सुपरहिट फिल्म के पांच फंडे


-मिहिर पांड्या

पिछले दिनों आई फिल्म बॉडीगार्ड को समीक्षकों ने सलमान की कुछ पुरानी सफल फिल्मों की तरह ही ज्यादा भाव नहीं दिया और फिल्म को औसत से ज्यादा रेटिंग नहीं मिली लेकिन फिल्म की बॉक्स-ऑफिस पर सफलता अभूतपूर्व है। दरअसल ऐसी फिल्मों की सफलता का फॉर्म्युला उनकी गुणवत्ता में नहीं, कहीं और है। क्या हैं वे फॉर्म्युले, फिल्म को करीब से देखने-समझने वालों से बातचीत कर बता रहे हैं मिहिर पंड्या :

नायक की वापसी

हिंदी फिल्मों का हीरो कहीं खो गया था। अपनी ऑडियंस के साथ मैं भी थियेटर में लौटा हूं। मैं भी फिल्में देखता हूं। थियेटर नहीं जा पाता तो डीवीडी पर देखता हूं। सबसे पहले यही देखता हूं कि कवर पर कौन-सा स्टार है? किस टाइप की फिल्म है? मैं देखूंगा उसकी इमेज के हिसाब से। हिंदी फिल्मों का हीरो वापस आया है। हीरोइज्म खत्म हो गया था। ऐक्टर के तौर पर मैं भी इसे मिस कर रहा था। मुझे लगता है कि मेरी तरह ही पूरा हिंदुस्तान मिस कर रहा होगा। कहीं-न-कहीं सभी को एक हीरो चाहिए।

- सलमान खान, हालिया साक्षात्कार में।

ऊपर दी गई बातचीत के इंटरव्यूअर और वरिष्ठ सिने पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज सलमान के घर के बाहर अभी निकले ही हैं कि उनका सामना वहां जमा छोटे बच्चों की टोली से हो गई है। ये बच्चे सलमान से मिलने को बेकरार हैं। अजय इन्हें अपने रिकॉर्डर पर सलमान की आवाज सुनवा देते हैं और बच्चे इतना सुनकर ही उन्हें घेर लेते हैं। नायकत्व की इससे बेहतर परीक्षा और क्या होगी?

इस बिंदु को विशेष तौर पर रेखांकित करते हुए अजय कहते हैं कि नायक की ऐसी छवि की बच्चा-बच्चा आपसे जुड़ाव महसूस करे, अभिनेता का अपने दर्शकों से सीधा रिश्ता बन जाने का निशानी है। ऐसे में कई बार यह होता है कि फिल्म समीक्षकों की राय और फिल्म की सफलता-असफलता में बहुत अंतर दिखाई देता है और बहुत कुछ नायक की दर्शक के बीच निमिर्त इमेज और उसकी संतुष्टि पर निर्भर होता है।

सलमान कहते हैं कि हमारी पिछली फिल्में, हमारी निजी जिंदगी, मीडिया के द्वारा बनी हमारी इमेज, सब एक साथ दर्शकों पर असर डालती है। दर्शक जब बॉडीगार्ड देखने गए होंगे तो उनके सामने बैठा यह सलमान खान ही वहां नहीं होता, बल्कि उनके दिमाग में प्रेम, राधे मोहन और चुलबुल पांडे जैसा किरदार भी होता है। ये सारी इमेजेज मिलकर जो सम्मोहन पैदा करती हैं। दर्शकों से यह रिश्ता क्या, कैसे और क्यों है, वे मेरे प्रशंसक मात्र हैं या परिवार के सदस्य की तरह हैं, लोग मुझे जानते नहीं, कभी मिले नहीं, फिर भी इतनी मोहब्बत!

अजय इसे हिंदी सिनेमा के पर्दे पर नायक की वापसी करार देते हैं। यही वजह है कि सलमान की ही ढेर सारी फिल्मों की याद दिलाने वाले बॉडीगार्ड को लोगों ने सराहा और बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने रेकार्ड कमाई की। दर्शक उस नायक को अब भी बहुत पसंद कर रहे जिसकी छवि लार्जर देन लाइफ हो और हर हालात में वह सेवियर नजर आए।

उत्तर भारतीय हिस्सेदारी

हिंदी सिनेमा पर निगाह रखने वाले एक बड़े तबके का यह भी मानना है कि हिंदी सिनेमा के व्यापक बाजार में बढ़ती उत्तर भारत की हिस्सेदारी ने इसके नायक को विदेश से वापस हिंदुस्तान के गांव-देहात में लौटाया है। नब्बे के दशक में शुरू हुआ सिनेमा का वह दौर जहां करोड़पति नायक विदेशों के अपने आलीशान घरों से हैलीकॉप्टर में बैठ भारत लौटा करते थे, से तुलना करने पर दबंग का मूंछवाला थानेदार चुलबुल पांडे एक बड़े बदलाव की ओर हमारा ध्यान खींचता है। यह नायक सत्तर और अस्सी के दशक के मुख्यधारा नायक की आपको बरबस याद दिलाता है।

नब्बे के दशक जब हिंदी सिनेमा की ऑडियंस में एक बड़ा बदलाव आ रहा था तो उससे फिल्म के विषय और उससे उभरनेवाली नायकीय छवि भी प्रभावित हो रही थी। जैसा पीपली लाइव के सह-निदेर्शक और इतिहासकार महमूद फारुकी का कहना है कि समाज के विभिन्न तबकों की खरीदने की क्षमता जिस अनुपात में बदलती है, उसका असर सिनेमा पर भी दिखता है और यह हिंदी सिनेमा का एक ऐसा दौर है जब सिनेमा बनाने वालों के रेडार में दिल्ली-मुंबई तो रहते हैं, लेकिन गोरखपुर जैसे शहर-कस्बे पूरी तरह गायब हो जाते हैं।

पिछले दिनों आई एक और सफल फिल्म तनु वेड्स मनु के गीतकार राज शेखर इन मास लेवल पर सफल हो रही फिल्मों को उस एलीट एनआरआई पंजाबी कल्चर के प्रति एक विद्रोह के तौर पर भी देखते हैं, जिन्हें नब्बे के दशक में हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा के तौर पर चिह्नित किया गया। बेशक तमाम फॅर्म्युले बाजार को ध्यान में रख ही बनाए जाते हैं और आज भी सबसे ऊपर बॉक्स-ऑफिस के नतीजे ही हैं, ऐसे में इस बदलते सिनेमा को बाजार के बदलते स्वरूप के एक विजिबल फैक्टर के तौर पर चिह्नित किया जाना पूरी तरह गलत भी नहीं। बॉडीगार्ड की सफलता को भी ऐसे ही देखा जाना चाहिए।

ब्लॉकबस्टर नहीं प्रॉडक्ट

लेकिन, इस बाजार में सिनेमा का की जगह अब वो नहीं रही जो आज से दस-बीस साल पहले थी। नई ब्लॉकबस्टर्स पर बात करते हुए वरिष्ठ सिने आलोचक नम्रता जोशी बताती हैं कि आज के मल्टि-प्लेक्स सिनेमाहाल बड़ी-बड़ी मॉल के भीतर होते हैं। एक तरफ ब्रांडेड कपड़े, घडि़यां, पर्स, गहने, मोबाइल बिक रहे हैं और वहीं दूसरी ओर सिनेमाहाल का टिकट काउंटर खुला हुआ है। यह सीधा संकेत है कि अब हमारे लिए सिनेमा भी एक प्रॉडक्ट की तरह है। ऐसे में दर्शक सिनेमा से किसी तरह का सीधा और लंबे समय का रिश्ता नहीं बनाता बल्कि उसे भी वीकेंड पर खरीदे किसी ब्रांडेड प्रॉडक्ट और किसी बड़े रेस्टोरेंट में डिनर की तरह लेता है। तब बड़ा हीरो इस ब्रांड की स्थापना में सबसे बड़ा कारक बनकर उभरता है। इसीलिए करोड़ों की कमाई के बावजूद आज की ब्लॉकबस्टर्स की उमर पहले की सफल फिल्मों की तुलना में बहुत छोटी है। भले ही गजनी या बॉडीगार्ड ने शोले से कहीं ज्यादा पैसे कमाए हों, आप शोले की लोकप्रियता के सामने इन फिल्मों को इसलिए नहीं रख सकते क्योंकि आज की इन ब्लॉकबस्टर्स की उमर हफ्ते-दो-हफ्ते से ज्यादा की नहीं।

नई पीढ़ी की दखल

अभिनेता मनोज बाजपेयी बताते हैं कि न सिर्फ ऑडियंस के स्तर पर, बल्कि नब्बे के दशक में सिनेमा बनाने वाले भी ज्यादातर ऐसे हिस्सों से आते थे जिनका हिन्दुस्तान के गांव-देहातों से सीधा जुड़ाव नहीं था। लेकिन, पिछले दशक में एक पूरी पीढ़ी हिंदी सिनेमा में सक्रिय हुई है जिसकी कहानियां उनके अपने कस्बाई परिवेश से निकलकर आ रही हैं। अभिनव कश्यप से लेकर दिबाकर बनर्जी तक सिनेमा बनाने वालों की यह नई पीढ़ी फॉर्म्युला फिल्मों से लेकर बड़ी गुणवत्ता वाली फिल्में बना रही है, लेकिन देसी छौंक के साथ खुद उनकी पिछली दोनों सफल फिल्मों के निर्देशक प्रकाश झा आज भी अपनी फिल्म का आधार उत्तर भारतीय कस्बों में रखना ही पसंद करते हैं।

महमूद फारुकी ने पिछले दिनों बातचीत में कहा था कि आज का मुंबई का सिनेमा तो दरअसल दिल्ली यूनिवर्सिटी का सिनेमा है। सुधीर मिश्रा से लेकर विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, राजकुमार गुप्ता तक सभी नई पीढ़ी के निर्देशक यहीं से तो होकर निकले हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि ये सभी बरास्ते दिल्ली होते हुए भले ही निकले हों, पर इनमें से ज्यादातर उत्तर भारत के छोटे कस्बों और शहरों की पैदाइश हैं। इनके सिनेमा में दिल्ली भी आती है और अपना छूटा हुआ कस्बाई परिवेश भी। इनके नायक मूंछो वाले हैं और उन्हें नब्बे के दशक में आए मेट्रोसेक्सुअल नायक से किसी भी तरह नहीं जोड़ा जा सकता।

राज शेखर भी इससे सहमति जताते हैं। उनका मानना है कि सिनेमा में अलग-अलग स्तरों पर हिंदी पट्टी से आए नौजवानों ने अपनी जगह बनाई है और अब बाजार में दिखाई देते परिवर्तन के साथ उन्हें अपनी बात कहने का मौका मिल रहा है। चूंकि यह सब बाजार की शर्तों पर ही हो रहा है इसीलिए ऐसी फिल्मों में कहानी को जानबूझकर पुराने ढर्रे पर ही चलाया जाता है।

मार्केटिंग और तकनीकी चमत्कार

बाजार का दबाव अब भी कायम है, बल्कि कहना चाहिए कि उसका प्रभाव बढ़ा ही है। सिनेमा की सफलता अब फिल्म की गुणवत्ता से ज्यादा उसकी प्री-पब्लिसिटी और स्टारकास्ट पर निर्भर होती जा रही है। यह एक ऐसा बाजार समय है जिसमें ब्लॉकबस्टर फिल्मों की किस्मत का फैसला फिल्म के प्रदर्शन के पहले तीन दिनों में ही हो जाता है। ऐसे में सिनेमा बनानेवाले फिल्म में ज्यादा से ज्यादा तकनीकी चमत्कार भर अन्य चीजों को गौण बनाने के फॉर्म्युले पर अमल करते दिख रहे हैं।

एक सवाल के जवाब में मनोज बाजपेयी हालिया प्रदर्शित फिल्म सिंघम, वॉंटेड, और बॉडीगार्ड जैसी ऐक्शन फिल्मों के ट्रेंड को हिंदी सिनेमा में तकनीकी गुणवत्ता के साथ सिनेमा में तकनीकी चमत्कार भर देने को एक प्रवृत्ति के तौर पर भी स्वीकारते हैं। उनका कहना है कि आगे आने वाली फिल्में : रा-वन और कृष-3 के साथ यह ट्रेंड और नए आयाम पर जाने वाला है। ऐसी फिल्में तकनीक पर सबसे ज्यादा भरोसा करती हैं और इनमें कहानी जैसी चीजें गौण हो जाती हैं। फिर इस दौर में जब एक ही हफ्ते पांच-पांच फिल्में रिलीज हो रही हों, दर्शक का एक ही फिल्म से लंबा जुड़ाव संभव नहीं। ऐसे में यह तकनीकी चमत्कार सिनेमा का सबसे मान्य फॉर्म्युला बनकर उभर रहा है।

आज के दौर का सिनेमा अपनी पहचान बचाने के लिए अन्य मनोरंजन माध्यमों से भी लड़ रहा है। ऐसे में टीवी और इंटरनेट की चुनौती के सामने उसे अपना पैमाना और दायरा बड़ा करना भी एक चुनौती है। फिल्में और यादा मंहगी होती जा रही हैं और उनका तकनीकी पहलू भले ही बेहतर हो रहा हो, उनका स्वभाव बदल रहा है।

अनुराग कश्यप ने एक मुलाकात में कहा था कि सिनेमा में जितना ज्यादा पैसा आता है, उतना ही निर्देशक की आजादी छिनती जाती है। बड़ी ब्लॉकबस्टर फिल्मों के साथ एक समान बात जो इन दिनों देखने में आ रही है वह यही है कि यहां स्टार की इमेज को भुनाने की कोशिश ज्यादा है और कहानी के स्तर पर किसी भी नए प्रयोग की चाहत बहुत कम। फिर भी इतना साफ है कि मुख्यधारा सिनेमा बीते दो-तीन सालों में एक नई दिशा की ओर मुड़ा है, कहानियों में शहर से बाहर का देहात दिखने लगा है और नायक-खलनायक की पुरानी जोड़ियां सिनेमा में वापस आई हैं। अब यह दिशा अच्छे की ओर जाती है या और बुरे की ओर, यह तो आनेवाला वक्त ही बताएगा।पिछले दिनों आई फिल्म बॉडीगार्ड को समीक्षकों ने सलमान की कुछ पुरानी सफल फिल्मों की तरह ही ज्यादा भाव नहीं दिया और फिल्म को औसत से ज्यादा रेटिंग नहीं मिली लेकिन फिल्म की बॉक्स-ऑफिस पर सफलता अभूतपूर्व है। दरअसल ऐसी फिल्मों की सफलता का फॉर्म्युला उनकी गुणवत्ता में नहीं, कहीं और है। क्या हैं वे फॉर्म्युले, फिल्म को करीब से देखने-समझने वालों से बातचीत कर बता रहे हैं मिहिर पंड्या :

नायक की वापसी

हिंदी फिल्मों का हीरो कहीं खो गया था। अपनी ऑडियंस के साथ मैं भी थियेटर में लौटा हूं। मैं भी फिल्में देखता हूं। थियेटर नहीं जा पाता तो डीवीडी पर देखता हूं। सबसे पहले यही देखता हूं कि कवर पर कौन-सा स्टार है? किस टाइप की फिल्म है? मैं देखूंगा उसकी इमेज के हिसाब से। हिंदी फिल्मों का हीरो वापस आया है। हीरोइज्म खत्म हो गया था। ऐक्टर के तौर पर मैं भी इसे मिस कर रहा था। मुझे लगता है कि मेरी तरह ही पूरा हिंदुस्तान मिस कर रहा होगा। कहीं-न-कहीं सभी को एक हीरो चाहिए।

- सलमान खान, हालिया साक्षात्कार में।

ऊपर दी गई बातचीत के इंटरव्यूअर और वरिष्ठ सिने पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज सलमान के घर के बाहर अभी निकले ही हैं कि उनका सामना वहां जमा छोटे बच्चों की टोली से हो गई है। ये बच्चे सलमान से मिलने को बेकरार हैं। अजय इन्हें अपने रिकॉर्डर पर सलमान की आवाज सुनवा देते हैं और बच्चे इतना सुनकर ही उन्हें घेर लेते हैं। नायकत्व की इससे बेहतर परीक्षा और क्या होगी?

इस बिंदु को विशेष तौर पर रेखांकित करते हुए अजय कहते हैं कि नायक की ऐसी छवि की बच्चा-बच्चा आपसे जुड़ाव महसूस करे, अभिनेता का अपने दर्शकों से सीधा रिश्ता बन जाने का निशानी है। ऐसे में कई बार यह होता है कि फिल्म समीक्षकों की राय और फिल्म की सफलता-असफलता में बहुत अंतर दिखाई देता है और बहुत कुछ नायक की दर्शक के बीच निमिर्त इमेज और उसकी संतुष्टि पर निर्भर होता है।

सलमान कहते हैं कि हमारी पिछली फिल्में, हमारी निजी जिंदगी, मीडिया के द्वारा बनी हमारी इमेज, सब एक साथ दर्शकों पर असर डालती है। दर्शक जब बॉडीगार्ड देखने गए होंगे तो उनके सामने बैठा यह सलमान खान ही वहां नहीं होता, बल्कि उनके दिमाग में प्रेम, राधे मोहन और चुलबुल पांडे जैसा किरदार भी होता है। ये सारी इमेजेज मिलकर जो सम्मोहन पैदा करती हैं। दर्शकों से यह रिश्ता क्या, कैसे और क्यों है, वे मेरे प्रशंसक मात्र हैं या परिवार के सदस्य की तरह हैं, लोग मुझे जानते नहीं, कभी मिले नहीं, फिर भी इतनी मोहब्बत!

अजय इसे हिंदी सिनेमा के पर्दे पर नायक की वापसी करार देते हैं। यही वजह है कि सलमान की ही ढेर सारी फिल्मों की याद दिलाने वाले बॉडीगार्ड को लोगों ने सराहा और बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने रेकार्ड कमाई की। दर्शक उस नायक को अब भी बहुत पसंद कर रहे जिसकी छवि लार्जर देन लाइफ हो और हर हालात में वह सेवियर नजर आए।

उत्तर भारतीय हिस्सेदारी

हिंदी सिनेमा पर निगाह रखने वाले एक बड़े तबके का यह भी मानना है कि हिंदी सिनेमा के व्यापक बाजार में बढ़ती उत्तर भारत की हिस्सेदारी ने इसके नायक को विदेश से वापस हिंदुस्तान के गांव-देहात में लौटाया है। नब्बे के दशक में शुरू हुआ सिनेमा का वह दौर जहां करोड़पति नायक विदेशों के अपने आलीशान घरों से हैलीकॉप्टर में बैठ भारत लौटा करते थे, से तुलना करने पर दबंग का मूंछवाला थानेदार चुलबुल पांडे एक बड़े बदलाव की ओर हमारा ध्यान खींचता है। यह नायक सत्तर और अस्सी के दशक के मुख्यधारा नायक की आपको बरबस याद दिलाता है।

नब्बे के दशक जब हिंदी सिनेमा की ऑडियंस में एक बड़ा बदलाव आ रहा था तो उससे फिल्म के विषय और उससे उभरनेवाली नायकीय छवि भी प्रभावित हो रही थी। जैसा पीपली लाइव के सह-निदेर्शक और इतिहासकार महमूद फारुकी का कहना है कि समाज के विभिन्न तबकों की खरीदने की क्षमता जिस अनुपात में बदलती है, उसका असर सिनेमा पर भी दिखता है और यह हिंदी सिनेमा का एक ऐसा दौर है जब सिनेमा बनाने वालों के रेडार में दिल्ली-मुंबई तो रहते हैं, लेकिन गोरखपुर जैसे शहर-कस्बे पूरी तरह गायब हो जाते हैं।

पिछले दिनों आई एक और सफल फिल्म तनु वेड्स मनु के गीतकार राज शेखर इन मास लेवल पर सफल हो रही फिल्मों को उस एलीट एनआरआई पंजाबी कल्चर के प्रति एक विद्रोह के तौर पर भी देखते हैं, जिन्हें नब्बे के दशक में हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा के तौर पर चिह्नित किया गया। बेशक तमाम फॅर्म्युले बाजार को ध्यान में रख ही बनाए जाते हैं और आज भी सबसे ऊपर बॉक्स-ऑफिस के नतीजे ही हैं, ऐसे में इस बदलते सिनेमा को बाजार के बदलते स्वरूप के एक विजिबल फैक्टर के तौर पर चिह्नित किया जाना पूरी तरह गलत भी नहीं। बॉडीगार्ड की सफलता को भी ऐसे ही देखा जाना चाहिए।

ब्लॉकबस्टर नहीं प्रॉडक्ट

लेकिन, इस बाजार में सिनेमा का की जगह अब वो नहीं रही जो आज से दस-बीस साल पहले थी। नई ब्लॉकबस्टर्स पर बात करते हुए वरिष्ठ सिने आलोचक नम्रता जोशी बताती हैं कि आज के मल्टि-प्लेक्स सिनेमाहाल बड़ी-बड़ी मॉल के भीतर होते हैं। एक तरफ ब्रांडेड कपड़े, घडि़यां, पर्स, गहने, मोबाइल बिक रहे हैं और वहीं दूसरी ओर सिनेमाहाल का टिकट काउंटर खुला हुआ है। यह सीधा संकेत है कि अब हमारे लिए सिनेमा भी एक प्रॉडक्ट की तरह है। ऐसे में दर्शक सिनेमा से किसी तरह का सीधा और लंबे समय का रिश्ता नहीं बनाता बल्कि उसे भी वीकेंड पर खरीदे किसी ब्रांडेड प्रॉडक्ट और किसी बड़े रेस्टोरेंट में डिनर की तरह लेता है। तब बड़ा हीरो इस ब्रांड की स्थापना में सबसे बड़ा कारक बनकर उभरता है। इसीलिए करोड़ों की कमाई के बावजूद आज की ब्लॉकबस्टर्स की उमर पहले की सफल फिल्मों की तुलना में बहुत छोटी है। भले ही गजनी या बॉडीगार्ड ने शोले से कहीं ज्यादा पैसे कमाए हों, आप शोले की लोकप्रियता के सामने इन फिल्मों को इसलिए नहीं रख सकते क्योंकि आज की इन ब्लॉकबस्टर्स की उमर हफ्ते-दो-हफ्ते से ज्यादा की नहीं।

नई पीढ़ी की दखल

अभिनेता मनोज बाजपेयी बताते हैं कि न सिर्फ ऑडियंस के स्तर पर, बल्कि नब्बे के दशक में सिनेमा बनाने वाले भी ज्यादातर ऐसे हिस्सों से आते थे जिनका हिन्दुस्तान के गांव-देहातों से सीधा जुड़ाव नहीं था। लेकिन, पिछले दशक में एक पूरी पीढ़ी हिंदी सिनेमा में सक्रिय हुई है जिसकी कहानियां उनके अपने कस्बाई परिवेश से निकलकर आ रही हैं। अभिनव कश्यप से लेकर दिबाकर बनर्जी तक सिनेमा बनाने वालों की यह नई पीढ़ी फॉर्म्युला फिल्मों से लेकर बड़ी गुणवत्ता वाली फिल्में बना रही है, लेकिन देसी छौंक के साथ खुद उनकी पिछली दोनों सफल फिल्मों के निर्देशक प्रकाश झा आज भी अपनी फिल्म का आधार उत्तर भारतीय कस्बों में रखना ही पसंद करते हैं।

महमूद फारुकी ने पिछले दिनों बातचीत में कहा था कि आज का मुंबई का सिनेमा तो दरअसल दिल्ली यूनिवर्सिटी का सिनेमा है। सुधीर मिश्रा से लेकर विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, राजकुमार गुप्ता तक सभी नई पीढ़ी के निर्देशक यहीं से तो होकर निकले हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि ये सभी बरास्ते दिल्ली होते हुए भले ही निकले हों, पर इनमें से ज्यादातर उत्तर भारत के छोटे कस्बों और शहरों की पैदाइश हैं। इनके सिनेमा में दिल्ली भी आती है और अपना छूटा हुआ कस्बाई परिवेश भी। इनके नायक मूंछो वाले हैं और उन्हें नब्बे के दशक में आए मेट्रोसेक्सुअल नायक से किसी भी तरह नहीं जोड़ा जा सकता।

राज शेखर भी इससे सहमति जताते हैं। उनका मानना है कि सिनेमा में अलग-अलग स्तरों पर हिंदी पट्टी से आए नौजवानों ने अपनी जगह बनाई है और अब बाजार में दिखाई देते परिवर्तन के साथ उन्हें अपनी बात कहने का मौका मिल रहा है। चूंकि यह सब बाजार की शर्तों पर ही हो रहा है इसीलिए ऐसी फिल्मों में कहानी को जानबूझकर पुराने ढर्रे पर ही चलाया जाता है।

मार्केटिंग और तकनीकी चमत्कार

बाजार का दबाव अब भी कायम है, बल्कि कहना चाहिए कि उसका प्रभाव बढ़ा ही है। सिनेमा की सफलता अब फिल्म की गुणवत्ता से ज्यादा उसकी प्री-पब्लिसिटी और स्टारकास्ट पर निर्भर होती जा रही है। यह एक ऐसा बाजार समय है जिसमें ब्लॉकबस्टर फिल्मों की किस्मत का फैसला फिल्म के प्रदर्शन के पहले तीन दिनों में ही हो जाता है। ऐसे में सिनेमा बनानेवाले फिल्म में ज्यादा से ज्यादा तकनीकी चमत्कार भर अन्य चीजों को गौण बनाने के फॉर्म्युले पर अमल करते दिख रहे हैं।

एक सवाल के जवाब में मनोज बाजपेयी हालिया प्रदर्शित फिल्म सिंघम, वॉंटेड, और बॉडीगार्ड जैसी ऐक्शन फिल्मों के ट्रेंड को हिंदी सिनेमा में तकनीकी गुणवत्ता के साथ सिनेमा में तकनीकी चमत्कार भर देने को एक प्रवृत्ति के तौर पर भी स्वीकारते हैं। उनका कहना है कि आगे आने वाली फिल्में : रा-वन और कृष-3 के साथ यह ट्रेंड और नए आयाम पर जाने वाला है। ऐसी फिल्में तकनीक पर सबसे ज्यादा भरोसा करती हैं और इनमें कहानी जैसी चीजें गौण हो जाती हैं। फिर इस दौर में जब एक ही हफ्ते पांच-पांच फिल्में रिलीज हो रही हों, दर्शक का एक ही फिल्म से लंबा जुड़ाव संभव नहीं। ऐसे में यह तकनीकी चमत्कार सिनेमा का सबसे मान्य फॉर्म्युला बनकर उभर रहा है।

आज के दौर का सिनेमा अपनी पहचान बचाने के लिए अन्य मनोरंजन माध्यमों से भी लड़ रहा है। ऐसे में टीवी और इंटरनेट की चुनौती के सामने उसे अपना पैमाना और दायरा बड़ा करना भी एक चुनौती है। फिल्में और यादा मंहगी होती जा रही हैं और उनका तकनीकी पहलू भले ही बेहतर हो रहा हो, उनका स्वभाव बदल रहा है।

अनुराग कश्यप ने एक मुलाकात में कहा था कि सिनेमा में जितना ज्यादा पैसा आता है, उतना ही निर्देशक की आजादी छिनती जाती है। बड़ी ब्लॉकबस्टर फिल्मों के साथ एक समान बात जो इन दिनों देखने में आ रही है वह यही है कि यहां स्टार की इमेज को भुनाने की कोशिश ज्यादा है और कहानी के स्तर पर किसी भी नए प्रयोग की चाहत बहुत कम। फिर भी इतना साफ है कि मुख्यधारा सिनेमा बीते दो-तीन सालों में एक नई दिशा की ओर मुड़ा है, कहानियों में शहर से बाहर का देहात दिखने लगा है और नायक-खलनायक की पुरानी जोड़ियां सिनेमा में वापस आई हैं। अब यह दिशा अच्छे की ओर जाती है या और बुरे की ओर, यह तो आनेवाला वक्त ही बताएगा।

Comments

Arvind Mishra said…
इस मिथ को बढाने में आपकी हिस्सेदारी कुछ कम नहीं :)

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