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Showing posts from July, 2011

फिल्‍म समीक्षा : गांधी टू हिटलर

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हारे हिटलर, जीते गांधी -अजय ब्रह्मात्‍मज अलग किस्म और विधा की फिल्म है गांधी टू हिटलर। ऐसी फिल्में हिंदी में तो नहीं बनी हैं। दो विचारों और व्यक्तित्वों की समानांतर कहानी गांधी टू हिटलर लेखक-निर्देशक की नई कोशिश है। वे बधाई के पात्र हैं। उन्होंने हिटलर और गांधी के विचारों को आमने-सामने रखकर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में दिखाने और बताने की कोशिश है कि गांधी श्रेष्ठ हैं। उनका विचार ही विजयी हुआ है। अपने अतिम दिनों में हिटलर निहायत अकेले हो गए थे। उनके साथी एक-एक कर उन्हें छोड़ रहे थे और द्वितीय विश्व युद्ध में हर मोर्चे पर जर्मनी की पराजय हो रही थी। इसके बावजूद अपनी जिद्द में एकाकी हो रहे हिटलर ने नाजी विचारों नहीं छोड़ा। इस दौर में गांधी ने उन्हें दो पत्र लिखे। इन पत्रों में उन्होंने हिटलर के विचारों की समीक्षा के साथ यह सुझाव भी दिया कि वे युद्ध और हिंसा का मार्ग छोड़ें। इस फिल्म में गांधी के सिर्फ रेफरेंस आते हैं, जबकि हिटलर के जीवन को विस्तार से चित्रित किया गया है। लेखक-निर्देशक ने उपलब्ध फुटेज और तथ्यों का फिल्म में सुंदर उपयोग किया है। इस फिल्म की खासियत हिटलर की भूमिका में रघुवीर

फिल्‍म समीक्षा : बबल गम

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छोटे शहर की किशोर कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज कहानी थोड़ी पुरानी है। उस दौर की है, जब इंटरनेट और मोबाइल नहीं आया था। छोटे शहरों केकिशोर-किशोरियों के बीच तब भी दोस्ती होती थी। उनके बीच मासूम प्रेम पलता था और लड़ाई-झगड़े भी होते थे। संजीवन लाल ने उस दौर को चंद किशोरों के माध्यम से चित्रित किया है। बबल गम किशोरों के जीवन में झांकने के साथ पैरेंटिंग के पहलू को भी टच करती है। वेदांत और रतन के बीच ईष्र्या और प्रतियोगिता है कि दोनों में से कौन जेनी को पहले अपनी दोस्त बना लेता है। वेदांत की कोशिशों में मूक और वधिर बड़े भाई विदुर के आने से खलल पड़ती है। मां-बाप चाहते हैं कि वेदांत छुट्टी पर आए अपने भाई विदुर का खयाल रखे। मां-बाप विदुर का अतिरिक्त खयाल रखने की प्रक्रिया में अनजाने ही वेदांत को नाराज कर देते हैं। उसे गलतफहमी होती है कि पूरे परिवार के केंद्र में विदुर है। वह विरोध और प्रतिक्रिया में गलत राह पकड़ लेता है। उड़ान की तरह जमशेदपुर की पृष्ठभूमि में बनी बबल गम विषयगत विस्तार के कारण धारदार असर नहीं छोड़ पाती। एक साथ कई पहलुओं को लेकर चलने के कारण फिल्म का प्रभाव बिखर गया है। इसी कारण ईमानदार

फ‍िल्‍म समीक्षा : खाप

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ऑनर किलिंग का मुद्दा -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले कुछ समय से खबरों में आए खाप और ऑनर किलिंग के विषय पर अजय सिन्हा की खाप जरूरी मुद्दे का छूती है। उत्तर भारत के कुछ इलाकों में प्रचलित खाप व्यवस्था में जारी पुराने रीति-रिवाज को निशाना बनाती पर फिल्म बखूबी स्थापित करती है कि ऑनर किलिंग के नाम पर चल रहा अत्याचार एक जुर्म है। खाप की समस्या है कि कथ्य की आरंभिक सघनता बाद में बरकरार नहीं रहती। गांव से शहर आने के बाद कहानी की तीव्रता कम होती है। और मुद्दा हल्का हो जाता है। अजय सिन्हा ने सिर्फ सगोत्र विवाह को ऑनर किंलिंग की वजह बताया है, जबकि ऑनर किलिंग ज्यादा बड़ी समस्या है। इसमें अमीर-गरीब, जातियों और धर्मो की भिन्नता आदि भी शामिल हैं। खाप पंचायतों के पक्ष में कही गई बातों से ऐसा लगता है कि निर्देशक संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। फिल्म का कथ्य यहीं कमजोर पड़ जाता है। सामाजिक विसंगति पर आरंभ हुई फिल्म साधारण इमोशनल ड्रामे में बदल जाती है। खाप मुख्य रूप से सहयोगी कलाकारों के दम पर टिकी है। ओम पुरी, गोविंद नामदेव और मनोज पाहवा ने अपने किरदारों को अच्छी तरह निभाया है। खास कर मनोज पाहवा

New Voices Fellowship for Screenwriters

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Voices Fellowship for Screenwriters Program offers support for Indian film writers Email Print Share enlarge image The New Voices Fellowship for Screenwriters will award fellowships to six Indian screenwriters. (Jeezny/ Flickr ) Download the application form Download Frequently Asked Questions HOW TO APPLY ADVISORY COUNCIL & MENTORS FELLOWS | SCHEDULE RULES, REGULATIONS & DISCLAIMER FAQs | CONTACT Asia Society India Centre announces the launch of the New Voices Fellowship for Screenwriters (NVFS), a program to identify and support a group of six talented independent screenwriters to develop their feature film scripts by working in a dynamic and innovative environment with guidance from eminent filmmakers and screenwriters. Our premise is that screenwriters are seeking to develop powerful, nuanced and well-crafted scripts while exploring new approaches to the art of writing for the cinema. We invite writers from across the country to submit an original story for consid

क्यूँ न "देसवा" को हिंदी फिल्मो की श्रेणी में समझा जाये ?

मुझे यह समीक्षा रविराज पटेल ने भेजी है। वे पटना में रहते हैं और सिनेमा के फ्रंट पर सक्रिय हैं। -रविराज पटेल देसवा की पटकथा उस बिहार का दर्शन करवाती है ,जो पिछले दशक में बिहार का चेहरा कुरूप और अपराधिक छवि का परिचायक बन चूका था .शैक्षणिक ,आर्थिक ,सामाजिक एवं मानसिक रूप से विकलांग बिहार हमारी पहचान हो चुकी थी ,और ज़िम्मेदार जन प्रतिनिधिओं के रौब तले रहना हम जनता की मज़बूरी . मूल रूप से बिहार के बक्सर जिले के युवा निर्देशक नितिन चंद्रा बक्सर जिले में ही वर्ष २००३-२००४ के मध्य घटी वास्तविक घटनाओं को अपनी पहली फिल्म का आधार बनाया है ,जो संपूर्ण बिहार का धोतक प्रतिबिंबित होता है . चंपारण टॉकीज के बैनर तले निर्मित देसवा के सितारे हैं - क्रांति प्रकाश झा ,आशीष विद्यार्थी ,नीतू चंद्रा ,पंकज झा ,दीपक सिंह ,अजय कुमार ,आरती पूरी ,एन .एन पाण्डेय ,अभिषेक शर्मा ,नवनीत शर्मा एवं डोल्फिन दुबे जबकि सभी भोजपुरी फिल्मों के तरह देसवा में भी आईटम सोंग का तड़का देने से नही चूका गया है , जिसका मुख्य आकर्षण यह है की फिल्म निर्मात्री एवं बिहार बाला मशहूर अभिनेत्री नीतू चंद्रा स्वय यह न. पेश करती नज़र आती है