वाया एनएसडी

 
एनएसडी से हर साल कुछ स्‍नातक मुंबई का रुख करते हैं। उनमें से कुछ ने हिंदी सिनेमा के विकास में बड़ी भूमिकाएं निभाई हैं। एनएसडी और हिंदी फिल्‍मों के रिश्‍ते पर एक सरसरी नजर ....
वाया एनएसडी
-अजय ब्रह्मात्मज
‘पान सिंह तोमर’ में इरफान की एक्टिंग देख कर विस्मित हो रहे दर्शकों को शायद नहीं मालूम हो कि राजस्थान के जयपुर में शौकिया रंगमंच करने के बाद उन्होंने एनएसडी से तीन सालों की थिएटर में एक्टिंग की ट्रेनिंग ली है। मकसद उनका सिनेमा में आना था। वे आए। उन्हें फिल्में भी मिलीं। ‘मानसून वेडिंग’ से ‘पान सिंह तोमर’ की इस यात्रा में प्रशिक्षण से मिले अभिनय के ज्ञान को उन्होंने साधा और खुद को फिल्मों की एक्टिंग के अनुकूल बनाया। थिएटर एक्टिंग और फिल्म एक्टिंग में कैमरा सबसे बड़ा फर्क पैदा करता है। एनएसडी के छात्र और स्क्रिप्ट रायटर अतुल तिवारी बताते हैं, ‘थिएटर में अभिनेता आप को एक भुलावे में रखता है। फिल्म का कैमरा एक्टर के इतने करीब आ जाता है कि थिएट्रिकल अभिनय की जरूरत नहीं रह जाती। बाल गंधर्व जैसे थिएटर के सशक्त अभिनेता फिल्मों में सफल नहीं हो सके थे। यह साधारणीकरण न करें कि थिएटर के हर एक्टर फिल्म में सफल हो सकते हैं। एनएसडी से पिछले 52-53 सालों में सैकड़ों ग्रेजुएट निकले, लेकिन उनमें से दर्जन-दो दर्जन के ही नाम आप जानते हैं।’
    एनएसडी की स्थापना के समय ऐसी कोई मंशा या कल्पना नहीं की गई थी कि वहां से निकले ग्रेजुएट फिल्मों में एक्टिंग करेंगे। कोशिश थी कि नाटय शास्त्र के सभी रूपों और आयामों की छात्रों को जानकारी दी जाए ताकि वे थिएटर की परंपरा को जारी रखते हुए उसमें कुछ जोड़ सकें। प्रयोग कर सकें। पहले बैच से ही इसका राष्ट्रीय स्वरूप रखा गया। कोशिश रही कि पूरे देश से योग्य छात्रों को चुना जाए। पहले बैच में प्रकाश झा की ‘दामुल’ के अभिनेता प्यारे मोहन सहाय भी थे। चूंकि ग्रेजुएशन के बाद उनके लिए बिहार में थिएटर की संभावनाएं सीमित थीं, इसलिए उन्होंने डाक विभाग की नौकरी कर ली थी। साथ ही वे पटना में नाटकों के मंचन का छिटपुट प्रयास करते रहे। बाद में कुछ फिल्मों और टीवी सीरियल में भी दिखे। लेकिन फिल्मों में आने वाले वे पहले एनएसडी छात्र नहीं थे।   
एनएसडी हिंदी फिल्मों में आए पहले महत्वपूर्ण कलाकार ओम शिवपुरी हैं। विनीत कुमार के शब्दों में, ‘यह देश के लिए शर्म की बात है कि हम ओम शिवपुरी को हिंदी फिल्मों के चरित्र अभिनेता के रूप में जानते हैं। ओम शिवपुरी ने एनएसडी की पढ़ाई पूरी करने के बाद वहीं रेपटरी ज्वाइन किया था और अपनी पत्नी सुधा शिवपुरी के साथ नाटक करते थे। पृथ्वीराज कपूर के बार रंगमंच के समर्थ अभिनेताओं में उनका दूसरा नाम है। कम लोग जानते हैं कि मोहन राकेश ने उन्हें ध्यान में रख कर नाटक लिखे थे।’ 1964 से 1971 तक ओम शिवपुरी ने दिल लगा कर रंगमंच किया, लेकिन रंगमंच की स्थानीय राजनीति से उनका मन उचाट हो गया था। तभी मणि कौल ने 1971 में उन्हें मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ पर बन रही फिल्म मेंं अभिनय का मौका दिया। उस फिल्म को गुलजार ने देखा। उन्हें अपनी फिल्म ‘कोशिश’ के लिए एक समर्थ अभिनेता मिल गया। वे दिल्ली में ‘दिशांतर’ नामक नाट्य संस्था चलाते थे। ‘दिशांतर’ के नाटकों की एडवांस बुकिंग होती थी। उनकी पत्नी ने एक इंटरव्यू में बताया था, ‘मुंबई और फिल्मों में आने का कारण सिर्फ पैसा था। लोग यकीन नहीं करेंगे जितनी गालियां और डंडे पड़े ओम जी को  ़ ़ ़ सभी ने कहा कि नालायक है, धोखेबाज है, पीठ दिखाकर जा रहा है।’ थिएटर को पीठ दिखा कर मुंबई की फिल्मों से सीना टकराने का क्रम तभी से जारी है। इसके साथ यह भी सच है कि फैजल अलकाजी ने उनका खयाल नहीं रखा। वे रंगमंच से निराश होकर फिल्मों में आए थे। सुधा शिवपुरी के शब्दों में,‘ओम जी के आने के बाद ही एनएसडी से मुंबई और फिल्मों में आने का सिलसिला आरंभ हुआ। उन्होंने पगडंडी बनाई। अब तो एनएसडी पायदान हो गया है।’  उनके बाद एम के रैना ने ‘27 डाउन’ (1974)फिल्म की थी।
    ‘रेडियो’ के निर्देशक ईशान त्रिवेदी ने ग्रेजुएट होते ही पत्नी अलका श्रीवास्तव की सलाह पर मुंबई आने का फैसला कर लिया था। वे बताते है, ‘अलका का एक धारावाहिक ‘बसंती’ आ चुका था। हमारे पास कुछ पैसे थे। अलका ने ही सलाह दी कि बाद में जाने से अच्छा है अभी चलो।’ अलका और ईशान त्रिवेदी ने धारावाहिकों और फिल्मों में अभिनय किया। ईशान की मूल रुचि लेखन और निर्देशन में थी। वे धीरे से निर्देशन में शिफ्ट कर गए। ईशान और अलका की तरह सपने लेकर मुंबई आए सैकड़ों छात्रों में से चंद को ही उनकी जैसी सफलता मिल पाई। चूंकि साल-दो साल में एनएसडी से आया कोई छात्र फिल्मों में अपनी पहचान और प्रतिष्ठा हासिल कर लेता है, इसलिए असफलताओं ओर निराशा के अनेक किस्सों के बावजूद एनएसडी से फिल्मों की तरफ आने का प्रवाह चालू रहा।
    ‘थिएटर का एक आदर्शवाद होता था और होता है। हम फिल्मों को निकृष्ट कला समझते रहे हैं। मैं अपनी ही बात कहूं तो दिल्ली आने के पहले लखनऊ में मैंने अमिताभ बच्चन की एक भी फिल्म नहीं देखी थी। हमारे किरदार अलग थे। लेकिन आठवें दशक के आरंभ में दोनों तरफ से नासमझी खत्म हुई। फिल्मों में श्याम बेनेगल सरीखे निर्देशक आए और थिएटर से एक्टरों ने फिल्मों का रुख किया। नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी के फिल्मों में आने और पहचान बनाने के बाद फिल्मों का आकर्षण बढ़ा, लेकिन मैं बता दूं कि दोनों ने एफटीआईआई से फिल्म एक्टिंग की भी ट्रेनिंग ली थी,’‘मिशन कश्मीर’ और ‘द फॉरगोनेट हीरो नेता जी सुभाषचंद्र बोस’ जैसी फिल्मों के लेखक और अभिनेता अतुल तिवारी बताते हैं। एनएसडी से फिल्मों में आने की पूर्वपीठिका के तौर पर दिल्ली में दूरदर्शन के नाटकों की बड़ी भूमिका रही। अतुल तिवारी के अनुसार, ‘दिल्ली में दूरदर्शन का होना और मंडी हाउस के पास एनएसडी का होना सुखद संयोग है। एनएसडी के एक्टरों की कैमरे से दोस्ती तभी आरंभ हुई थी। कैमरे का डर निकला। कैमरे की समझ बढ़ी। उन दिनों वेद सिन्हा और शबा जैदी ने टीवी नाटकों के निर्देशन किए। उन्होंने पुल का काम किया। तभी मुंबई में टीवी प्रोडक्शन आरंभ हुए। उस दौर में पैरेलल सिनेमा भी एक्टिव था। साथ ही कमर्शियल फिल्मों में अवसर मिलने आरंभ हुए। ‘आधारशिला’ एक फिल्म बनी थी। जिसमें एनएसडी के कई एक्टर ने काम किया। वह उनकी शोकेसिंग थी।’
नसीरूद्दीन शाह,ओम पुरी,पंकज कपूर,राज बब्बर आदि की कामयाबी और पहचान ने हिंदी फिल्मों का आकर्षण एनएसडी के छात्रों में मजबूत किया। यहां से सफल एक्टर कभी क्लास लेने और मिलने एनएसडी जाते थे तो उनका उत्साहवद्र्धन करते थे। रघुवीर यादव,अन्नू कपूर,रंजीत कपूर समेत कई छात्रों पे नौवे दशक में हिंदी फिल्मों का रुख किया। उनमें से कुछ सफल रहे।
    एनएसडी के ग्रेजुएट में उम्मीद जगाने, अवसर देने और पहचान बनाने में पैरेलल सिनेमा के साथ टीवी का बड़ा योगदान रहा। खास कर श्याम बेनेगल और उनके साथी निर्देशकों ने प्रशिक्षित और दक्ष अभिनेताओं पर भरोसा किया। उस दौर में ‘भारत एक खोज’, ‘तमस’, ‘मिर्जा गालिब’, ‘चाणक्य’ आदि धारावाहिकों में दर्जनों छात्रों को महत्वपूर्ण काम मिला। उनमें से अनेक ने बाद में अभिनय, लेखन, कला निर्देशन और निर्देशन में अपना मुकाम हासिल किया। एनएसडी और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की परस्पर निर्भरता के संबंध में इरफान की सोच थोड़ी अलग है। वे कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि एनएसडी से आए मेरे वरिष्ठ कलाकारों ने निर्देशकों की बहुत मदद की। उन्होंने फिल्मों के विषय के अनुरूप साधारण किरदारों को भी प्रभावपूर्ण बना दिया। मैं नसीर भाई और ओम जी के निभाए किरदारों को याद करता हूं तो पाता हूं कि उनमें से अधिकांश हीरोइक नहीं थे। यह उनकी अभिनय क्षमता का परिणाम है कि रोजमर्रा जिंदगी के किरदार भी विश्वसनीय लगते हैं। अगर इन कलाकारों को आज के निर्देशक मिले होते तो वे अकल्पनीय ऊंचाइयों को छू पाते। मैं तो कहूंगा कि एनएसडी के एक्टर ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को नया आयाम दिया। वे एक्टिंग का क्राफ्ट लेकर आए। अगर एनएसडी के एक्टर नहीं होते तो पैरेलल सिनेमा नहीं होता। सच्ची।’
जाकिर हुसैन के मंतव्य में इरफान के विचारों का ही विस्तार है। वे एनएसडी के योगदान को इन शब्दों में रेखांकित करते हैं। ‘एक्टिंग में टेकनीक लेकर आए एनएसडी के छात्र। एनएसडी एक्टिंग के सारे गुर तीन सालों में सीखा देता है। वहां के छात्र पारंगत हो जाते हैं। कई लोगों को गलतफहमी है कि हमें एक्टिंग की केवल सैद्धांतिक जानकारी होती है। वास्तव में हम एक्टिंग के वैसे मैकेनिक हैं, जो पहले गाड़ी का पुर्जा-पुर्जा अलग कर देते हैं और फिर उसे जोड़ते हैं। हम यों ही कोई मुद्रा या आंगिक भाषा का इस्तेमाल नहीं करते।’ एनएसडी ने हिंदी फिल्मों के अभिनय को रियल टच दिया। मेलोड्रामा और लार्जर दैन लाइफ पोट्रेयल से उसे अलग किया। अभी हर फिल्म में एनएसडी के दो-चार कलाकार सहयोगी भूमिकाओं में स्तंभ की तरह नजर आते हैं। वैसे दर्शकों की निगाह चमकते कंगूरों (हीरो-हीरोइन)पर ही पड़ती है। वे स्टार बन जाते हैं। एनएसडी से आई अभिनेत्रियों में रोहिणी हटगंड़ी,नीना गुप्ता,दीपा शाही,सुरेखा सीकरी,अनिता कंवर आदि के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा कसकता।
    एनएसडी ने फिल्मों को कुछ निर्देशक और कला निर्देशक भी दिए हैं। सबसे पहले सई परांजपे का नाम ले सकते हैं। उन्होंने नौवें दशक में कामेडी और सटायर के बीच की विद्या विकसित की। बाद के निर्देशकों में सतीश कौशिक बड़े नाम हैं। सतीश कौशिक की फिल्में अधिक कामयाब नहीं रहीं, लेकिन उनकी दृश्य संरचना बंधे-बंधाए नियमों का पालन नहीं करती। तिग्मांशु धूलिया, करण राजदार, ईशान त्रिवेदी,अभिषेक शर्मा आदि अपने स्तर और पहचान के साथ सक्रिय हैं। निर्देशकों में एक जमात अभिनेताओं की रही। अनुपम खेर, नसीरुद्दीन शाह और पंकज कपूर ने भी फिल्म निर्देशित किए। कला निर्देशन और कॉस्ट्यूम डिजायनर में सलीम आरिफ का बड़ा नाम है। इन दिनों वे मुख्य रूप से गुलजार की कृतियों का मंचन कर रहे हैं। डाली आहलूवालिया सभी बड़े बैनरों के कॉस्ट्यूम डिजायन करती हैं।
    एनएसडी के निदेशक रह चुके रामगोपाल बजाज मानते हैं कि एनएसडी ग्रेजुएट का फिल्मों में आना स्वाभाविक है। वे कहते हैं, ‘प्रशिक्षण और ज्ञान से संपन्न होने के बावजूद थिएटर से जुड़े रहने की अपनी चुनौतियां हैं। देश में रंगमंच की स्थिति से सभी वाकिफ हैं। थिएटर में सरवाइव करने की गुंजाइश कम है। कई लोग सवाल करते हैं कि थिएटर की ट्रेनिंग लेकर लोग फिल्मों में क्यों आते हैं? उनसे मेरा सवाल है कि अगर भूगोल का प्राध्यापक फिल्मों में आ सकता है तो थिएटर आर्टिस्ट क्यों नहीं आ सकता।’ सेवानिवृत्त होने के बाद रामगोपाल बजाज इन दिनों टीवी धारावाहिकों में नियमित काम कर रहे हैं। रामगोपाल बजाज नए सत्र के छात्रों की प्रतिभा से संतुष्ट नहीं हैं। वे बताते हैं, ‘कुछ छात्र एनएसडी की पढ़ाई को फिल्मों में आने के सर्टिफिकेट के तौर पर लेते हैं। वे दिल्ली में तीन साल पढ़ते या सीखते नहीं हैं। तीन साल का समय काटकर वे यहां आ जाते हैं। चूंकि वे प्रतिभाशाली नहीं हैं। ढंग से प्रशिक्षित नहीं हैं तो वे सफल भी नहीं होते।’ रामगोपाल बजाज थिएटर और सिनेमा के रिश्ते के बड़े फलक की बात करते हैं। उनके शब्दों में, ‘अगर एनएसडी नहीं होता तो भी थिएटर के लोग फिल्मों में आते। एनएसडी की स्थापना से पहले भी थिएटर एक्टर आए हैं और एनएसडी के बाहर से आए थिएटर एक्टर भी सफल रहे हैं। थिएटर पर फिल्मों की निर्भरता बनी रहेगी।’ वास्तव में थिएटर और सिनेमा का परस्पर लाभ इसी प्रवाह में है। एनएसडी और थिएटर की दूसर परंपराओं से प्रतिभाओं के आने का क्रम जारी है।
बॉक्स सामग्री
१.एनएसडी
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा थिएटर प्रशिक्षण की अनोखी और अकेली संस्था है। यह दिल्ली में है। संगीत नाटक अकादेमी के अधीन 1959 में इसकी शुरुआत हुई। 1975 में यह स्वायत्त संस्थान बन गया। यहां थिएटर के सभी पहलुओं की सैद्धांतिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है। एनएसडी में 1964 में रेपटरी कंपनी खोली गई। यहां प्रशिक्षित छात्र नाटकों का प्रोफेशनल मंचन करते हैं। इसके पहले बैच में ओम शिवपुरी और सुधा शिवपुरी भी थे।

२.थिएटर और सिनेमा
    सिनेमा के विकास के आरंभिक वर्षो में जब इसका स्वरूप सुनिश्चित हो रहा था तो फिल्मकारों ने उस समय मौजूद मनोरंजन के विविध कलारूपों की विशेषताओं का अपनाया। पारसी थिएटर के सीधे प्रभाव की बात सभी स्वीकार करते हैं। कैमरे के उपयोग के अलावा फिल्म में मौजूद सभी कलारूपों के बीज थिएटर में देखे जा सकते हैं। सिनेमा के रिप्रोडक्शन की तकनीकी सहूलियत ने इसे सस्ते मनोरंजन माध्यम के रूप में विकसित किया। थिएटर में हर शो में कलाकारों को मंच पर उतरना और दर्शकों के सामने परफॉर्म करना पड़ता है। सिनेमा ने यह सुविधा दी कि शूटिंग के दरम्यान परफॉर्म करने के बाद कलाकारों को दोबारा परफॉर्म नहीं करना पड़ता। फिल्म तैयार होने के बाद उसके प्रिंट निकाल लिए जाते थे। डिजिटल युग में रिप्रोडक्शन और एक्जीबिशन की प्रक्रिया और आसान हो गई है।
    बहरहाल, सिनेमा में थिएटर के अनुभव लेकर कलाकारों का आना जारी है। पारसी थिएटर, मुंबई के स्थानीय गुजराती और मराठी थिएटर, इप्टा,दिल्ली थिएटर और फिर एनएसडी, भारतेंदु नाटय केंद्र आदि की स्थापना के बाद प्रशिक्षित अभिनेताओं में से कुछ फिल्मों का रुख करते रहे हैं। पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी आदि से लेकर अभी नवाजुद्दीन सिद्दिकी और भानु उदय तक यह सिलसिला जारी है। हमेशा थिएटर से आए अभिनेताओं ने फिल्मों को एक्टिंग के लिहाज से समृद्ध और विस्तृत किया है।


फिल्मों में आए एनएसडी के छात्र
प्यारे मोहन सहाय, वीएम शाह, बीवी कारंथ, ज्योति व्यास , ओम शिवपुरी, सई परांजपे, सुधा शिवपुरी, मोहन महर्षि, रामगोपाल बजाज, अमान अल्लाना, सविता बजाज, सुरेखा सीकरी, उत्तरा बावकर,नईमा खान, एम के रैना, मनोहर सिंह, नादिरा बब्बर, वेद सिन्हा,राजेन्द्र गुप्ता, रीता पुरी, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, आर जसपाल, राजेश विवेक, रोहिणी हटंगड़ी, सबा जैदी, अजीत वच्छानी, राज बब्बर, सुधीर कुलकर्णी, अनिल चौधरी, केके रैना, पंकज कपूर, रंजीत कपूर, रॉबिन दास, विजय कश्यप, दीपक काजिर, राजा बुंदेला, रघुवीर यादव,अनंग देसाई, अनुपम खेर, अनिता कंवर, गोविंद नामदेव, हेमंत मिश्रा, ज्योति स्वरूप, कविता चौधरी, करण राजदान, सतीश कौशिक, युसूफ मेहता, अजय कार्तिक , डॉली आहलुवालिया , ज्ञान शिवपुरी, गोपी देसाई, आलोक नाथ, अलोपी वर्मा, अन्नू कपूर, ललित तिवारी, नीना गुप्ता, नवतेज , रवि खेमू, दीपा शाही, प्रांजल साइकिया, रत्ना पाठक, रवि झांकल, सुनील सिन्हा, अशोक बांठिया, अशोक मिश्रा, डायना, हिमानी शिवपुरी, वीरेन्द्र सक्सेना,अतुल तिवारी, सुष्मिता मुखर्जी, विपिन शर्मा, श्रीवल्लभ व्यास, सविता प्रभुणे, सलीम आरिफ, सीमा विश्वास, रेणुका इसरानी,रीता उपाध्याय, अलका श्रीवास्तव, ईशान त्रिवेदी, पियूष मिश्रा, विभा छिब्बर, हरगुरजीत, इरफान, मीता वशिष्ठ, अशोक लोखंडे, सुतपा सिकदर,तिग्मांशु धूलिया, नवनीत निशान, विनीत कुमार, संजय मिश्रा, रोहिताश्व गौर, निर्मल पांडे,आशीष विद्यार्थी, मुकुल नाग, परितोष सैंड, अनूप सोनी, जाकिर हुसैन, कुमुद मिश्रा, मुकेश तिवारी, संजय झा, यशपाल शर्मा, अतुल कुलकर्णी, सुब्रतो दत्ता, नवाजुद्दीन सिद्दिकी, दिव्येन्दु भट्टाचार्य, जया सील, राजपाल यादव, संजय कुमार, तनिष्ठा चटर्जी,आशिक हुसैन,अभिषेक शर्मा आदि। 
यह फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं होती।





Comments

अब तो एक स्थायी संबंध स्थापित हो गया है दोनों के बीच..
Ramakant Singh said…
kya aapane mere blog list ka durupayag kiya .mrer comment ko delete kiya .uttar den ,anyatha aapaka blog, reading list se alag karane men mujhe koi parhej nahin hoga .wo log mere jiwan ke list men nahi aate jo kewal apani hi baaten kahate ya sunate hai ,chahe wo kitane bhi mahan kyon na hon.
Rahul Singh said…
मेरी ब्‍लाग सूची पर आपकी यह पूरी पोस्‍ट आई, विवश हो कर वहां से चवन्‍नी चैप को हटाना पड़ा है.
आपने तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री और एन एस डी का पूरा इतिहास बता दिया

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