प्रचार के नाम पर धोखाधड़ी

-अजय ब्रह्मात्मज


हिंदी फिल्मों के धुआंधार और आक्रामक प्रचार में इन दिनों निर्माता-निर्देशक और स्टार बहुत रुचि ले रहे हैं। नया रिवाज चल पड़ा है। रिलीज के पहले फिल्म के स्टारों के साथ इवेंट और गतिविधियां आयोजित की जाती हैं। ऐसे हर मौके पर फिल्म के स्टार और डायरेक्टर मौजूद रहते हैं। कोशिश रहती है कि उनकी इन गतिविधियों का टीवी पर भरपूर कवरेज हो। पत्र-पत्रिकाओं में तस्वीरें छप जाएं। फिल्म के प्रति दर्शकों की जिज्ञासा बढ़े और वे पहले वीकएंड में सिनेमाघरों का रुख करें। इन दिनों फिल्मों का बिजनेस पहले वीकएंड की कमाई से ही तय हो जाता है। ऐसा होने से पता चल जाता है कि फिल्म मुनाफे में रहेगी या घाटे का सौदा हो गई।

आपने कभी आक्रामक प्रचार अभियानों पर गौर किया है। इन अभियानों में स्टार फिल्म के बारे में बताने के अलावा सब कुछ करते हैं। फिल्म के गाने दिखाते हैं। बताते हैं कि शूटिंग में मजा आया। क्या-क्या मस्ती हुई? कहां-कहां शूट किया? शूटिंग में कौन लोग शामिल हुए और क्या नया कर दिया है? कभी तकनीक, कभी 3डी, कभी वीएफएक्स तो कभी ऐक्शन का कमाल..। सारी बातें इधर-उधर की होती हैं, हवा-हवाई..। पूरे प्रचार के बावजूद समझ में नहीं आता कि फिल्म में क्या है? यही कारण है कि दर्शकों को धोखा महसूस होता है, फिल्म जरा भी नापसंद आई तो दर्शक उखड़ जाते हैं। बड़ी से बड़ी फिल्म का कलेक्शन बिगड़ जाता है। ताजा उदाहरण रा.वन का है। फिल्म के जोरदार प्रचार और शाहरुख खान के होने के बावजूद फिल्म का बिजनेस अपेक्षा से कम रहा। दर्शकों ने वीएफएक्स, 3डी और नवीनता की तारीफ की, लेकिन कंटेंट, कहानी और संवाद की तो प्रशंसकों ने घनघोर आलोचना की। शाहरुख खान के मुरीद भी नाखुश दिखे। रा. वन ने निश्चित ही औसत से बेहतर व्यापार किया, लेकिन कलेक्शन उस अपेक्षित ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाया।

दर्शकों को महसूस होने लगा है कि फिल्मों का प्रचार किसी उपभोक्ता सामग्री के प्रचार की तरह ही हो गया है। साबुन के प्रचार में जैसे खुशबू की बात की जाती है, वैसे ही फिल्मों के प्रचार में दिखाने और पैकेजिंग पर जोर रहता है। ताज्जुब यह है कि आधारहीन प्रचार से दर्शक भी प्रभावित होते हैं। कई बार वे भी धोखे में आ जाते हैं। तीनों खानों ने फिल्म प्रचार को एक अलग स्तर पर पहुंचा दिया है। वे मानदंड बन गए हैं। हर नए स्टार पर दबाव रहता है कि वह भी उनकी तरह खुद को प्रचार में झोंक दे। अभी रॉकस्टार के प्रचार में शहर-शहर भटकते रणबीर कपूर, इम्तियाज अली और नरगिस फाकरी को हम देख रहे हैं। बेचारे कभी बस में घूम रहे हैं, कहीं रिक्शा चला रहे हैं और कभी अपनी फिल्मों के गानों का कंसर्ट कर रहे हैं। क्या इन गतिविधियों से उनके दर्शक बढ़ते हैं? अभी तक ऐसा कोई मापदंड नहीं आया है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि प्रचार से कितने दर्शक बढ़े। फिर भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि आक्रामक प्रचार से फिल्म की जानकारी बढ़ती है। दर्शकों को इतना पता चल जाता है कि कौन सी फिल्म कब आ रही है?

अच्छा होता यदि फिल्म के प्रचार अभियान में थोड़ी कंटेंट की जानकारी दी जाती। दर्शकों को पहले से फिल्म के बारे में मालूम हो तो फिल्म नापसंद आने पर भी उन्हें धोखाधड़ी का अहसास नहीं होगा। आम शिकायत है कि फिल्म के प्रोमोशन से फिल्म की कोई जानकारी नहीं मिलती। अब इधर ऐसा हो गया है कि फिल्म से जुड़े या प्रचार के दौरान इंटरव्यू में भी डायरेक्टर और ऐक्टर कहते हैं कि हम फिल्म के बारे में कुछ नहीं बताएंगे। फिल्म की जानकारी देने के नाम पर वे कैरेक्टर की ऊपरी जानकारी भर दे देते हैं। भारत अनोखा देश है, जहां बगैर फिल्म देखे ही स्टारों से पत्रकार बातें करते हैं और फिल्मों के बारे में लिखते हैं। फिल्म रिलीज होने के बाद कोई स्टार या ऐक्टर सवाल-जवाब के लिए नहीं मिलता। फिल्मों का प्रचार वास्तव में दर्शकों को धोखे में रखने और फंसाने का जरिया बन गया है। फिलहाल इसमें सुधार की संभावना भी नहीं दिखती..।

Comments

Amit Gupta said…
सर सादर प्रणाम ,
मै भारतीय फिल्म उद्योग और उससे जुडी हुई चीजों पर अपना नजरिया प्रस्तुत करना चाहूँगा

भारतीय फिल्म उद्योग -: अगर हम भारतीय फिल्म industry की बात करे जिसे सरकारी तौर पर उद्योग का दर्ज़ा मिल गया हैं तो लगता हैं की इसकी जो कार्यशैली हैं वो किसी भी विकिसित उद्योग से मिलती जुलती नहीं दिखाई देती . हमारे एक्टर्स , स्टार्स , अन्य फिल्म निर्माता दिन रात कार्पोरेट वर्ल्ड के साथ काम करते हैं और अपनी फिल्मो को भी एक 'प्रोडक्ट' मानते है और उसके प्रचार- प्रसार में अपनी सारी ताक़त लगा देते हैं लेकिन वो 'प्रोडक्ट' की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते . मसलन आज कल जब कोई नया प्रोडक्ट launch होता हैं तो बड़ी बड़ी कंपनी तक ऑफर देती हैं की अगर आपको प्रोडक्ट पसंद नहीं आया तो आप प्रोडक्ट वापस कर सकते है क्या हम एक भी निर्माता , निर्दिशेक , एक्टर का नाम बता सकते है जो टिकेट का पैसा return करने को सोचते भी हो, करने की तो कल्पना करना भी असंभव सा प्रतीत होता हैं

जवाब है नहीं , सारे लोग बस चाहते है की फिल्म ज्यादा से ज्यादा पैसा kama ले और उनके वारे न्यार्रे हो जाए , दर्शक चाहे भाल ही ठगा सा महसूस करे . भारतीय उपभोक्ता अधिनियम में इस पहलू पर चर्चा होनी चाहिए .

भारतीय फिल्म उद्योग के लोग बड़े बड़े फोरुम्स पर अपना रोना रोते हैं और सरकार से गुहार करते हैं की उन्हे अन्य उद्योगों की तरह उन्हें भी सहुलियते और फायदे मिले . भारतीय सिनेमा और उससे जुडे लोगो ने आज तक क्या कभी पहल की हैं की देश के १ billion से ज्यादा जनसंख्या समूह के लिए कोई एक प्रशिक्षण संस्थानं खोले जहां लोग उच्च कोटि के फिल्म निर्देशक , एक्टर और technician प्रशिक्षित हो सके . नहीं , वो केवल करोडो रूपये लेकर 'Youngistaan ' का नारा लगा सकते है , youth Icon होने का दम भर सकते हैं परन्तु देश के करोडो युवाओं को एक मात्र चंद सीटो वाले FTII के सहारे छोड़ना चाहते है. हाँ , कुछ लोगो ने अपने इंस्टिट्यूट खोले है जिनकी फीस इतनी ज्यादा है की वो एक आम भारतीय के लिए शिक्षा कम एक luxury है. इसलिए ऐसे institutes को अगर अन्य संस्थानों की तरह केवल बनिए की दूकान मन जाये तोह कोई हर्ज़ नहीं होगा .

आप अगर किसी भी उद्योग की कोई भी वेबसाइट देखे तो आप को वहां carreer नाम का एक लिंक मिल जाएगा जहा लोग मिलने वाली मौको के बारे में जानकारी ले सकते हैं , कभी आप भारतीय Production हाउस (खास तौर पर नॉन कार्पोरेट ) की वेबसाइट देखें वह आपको ऐसा shayaad ही मिले .

आज भारतीय फिल्म उद्योग के सामने कई मुद्दे हैं प्रशिक्षित लोग , कर्मियों की सुरक्षा , बेहतर काम करने का माहौल , तकनिकी विकास एवं अन्य मुद्दे . परन्तु हम लोग(फ़िल्मी स्टार्स , फिल्म पत्रकार , सरकार , दर्शक, media ) केवल स्टार्स के फिल्मो के चर्चा करना , उनकी फिल्मो एवं निजी जीवन का पोस्ट मार्टम करना , इत्यादि में लगे हुए है .

मैं यह नहीं कहता की इन चीजों पर चर्चा ना हो परन्तु क्या हम भारतीय फिल्म उद्योग के अन्य पहलुओं की चर्चा ना करे , जो केवल एक चर्चा ही नहीं बल्कि एक सुधार और और फिल्म उद्योग के विकास की बात होगी और हमारा के योगदान भी होगा . क्युकी जब बात उठेगी तो दूर तलक जाएगी .

सर , मैने शायद यहाँ पर काफी बातो का जिक्र किया है जिनका शायद आपकी पोस्ट के शीर्षक से कोई सीधा लेना देना ना हो , परन्तु मैं यहाँ पर बात करना चाहता था उस माहौल और सोच की जो इस्ले लिए जिम्मेदार हैं वो माहौल और सोच है अपने काम और अपने से आगे की सोच ना रखना और जहाँ से लिए वह से कुछ ना देने की सोच होना .

आपसे आशीर्वाद चाहूंगा
अमित गुप्ता
आनंद said…
नहीं सर,

प्रचार करें या न करें, पर कंटेंट की जानकारी तो बिलकुल नहीं दी जानी चाहिए। यहाँ तक कि रिलीज के एकाध हफ़्ते तक समीक्षाओं और विषय सामग्री के बारे में चर्चा पर रोक लगा देनी चाहिए। प्रोमो का समय भी कम कर देना चाहिए। इससे पूरी फिल्‍म का मजा खराब हो जाता है।

तो सवाल यह है कि दर्शक क्‍या देखकर फिल्‍म देखने जाए? एक जवाब यह हो सकता है कि दर्शक भी ब्रांड कांशस है। वह निर्माता, निर्देशक, लेखक, संगीत आदि की थोड़ी बहुत जानकारी रखता है। इसके अलावा अखबार, टीवी से भी जुड़ा है। उसे फिल्‍म और लेखन के क्षेत्र में हो रहे मोटे-मोटे कामों की जानकारी रहती है। इस आधार पर वह अपनी फिल्‍में निर्धारित कर सकता है। जिस प्रकार जूते खरीदते समय ब्रांड, दुकान और अपनी समझ पर भरोसा करता है, उसी प्रकार वह फिल्‍म में भी पैसे खर्च कर सकता है।
फ़िल्म अच्छी नहीं होगी तो नहीं ही चलेगा...कुछ भी कर लें ये.
Seema Singh said…
-- जब किसी कला माध्यम काव्यवसायी करण होता है ,तब उस माध्यम से जुडी छोटी से छोटी इकाई -का लाभ और हानि दोनों से सीधा -सीधा वास्ता हो जाता है , ऐसाही फिल्म कला माध्यम के साथ हो रहा है -कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कलाकार ,डायरेक्टर व निर्माता आदि फिल्म के प्रदर्शन से पहले मीडिया माध्यम आदि से दशर्क वर्ग को फिल्म देखने के लिए उत्साहित करने के सब लटके -झटके अपनाने से परहेज नहीं करते हैं भविष्य में फ़िल्मकार इसी तरह थोक के भाव फ़िल्में बनाते रहे ,तब वह दिन दूर नहीं जब फिल्मकारों की पूरी की पूरी टीम को फिल्म के प्रदर्शन के लिए-देश के छोटे -छोटे कस्बों की तरफ रुख करना पड़े ,जैसा कि बड़े -बड़े उधोग पति अपनी -अपनी वस्तुओं के लिए बाजार तलाशते नजर आ रहे हैं .

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