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Showing posts from May, 2011

दबंग के पक्ष में - विनोद अनुपम

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नेशनल फिल्‍म अवार्ड मिलने के बाद से निरंतर 'दबंग' की चर्चा चल रही है। ज्‍यादातर लोग 'दंबग' को पुरस्‍कार मिलने से दंग हैं। विनोद अनुपम ने 'दबंग' के बारे में यह लेख फिल्‍म की रिलीज के समय ही लिखा था। उसकी प्रासंगिकता देखते हुए हम उसे यहां पोस्‍ट कर रहे हैं... भरा पूरा गाँव, ढ़ेर सारे बेतरतीब लोग, जिसमें कुछ को हम पहचान पाते हैं कुछ को नहीं। इनमें पाण्डेय भी हैं, सिंह भी, कुम्हार भी। सबों की अलग-अलग बनावट, अलग-अलग वेषभूषा, अलग-अलग स्वभाव। हद दर्जे का लालची भी, पियक्कड़ भी, मेहनती भी, आलसी भी, हिम्मती भी और डरपोक भी। यही विविध्ता पहचान है किसी हिन्दी समाज की, जो अपनी पूर्णता में प्रतिबिम्बित होता दिखता है 'दबंग' में। यही है जो 'दबंग' को एक विशिष्टता देती है, जिसमें हम अपने आस-पास को दख सकते हैं। ठीक 'शोले' की तरह, जहाँ नायक भले ही ठाकुर होता है, लेकिन गाँव को गाँव बनाने में 'मौसी' की भी उतनी ही भूमिका होती है जितना मौलबी साहब की। 'अनजाना अनजानी' और 'वी आर पफैमिली' के दौर में जब याद करने की कोशिश करते हैं कि पिछली बाद

फिल्‍म समीक्षा : कुछ लव जैसा

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उपेक्षित पत्‍‌नी का एडवेंचर -अजय ब्रह्मात्‍मज बरनाली राय अपनी पहली कोशिश कुछ लव जैसा में उम्मीद नहीं जग पातीं। विषय और संयोग के स्तर पर बिल्कुल नयी कथाभूमि चुनने के बावजूद उनकी प्रस्तुति में आत्मविश्वास नहीं है। आत्मविश्वास की इस कमी से स्क्रिप्ट, परफारमेंस और बाकी चीजों में बिखराव नजर आता है। फिल्म अंत तक संभल नहीं पाती। उच्च मध्यवर्गीय परिवार की उपेक्षित पत्‍‌नी मधु और भगोड़ा अपराधी राघव संयोग से मिलते हैं। पति अपनी व्यस्तता और लापरवाही में पत्‍‌नी का जन्मदिन भूल चुका है। इस तकलीफ से उबरने के लिए पत्‍‌नी मधु एडवेंचर पर निकलती है और अपराधी राघव से टकराती है। राघव के साथ वह पूरा दिन बिताती है। अपनी ऊब से निकलने के लिए वह राघव के साथ हो जाती है। दोनों इस एडवेंचरस संसर्ग में एक-दूसरे के करीब आते है। कहीं न कहीं वे एक-दूसरे को समझते हैं और उनके बीच कुछ पनपता है, जो लव जैसा है। बरनाली राय शुक्ला की दिक्कत इसी लव जैसी फीलिंग से बढ़ गई हैं। अगर उसे लव या लस्ट के रूप में दिखा दिया जाता तो भी फिल्म इंटरेस्टिंग हो जाती है। फिल्म मध्यवर्गीय नैतिकता की हद से नहीं निकल पाती। थोड़ी देर के बाद मधु क

सोनाक्षी सिन्‍हा : डिफरेंट मूड प्रोवोग

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स्‍वप्निल तिवारी की नजर में देसवा

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स्‍वप्निल तिवारी ने इस लेख का लिंक अमितेश कुमार के लेख की टिप्‍पणी में छोड़ा था। उन्‍होंने 'देसवा' के बारे में अपना नजरिया रखा है। जरूरी नहीं कि हम उनसे सहमत हों,लेकिन ब्‍लॉग की लोकतांत्रिक दुनिया में नजरियों की भिन्‍नता बनी रहे। यही इसकी ताकत है...इसी उद्देश्‍य से हम उस लिंक को यहां प्रकाशित कर रहे हैं....मूल लेख यहां पढ़ सकते हैं... http://vipakshkasvar.blogspot.com/2011/05/blog-post_27.html देसवा देसवा क्या है? कैसी है ? इसकी समीक्षा तो आने वाले समय में दर्शक करेंगे, लेकिन चूँकि मै एक ऐसी फिल्म का गवाह बना हूँ जिससे एक बदलाव आने की उम्मीद की जा रही थी इसीलिए इस पर अपना नजरिया रखना ज़रूरी हो गया है. और यह लेख इस फिल्म के प्रति मेरा अपना नजरिया है. भोजपुरी मेरी मातृ भाषा है इस वजह से इससे एक नैसर्गिक स्नेह है मुझे. लेकिन जितना ही इस भाषा से प्रेम है मुझे उतना ही इस भाषा में बनने वाली फिल्मों से दूरी बनाये रखता हूँ, मुझे डर लगता है कि ये फ़िल्में अपनी विषयवस्तु की वजह से इस भाषा से मेरा मोहभंग कर सकती हैं. 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' को छोड़ कर कोई भी दूसरी फिल्म मुझ

जवाब नहीं है पुरस्कारों की शेयरिंग

-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले गुरुवार को जेपी दत्ता ने 58वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा की। विजेताओं की सूची देखने पर दो तथ्य स्पष्ट नजर आए। पहला, अनेक श्रेणियों में एक से अधिक विजेताओं को रखा गया था और दूसरा, हिंदी की तीन फिल्मों को कुल जमा छह पुरस्कार मिले। आइए इन पर विस्तार से बातें करते हैं। पिछले सालों में कई दफा विभिन्न श्रेणियों में से एक से अधिक विजेताओं के नामों की घोषणा होती रही है। ऐसी स्थिति में विजेताओं को पुरस्कार के साथ पुरस्कार राशि भी शेयर करनी पड़ती है। लंबे समय से बहस चल रही है कि देश की भाषाई विविधता को ध्यान में रखें, तो राष्ट्रीय पुरस्कारों में बेहतर फिल्मों और बेहतरीन प्रतिभाओं के साथ न्याय नहीं हो पाता। कई प्रतिभाएं छूट जाती हैं या उन्हें छोड़ना पड़ता है, लेकिन पुरस्कारों की शेयरिंग एक प्रकार से आधे पुरस्कार का अहसास देती है। ऐसा लगता है कि विजेता अपने क्षेत्र की श्रेष्ठतम प्रतिभा नहीं है। खासकर पुरस्कार राशि शेयर करने पर यह अहसास और तीव्र होता है। जेपी दत्ता की अध्यक्षता में गठित निर्णायक मंडल ने पिछले अनुभवों से सबक लेते हुए इस बार सूचना एवं प्रसारण मंत्राल

मजरूह सुल्तानपुरी : युनुस खान

24 मई को मशहूर शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी की पुण्यतिथि थी. उनके फ़िल्मी गीतों को लेकर प्रस्तुत है एक दिलचस्प लेख, लिखा है संगीतविद युनुस खान ने. साथ में उनके लिखे ५० सर्वश्रेष्ठ गीतों की सूची भी दी गई है. आमतौर पर लोगों को लगता है कि एक रेडियो-प्रेज़ेन्‍टर के बड़े मज़े होते हैं। दिन भर बस मज़े-से गाने सुनते रहो, सुनाते रहो। लेकिन ये सच नहीं है। अपनी पसंद के गाने सुनने और श्रोताओं की पसंद के गाने सुनवाने में फ़र्क़ होता है। इस हफ्ते में एक दिन मुझे मजरूह सुल्‍तानपुरी के गाने सुनवाने का मौक़ा मिला—और उस दिन वाक़ई मज़ा आ गया। मजरूह मेरे पसंदीदा गीतकार हैं और इसकी कई वजहें हैं। मजरूह ने फिल्‍म-संगीत को ‘शायरी’ या कहें कि ‘साहित्‍य’ की ऊंचाईयों तक पहुंचाने में महत्‍वपूर्ण योगदान दिया। उनके कई ऐसे गाने हैं जिन्‍हें आप बहुत ही ऊंचे दर्जे की शायरी के लिए याद कर सकते हैं। फिल्‍म ‘तीन देवियां’ (संगीत एस.डी.बर्मन, 1965) के एक बेहद नाज़ुक गीत में वो लिखते हैं---‘मेरे दिल में कौन है तू कि हुआ जहां अंधेरा, वहीं सौ दिए जलाए, तेरे रूख़ की चांदनी ने’। या फिर ‘ऊंचे लोग’ (संगीतकार चित्रगुप्‍त, 1

मैं देसवा के साथ क्यों नहीं हूं...-अमितेश कुमार

अमितेश कुमार भोजपुरी फिल्‍मों के सुधी और सचेत दर्शक हैं। उनकी चिंताओं का कुछ लोगों ने मखौल उड़ाया और उन्‍हें हतोत्‍साहित किया। मैंने उनसे आग्रह किया था कि वे अपना पक्ष रखें। यह भोजपुरी समाज,फिल्‍म और प्रकारांतर से 'देसवा' के हित में है। इसी उद्देश्‍य से इसे मैं उनके ब्‍लॉग से लेकर यहां प्रकाशित कर रहा हूं...आपकी प्रतिक्रियाओं का स्‍वागत है।अमितेश के ब्‍लॉग पर लेख का पता... http://pratipakshi.blogspot.com/2011/05/blog-post_25.html यह देसवा की समीक्षा नहीं है, और वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज की प्रेरणा से लिखी गयी है, इसीलिये उन्हीं को समर्पित. इसमें आवेग और भावना की ध्वनि मिले तो इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूं. ये मेरे लिये साल के कुछ उन दिनों में था जिसमें मैं अपने नजदीक होना चाहता हूं, ये एक अजीब प्रवृति है मेरे लिये. उस दिन मेरा जन्मदिन था…गर्मी से लोगो को निज़ात देने के लिये आंधी और बारिश ने मौसम को खुशनुमा बना दिया था. दिन पूरी तरह अकेले बिता देने के बाद शाम को हम चार लोग देसवा देखने निकले. हमारे जरूरी कामों की लिस्ट में ये काम कई दिनों से शामिल था. देसवा के बारे मे

बोलती तस्‍वीर : यश चोपड़ा और एआर रहमान

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इस तस्‍वीर में ऑस्‍कर विजेता एआर रहमान के साथ सालों से फिल्‍म नहीं बना रहे यश चोपड़ा खड़े हैं। रहमान की बॉडी लैंग्‍वेज बहुत कुछ कह रही है। यश चोपड़ा विनम्र से अधिक विवश दिख रहे हैं।क्‍या आप भी कुछ कहना चाहेंगे ?

पहली झलक : बुड्ढा होगा तेरा बाप

http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=Z7g_0naxTjI#at=14

ऑन स्क्रीन,ऑफ स्क्रीन : बिंदास और पारदर्शी बिपाशा बसु

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- अजय ब्रह्मात्मज संबंधों और अपने स्टेटस में पारदर्शिता के लिए मशहूर बिपाशा बसु आजकल नो कमेंट या चुप्पी के मूड में हैं। वजह पूछने पर कहती हैं, पूछे गए सारे सवालों का एक ही सार होता है कि क्या जॉन और मेरे बीच अनबन हो गई है? शुरू से ही अपने संबंधों को लेकर मैं स्पष्ट रही हूं। अब उसी स्पष्टता से दिए गए जवाब लोगों को स्वीकार नहीं हैं। उन्हें तो वही जवाब चाहिए, जो वे सोच रहे हैं या कयास लगा रहे हैं। मुझे यकीन है कि फिल्म रिलीज होगी और तमाम अफवाहें ठंडी हो जाएंगी। बेहतर है कि मैं अपने काम पर ही ध्यान दूं। अफवाहों की परवाह नहीं दरअसल, पिछले महीने फिल्म दम मारो दम के अभिनेता राणा दगुबट्टी के साथ उनकी अंतरंगता की चर्चा रही। मुमकिन है, किसी पीआर एक्जीक्यूटिव ने फिल्म के दौरान बने नए रिश्ते के पुराने फॉम्र्युले का इस्तेमाल किया हो और वह फिर से कारगर हो गया हो। हिंदी फिल्मों में रिलीज के समय प्रेम और अंतरंगता की अफवाहें फैलाई जाती हैं। सच्चाई पूछने पर बिपाशा स्पष्ट करती हैं, युवा अभिनेताओं के साथ काम करते समय मेरी कोशिश रहती है कि वे झिझकें नहीं। इसके लिए जरूरी है कि उनसे समान स्तर पर दोस्ती की जा

दिग्ग्ज फिल्मकार है खामोश

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछली सदी के आखिरी दशक तक सक्रिय फिल्मकार अचानक निष्क्रिय और खामोश दिखाई पड़ रहे हैं। सच कहें तो उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि वे किस प्रकार की फिल्में बनाएं? उनका सिनेमा पुराना पड़ चुका है और नए सिनेमा को वे समझ नहीं पा रहे हैं। परिणाम यह हुआ किअसमंजस की वजह से उनके प्रोडक्शन हाउस में कोई हलचल नहीं है। सन् 2001 के बाद हिंदी सिनेमा बिल्कुल नए तरीके से विकसित हो रहा है। कहा जा सकता है कि सिनेमा बदल रहा है। हर पांच-दस साल पर जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह सिनेमा में भी बदलाव आता है। इस बदलाव के साथ आगे बढ़े फिल्मकार ही सरवाइव कर पाते हैं, क्योंकि दर्शकों की रुचि बदलने से नए मिजाज की फिल्में ही बॉक्स ऑफिस पर बिजनेस कर पाती हैं। हाल-फिलहाल की कामयाब फिल्मों पर नजर डालें तो उनमें से कोई भी पुराने निर्देशकों की फिल्म नहीं है। यश चोपड़ा, सुभाष घई, जेपी दत्ता जैसे दर्जनों दिग्गज अब सिर्फ समारोहों की शोभा बढ़ाते मिलते हैं। इनमें से कुछ ने अपनी कंपनियों की बागडोर युवा वारिसों के हाथ में दे दी है या फिर गैरफिल्मी परिवारों से आए युवकों ने कमान संभाल ली है। अब वे तय कर रहे हैं कि