ मास कम्युनिकेशन और एनिमेशन जैसी चीजों का शोर देखा। पढ़ाई के साथ एनिमेशन का कोर्स करने लगी। वह केन घोष का स्टूडियो था। एनिमेटर्स एक कम्प्यूटर के सामने स्थिर बैठे-बैठे, चाइनीज फ़ूड खाते-खाते पूरा दिन गुज़ार देते थे। जल्दी ही उसे वहाँ घुटन होने लगी। वह वहाँ से बाहर निकलने के रास्ते तलाश ही रही थी कि एक दिन लंचटाइम में वहीं की लाइब्रेरी में उसने आर्ट डायरेक्शन पर एक किताब पढ़ी। और तब केन घोष के एग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर को घंटों पकाया कि यह आर्ट डायरेक्शन होता क्या है? पता नहीं कि उसे खुद कितना मालूम था लेकिन उसने बहुत सारा ज्ञान दिया और आख़िर में थककर उमंग कुमार का नम्बर उसे दे दिया। उमंग केन घोष की अगली फ़िल्म इश्क विश्क के आर्ट डायरेक्टर थे।
एनिमेशन को विदाई देकर वह उमंग कुमार की इंटर्न बन गई। वे बारहवीं की छुट्टियों के दिन थे। वहाँ वह सबसे छोटी थी और उसे कोई गंभीरता से नहीं लेता था। उसका इतना महत्व तो था कि वह वहाँ काम कर रहे मज़दूरों से अच्छे से कम्युनिकेट कर लेती थी और काम करवा लेती थी। मुम्बई में पली-बढ़ी लड़कियाँ भैया, ये कर देंगे प्लीज़ तो कहती थीं लेकिन उससे कुछ होता नहीं था। वह इंटर्नशिप स्नेहा के इस काम आई कि उसने देखा कि कैसे किसी आम से नाटकीय आइडिया पर इतने सारे लोग सुबह से लगे रहते हैं। सीन क्या है कि लड़की को छाता लेकर आना है, और उस छाते को देर तक पोंछ रहे हैं, सजा रहे हैं। वह उन छातों पर अपनी ड्रॉइंग्स बना दिया करती थी।
लेकिन एक दिन उसे लगा कि यह नहीं बनाना। कुछ और है, जो बनने के लिए उसका इंतज़ार कर रहा है। उसने सारे छाते छोड़े और फिर ज़िन्दगी की बरसात में लौट आई, अपने घर, जहां मां-पिता तंग आ गए थे। वह बार-बार फ़ील्ड बदल रही थी और उन्हें लग रहा था कि बस भाग रही है। पिता चाहते थे कि इससे अच्छा तो गायकी में ही कुछ करे, लेकिन उसने साफ़ मना कर दिया था। वे उसे एनिमेशन की पढ़ाई के लिए अमेरिका भेजना चाहते थे, लेकिन इसके लिए किया जाने वाला तामझाम, पेपरवर्क और बहुत सारा खर्च उसके स्वभाव से बिल्कुल उलट था। इसलिए वह चुप होकर घर बैठ गई। बिना अपना इरादा बताए, बस यह कहकर कि मुझे थोड़ा वक़्त दीजिए। उनके पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था।
तो वह घर में ही कभी वॉकमैन में अपनी धुनें रिकॉर्ड करने लगी और कभी-कभी दो-तीन हज़ार में आ जाने वाले कीबोर्डिस्ट्स को घर बुलाकर अपनी स्क्रैच धुनें बनाने लगी। उन्हीं दिनों उसने कहीं तिग्मांशु धूलिया का एक इंटरव्यू पढ़ा और कहीं से उनका फ़ोन नम्बर ढूंढ़कर फ़ोन किया। उन्होंने मिलने बुलाया और फिर अपनी फ़िल्म ‘किलिंग ऑफ अ पॉर्न फिल्ममेकर’ के दो गाने बनाने को कहा। पीयूष मिश्रा उन दिनों तिग्मांशु के यहाँ म्यूजिक के डीन जैसे थे। एक दिन वह एक धुन ले गयी और पीयूष को सुनाई। उन्हें वह बहुत पसंद आई और उन्होंने तिग्मांशु को फोन करके बताया कि लड़की ने बहुत अच्छी धुन बनाई है। किसी भी अच्छी शुरुआत की तरह लड़की का सफ़र शुरू हुआ लेकिन फ़िल्में कभी भी रुक सकती हैं। वह फ़िल्म भी रुक गई।

यह थोड़ा परेशान करने वाला तो था लेकिन इसी रास्ते से उसे रामगोपाल वर्मा और अनुराग कश्यप मिले।

इससे पहले अनुराग कश्यप को नहीं जानती थी। थियेटर का भी ज़्यादा नहीं पता था। इंदौर में एक दो मराठी प्ले देखे होंगे, लेकिन जानती नहीं थी ये सब। पीयूष मिश्रा को देखा तो पता चला कि जुनूनी कैसे होते हैं, अनुराग का फ़िल्म को लेकर जूनून देखा। उनकी ब्लैक फ़्राइडे की रिकॉर्डिंग देखी। वहां उन्होंने भी गाने का बोला। मैं उसी मोड में आ गई। तो इस तरह इन लोगों से मिलके फ़िल्म का जो मिथ था कि सोचते सोचते बनती होगी, जो ख़याली पुलाव वाला मिथ था, वो टूट रहा था, लेकिन एक बेहतर मिथ बन रहा था। ऐसे लोग देखे जैसे कभी नहीं देखे थे। और किस्मत थी कि जो मैं बना रही थी, वे पसंद कर रहे थे। तो मुझे लगा कि कुछ तो अच्छा होगा इसमें..
उसके बाद उसने रूचि नारायण की फ़िल्म ‘कल’ का एक गाना बनाया और मनीष श्रीवास्तव की फ़िल्म ‘गो’ का संगीत दिया। लेकिन दिबाकर बनर्जी की ‘ओए लकी लकी ओए’ उसकी पहली सोलो फ़िल्म थी। तिग्मांशु की तरह ही उसने दिबाकर को भी एक दिन फोन किया था और कहा था कि मैंने आपकी फ़िल्म ‘खोसला का घोंसला’ तो नहीं देखी है लेकिन उसका म्यूजिक सुना है, और सुनकर लगता है कि हम साथ काम कर सकते हैं। दिबाकर ने मिलने के लिए बुलाया। दो लाइनें दी, और उन पर कुछ कम्पोज करने को कहा। अगली बार जब वे मिले तो स्नेहा की धुनें तैयार थी और स्नेहा दिबाकर की अगली फ़िल्म का संगीत देगी, यह उन्हें सुने जाने के तुरंत बाद तय हो गया था।
वह कोई और फ़िल्म थी, जिसके लिए उन्होंने काम शुरू किया था लेकिन बनी ‘ओए लकी लकी ओए’। फ़िल्म में दो ही गाने होने थे। एक टाइटल गीत और एक ‘तू राजा की राजदुलारी’। बरसों पहले एक विज्ञापन की शूटिंग के दौरान दिबाकर ने एक राहगीर को माचिस पर ‘राजदुलारी’ बजाते और गाते सुना था। वह उनके दिमाग में तभी से था लेकिन इसके अलावा उसके बारे में उन्हें कुछ नहीं पता था। वे उसे पंजाबी गीत मानकर चल रहे थे।
तो स्नेहा फ़िल्म के दोनों गीत तलाशने पंजाब गई। ‘ओए लकी’ गाने के लिए उसे देशराज लचकानी को खोजना था। खोजने के लिए वह गाँवों, कस्बों, शहरों में बेपरवाह घूमती है। किसी भी नुक्कड़ पर ठहराकर चाय या पान वाले से पूछती हुई कि यहाँ आसपास कोई गायक रहता है क्या? कोई कुछ बताता है तो गाड़ी में साथ बिठा लेती है और इस तरह किसी के भी घर पहुँच जाती है, उसे सुनती है। देर तक यह बताने से बचती है कि वह किसी हिन्दी फ़िल्म के लिए गायक खोज रही है। यह इसलिए कि कहीं वे स्थानीय कलाकार इस भव्यता के डर से अपनी स्वाभाविकता न खो दें और गाने से पहले अपने आप पर अपना कोइ स्क्रीनप्ले ना ओढ़ लें। यह उसका अपना टैलेंट हंट है जिसमें वह वे आवाजें खोजती है, जो उसे बांधकर अपने आँगन में बिठा लें। वह उनके बीच में उनकी बनकर ही बैठती है और कहती रहती है, और गाकर दिखाओ ना।
तो इसी प्रक्रिया में उसे बहुत सारे लोग मिले, दिलबहार और नूरा बहनें भी। ‘जुगनी’ बनाने का ख़याल भी मिला, देशराज लचकानी भी मिले, जिन्होंने ‘जुगनी’ गाया। लेकिन पूरा पंजाब छानने पर भी उसे ‘राजदुलारी’ नहीं मिला। मिलता भी कैसे, हरियाणा के ऐसे रागिनी उत्सवों में उसका घूमना अभी बाकी था, जहाँ अक्सर वह इकलौती लड़की हुआ करती थी। 

खैर,
 वह पूरा खज़ाना लेकर लौटी और जब साल भर बाद हम सबने ‘ओए लकी’ के गीत सुने - जो जितने पुराने थे, उतने ही नए थे - तो हम चौंक गए। यह हिन्दी सिनेमा की चौथी महिला संगीतकार के कदमों की बेपरवाह आवाज़ थी। पुरुषों के वर्चस्व वाले एक क्षेत्र में जहां यह उपलब्धि थी, वहीं चुनौती भी थी। और इकलौती चुनौती नहीं।

शुरू में किसी ने कहा था कि अभी तो तुम फ़ीमेल की तो बात ही मत करो। अभी तो ना तुम्हारी उम्र तुम्हारे साथ है, ना तुम फ़िल्म या संगीत के बैकग्राउंड से हो। तीसरा लड़की हो और चौथा, दुबली पतली सी हो। डांटोगी, तो भी कितना सीरियसली लेगा कोई? ज़्यादा अंतर नहीं है लड़का और लड़की होने में, लेकिन आपको डायरेक्टर, गीतकार और म्यूजिशियंस के साथ बैठना पड़ता है। इन तीनों की डीलिंग में बहुत अंतर आ जाता है। इंडस्ट्री के पुराने म्यूजिशियन हों तो उनके साथ थोड़ा टाइम लगता है। लगातार ढूंढ़ते रहते हैं कि कुछ अलग होगा इसमें। मुझे फ़ील होता रहता है कि मुझे जज किया जा रहा है। वह संगीत से किया जाता है जज, लेकिन किया जाता है। शुरुआत में ऐसा होता था कि रिकॉर्डिंग हो रही है और सब सिगरेट पीने बाहर चले जाते थे या आपस में कुछ बातें करने लगते थे। ‘Guys Talk’ सबसे ज्यादा स्टूडियो में ही होती है। तो कम्युनिकेशन के लेवल पर भी मुश्किल होती है। लेकिन यही इसे exciting बनाता है। इसीलिए मेरी रिकॉर्डिंग पर कुछ भी आम नहीं रहता।
इसके बाद उसने दिबाकर की ही ‘लव सेक्स और धोखा’ का संगीत दिया जिस पर उसके पिता ने उसे एक घंटे तक समझाया कि यह नाम क्यों अश्लील है और क्यों इस फ़िल्म का नाम कुछ और होना चाहिए। नाम तो क्या बदला जाना था, वह तेज आवाज में फ़िल्म के टाइटल गीत को भी घर में रिकॉर्ड करती रहती थी, बजाती रहती थी। 
फ़िल्म रिलीज़ होने के कुछ वक्त बाद वह इंदौर में अपने पारिवारिक दोस्तों के साथ बैठी थी। वे सब लोग, जिनके सामने उसे बचपन से ही गीत गाना होता था। किसी ने कहा कि अपनी नई फ़िल्म का सबसे हिट गीत तो गाओ। वह बचती रही, लेकिन आख़िरकार गाना पड़ा। वह गाने में से ‘लव सेक्स और धोखा’ को ऐसे खा गई जैसे बचपन में अंगरेजी गानों के बोल खा जाया करती थी।
हिन्दी फ़िल्में किसी भी हिट चीज के फॉर्मूले की उंगली पकड़कर चलना चाहती हैं। इसीलिए ओए लकी के बाद उसे पंजाबी लोकसंगीत के बहुत ऑफर मिल रहे थे। वह लगातार मना कर रही थी। इसी बीच अनुराग कश्यप ने उसे मिलने के लिए बुलाया और अपनी फ़िल्म का संगीत देने का प्रस्ताव रखा जिसमें उन्हें बिहारी लोकसंगीत रखना था। ‘लोकसंगीत’ सुनकर वह एक मिनट हिचकिचाई लेकिन तभी उसे त्रिनिदाद टोबैगो का वह चटनी संगीत याद आया, जो उसे बहुत पसंद था और जिसे उन्नीसवीं सदी में वहाँ जाने वाले बिहारियों की अगली पीढ़ियों ने भोजपुरी बोलों पर हिन्दी फिल्मों के संगीत में वहाँ का कुछ मिलाकर बनाया था। उसने कहा कि वह एक ही शर्त पर संगीत बनाएगी कि उसे त्रिनिदाद जाने दिया जाए। अनुराग ने तुरंत हामी भर दी।
अब नया सफ़र शुरू हुआ, उसी तरह संगीत खोजने का। त्रिनिदाद जाकर उसे पता चला कि जो कुछ गायक उसे पसंद थे, उनमें से कई गुजर चुके थे और कई सूरीनाम या गयाना में जाकर बस गए थे। वह वहाँ के दूतावास में गई और वहाँ रह रहे भारतीयों से मिली, लेकिन वे चटनी संगीत को ‘खराब’ मानने वाले लोग थे। एक हफ्ते में ही वह उनके घेरे से भागी और फिर वैसे ही गलियों में संगीत ढूंढ़ा, जैसे पंजाब में ढूंढ़ा था।
वे बॉलीवुड को बहुत बड़ा मानने वाले लोग हैं। भारत से आए किसी भी आदमी को देवी या देवता की तरह देखने वाले, क्योंकि उनके पुरखे भी वहीं से आए थे। वे किसी बॉलीवुड संगीत में भोजपुरी बोल डालते हैं और कलिप्सो और ढोलक से रीमिक्स करते हैं। उनके यहाँ घर में स्टूडियो होता है और एलबम ऐसे बनाकर बेची जाती हैं जैसे घर की मिठाई की दुकान में मिठाइयां। उन सबके पास एक ऑक्टापैड होता है और उस पर हर रिदम होता है। वेदेश को ढूंढ़ने की मेरी बहुत इच्छा थी। मैंने उनका एक गाना सुन रखा था जिसमें वो ऐसे गा रहे थे जैसे उनसे जबरदस्ती गवाया जा रहा हो, जैसे गार्डन में लुंगी पहन के गा रहे हों। मैं गई तो वे गाना छोड़ चुके थे, मोटी तोंद हो गई थी, शादी हो गई थी।
वेदेश ने ही वरुण ग्रोवर का लिखा ‘हंटर’ गाया, जो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के सबसे लोकप्रिय गानों में से एक रहा। पूरी एलबम के गीत उसने बाद में बिहार में ही खोजे। चटनी म्यूजिक ने उन्हें बस एक रंग दिया।  

मैंने बहुत underestimate किया था बिहार को, कि तड़क भड़क वाला ही होगा, ढोलक पे ही होगा। लेकिन अच्छी कविता, sweet tunes, गाने का इमोशनल स्टाइल, सब है। और अलग अलग भाषा के distinction हैं। अंगिका, भज्जिका, मैथिली, सबकी अलग ही मधुरता है, यह जाना।
इस बार स्नेहा ने और भी ऐसी आवाजें चुनीं, जिन्हें मुख्यधारा का हिन्दी सिनेमा स्वीकार नहीं करता। भले ही वे ‘वुमनिया’ गाने वाली गृहिणी रेखा झा हों, ‘भूस’ गाने वाले मनीष टीपू और भूपेश सिंह हों, ‘हमनी के छोडि के’ गाने वाले दीपक कुमार हों या ‘सूना कर के घरवा’ गाने वाले सुजीत। ये वे आवाज़ें हैं, जिन्हें टीवी के बहुत से टैलेंट हंट दरवाज़े से ही लौटा देंगे। 

कान देके सुन लिया जाए तो सबको पसंद आएंगी वे आवाज़ें, लेकिन बीच की जो चीजें होती हैं, वहां वे पीछे रह जाते होंगे। श्रोता तो तैयार हैं।

स्नेहा और भी बहुत कुछ करना चाहती है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती जो पहले कर चुकी। उसे इलैक्ट्रॉनिक संगीत बहुत पसंद है और असल दुनिया की हदों तक जाने की तो वह कोशिश कर ही रही है लेकिन उसे इलैक्ट्रॉनिक संगीत की हदों तक भी जाना है। फ़िल्मों से आज़ाद होकर भी संगीत बनाना है। तकनीक इसी तरह उसका साथ देती रहे तो लाइव शो भी करने हैं और साउंड्स के साथ इसी तरह खेलते रहना है।
ऐसा लगता है कि इंस्ट्रूमेंट्स से ही सब कुछ न कह दिया जाए। जैसे ठाक्क्क करके एक गाने में डालना हो तो सामान्य ठक को भी रिप्लेस करता है और कुछ पागलपन क्रियेट करता है तुरंत..तो इसलिए साउंड भी ज़रूर आना चाहिए। और मैंने कई बार करके देखा तो लगा कि तकनीक तो अनुमति देने वाली है। तो फिर क्यों रुकें? यूनिवर्सली इतना बड़ा विचार लगा ये कि इसका मतलब ये है कि कोई भी eliminate नहीं होना चाहिए गाना बनाने में। पहले instruments की जो बैठक होती थी, उसी में अब बाजू में बाल्टी भी पड़ी हो, उसका भी inclusion होना चाहिए। अभी तक हमने भारत को आवाज़ों और अलग अलग instruments से ही सुना है, लेकिन साउंड्स भी उसमें ख़ास जगह रखते हैं। शहर की आवाजें अलग हैं, गाँव के साउंड अलग। खाँसने के, बीवी के पति को बुलाने के सब तरीके भी बदल जाते हैं। मुझे उन चीजों को संगीत में लाना है। 
और जब उसके हाथ में एक हॉर्न है, जिसे मेरे मोहल्ले में गन्ने बेचने वाला बजाया करता था, और वह नियम से रोज़ाना तीन बार अपने घर में खाना खाने के लिए आने वाली गली की गर्भवती बिल्ली को गोद में लेकर पुचकार रही है, वह कहती है कि एक दिन देखना, म्यूजिक से इस हाथ को भी ड्रॉ किया जा सकेगा।
यह वह कैसे करेगी, शायद वह भी नहीं जानती, लेकिन मुझे उसकी बात पर पूरा यक़ीन है। आपको है?


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