मोहल्‍ला अस्‍सी : गालियों और चाय की चुस्कियों...

मोहल्‍ला अस्‍सी पर तहलका के अतुल चौरसिया की रपट...

imageगालियों और चाय की चुस्कियों में लिपटी सभ्यता को पर्दे पर उतारने की कोशिश

बनारस के अस्सी घाट पर वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह की बहुचर्चित किताब काशी का अस्सी पर आधारित फिल्म मोहल्ला अस्सी की शूटिंग से लौटे अतुल चौरसिया फिल्म और साहित्य के प्रति फिल्म के निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी, काशीनाथ सिंह और कहानी के वास्तविक एवं फिल्मी पात्रों का नजरिया साझा कर रहे हैं

(लेख में आई कुछ गालियां काशी का अस्सी पुस्तक से संदर्भश: ली गई हैं)

बुलेट जैसी निर्जीव मशीन की मां-बहन से किसी का नितांत अंतरंग रिश्ता जुड़ते देखकर ही यह एहसास विश्वास में बदल जाता है कि हम 'सुबहे बनारस' के शहर में हैं, जिसकी धमनियों में गंगा, गलियां और गालियां रक्त के समान ही प्रवाहित होती हंै. चंदुआ सट्टी से लंका की तरफ बढ़ते ही जाम ने अपना मुंह सुरसा की तरह फैला रखा है. नये लोग और दिल्ली-बेंगलुरु के असर में जीने वाले शहर के इस तुमुल कोलाहल पर मुंह बिचकाते दिखते हैं लेकिन सात समंदर पार से यहां आने वाले अंग्रेज और अंग्रेजिनों के माथों पर कोई शिकन तक नहीं दिखती. उनकी निगाह में यही इस शहर का अनूठापन है, यही इसका अध्यात्म है जिसकी तलाश में वे सात समंदर पार से यहां आए हैं. यही वह सड़क है जो सीधे आपको काशी के उस अस्सी मोहल्ले तक भी ले जाती है जो कसिया (काशीनाथ सिंह) के उपन्यास के बाद अब द्विवेदिया (चंद्र प्रकाश द्विवेदी, अस्सीवासियों के संज्ञा और सर्वनाम 'या' और 'वा' प्रत्यय के बिना पूर्ण नहीं होते) की फिल्म मोहल्ला अस्सी में उतरने को तैयार है. इसी रास्ते के बीच में उन सज्जन की 1980 मॉडल रॉयल एनफील्ड खराब हो गई है और वे धाराप्रवाह अपनी बुलेट को, इसकी मां की** इसकी बहन की**, माद*** जैसी गालियां देते पसीने से हलकान हुए जा रहे हैं. तभी पीछे से एक आवाज गूंजी और सारा माहौल हंसी से सराबोर हो गया- ‘जिया हो रजा... जिया.’ यह एक रिक्शेवाले की रसिक पुकार है जिसे माहौल में धीरे-धीरे घुल रही फगुआ की महक और सुबह ही लगाई गई गोली (भांग) की तरंग बहका रही है. इस आवाज को सुनते ही जाम में फंसे ज्यादातर लोगों के मुंह से हंसी का ठहाका फूट पड़ता है. इस जाम और तामझाम में भी हंसी और खिलंदड़ई ढूंढ़ लेना बनारस की अस्थिमज्जा में रचा-बसा है और काशी का अस्सी उसी सांस्कृतिक धारा का महापुराण है.

किताब उस बनारस की प्रतिनिधि है जिसकी जड़ें संत कबीर और औघड़ कीनाराम रोप गए हैं, वहां आज भी रांड़, सांड़, साधू और संन्यासी से बचने की सलाह दी जाती है

साहित्य और इतिहास पर आधारित फिल्मों की अगर कोई धारा होती है तो चंद्रप्रकाश द्विवेदी उसके निर्विवाद सिरमौर कहे जाएंगे. अस्सी चौराहे पर पप्पू की चाय की दुकान के बाहर लगी एक बेंच पर द्विवेदी से पहली मुलाकात कई पुरानी धारणाओं को तोड़ने और कुछ नयी सोच के पनपने का मौका बन जाती है. बातचीत का सिलसिला जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, मन में बनी फिल्मी दुनिया के रूखे फसानों की छवियां एक-एक कर टूटती चली जाती हैं. मसलन पूर्व में सिर्फ एक एसएमएस की बातचीत के बाद अगली हर बातचीत में 'हां अतुल,... कैसे हो,... बनारस कब आए,... किस चीज से आए हो... ' जैसे संबोधन ही सुनने को मिलते हैं. ‘खैर, साहित्य पर ही अगर फिल्में बनानी हैं तो, फिर द्विवेदी के मन में सिर्फ भारतीय साहित्य और इतिहास के प्रति ही अनुराग क्यों है?’ जवाब मिलता है, 'मैं किसी भी विदेशी या अंग्रेजी साहित्य को ज्यादा देर तक झेल नहीं पाता हूं. मेरी एकाग्रता खत्म हो जाती है. इसके विपरीत भारतीय साहित्य और इतिहास मुझमें उत्सुकता पैदा करने के साथ ही अंत तक बांधे भी रखता है.' हिंदी फिल्मों के संवाद भी रोमन अंग्रेजी में पढ़ने वाली हिंदी फिल्मों की दुनिया में चंद्रप्रकाश द्विवेदी सुगंधित बयार की तरह हैं, भाषा पर उनकी पकड़, विषय का ज्ञान, हमेशा हिंदी में ही लोगों से बातचीत और सेट पर हिंदी में ही कमांड देते देखना सुखद अनुभूति देता है और साथ ही यह विश्वास भी कि वे भेड़चाल की मारी फिल्मी दुनिया में कुछ अलग किस्म के जीव भी हैं. उनके इस व्यक्तित्व के कायल काशी का अस्सी के लेखक काशीनाथ सिंह भी हैं. उनके शब्दों में, 'चंद्रप्रकाश जी ने मुझे फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़ने का प्रस्ताव दिया था, पर मैंने पाया कि उनके अंदर फिल्मों के बाजारू चेहरे को तोड़ने और बदलने की एक तड़प है इसलिए मैंने स्क्रिप्ट पढ़ने से मना कर दिया. फिल्मी माध्यम की अपनी मजबूरियां हैं, हो सकता है उन्होंने इसके अनुसार कुछ फेरबदल किए हों, ऐसे में इस समय मेरी ओर से इसमें टीका-टिप्पणी करना ठीक नहीं है.'

साहित्य पर हिंदी में बनी फिल्मों में फणीश्वरनाथ रेणु की मारे गए गुलफाम पर आधारित गीतकार शैलेंद्र की 1966 में आई तीसरी कसम सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में से थी. बाद के दौर में गुनाहों का देवता, हाल के कुछ सालों में ट्रेन टू पाकिस्तान और अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर पर इसी नाम से बनी फिल्में उल्लेखनीय हैं. लेकिन खाटी हिंदी साहित्य की अगर बात करें तो काशी का अस्सी लंबे अंतराल के बाद एक नयी शुरुआत है. और दिलचस्प बात यह है कि इस धारा में द्विवेदी के नाम पर पिंजर जैसी एक क्लासिक फिल्म पहले से ही है जिसके बारे में साहित्य और फिल्म के समीक्षकों की एक ही राय है- 'पिंजर उपन्यास से ज्यादा सुंदर, असरदार और मार्मिक इस पर बनी फिल्म है'

गालियां इसकी जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा हैं. किताब को पढ़कर और अस्सी पर तीन दिन बिताने के बाद कोई भी इसे अच्छी तरह समझ सकता है

‘तो फिर पिंजर के बाद दशक भर लंबा अंतराल क्यों?’ द्विवेदी कहते है, ‘ऐसा नहीं है कि इन वर्षों में मैंने कुछ नहीं किया. महाभारत पर धारावाहिक बनाने का विचार था लेकिन उसके लिए जितना पैसा और संसाधन मुहैया करवाए जा रहे थे वे पर्याप्त नहीं थे. इसलिए आधी दूरी तय करके एक बार फिर से हम शून्य पर पहुंच गए. पृथ्वीराज चौहान पर फिल्म बनाने का काम लगभग पूरा हो चुका था लेकिन अंत में कुछ विवाद हो गए इसलिए इसे छोड़ना पड़ा. अब मेरे पास काशी का अस्सी है और मेरे हिसाब से यह इस पूरे इलाके की जीवनशैली का प्रतिनिधि है.’

आम तौर पर बनारस के चरित्र में एक सबअल्टर्न अप्रोच का प्रभुत्व देखने को मिलता है. इस शहर में कोई ऐसा इलीट तबका आज तक विकसित नहीं हो सका है जो पान खाने, गालियां देने और भांग छानने से खुद को रोक पाता हो या ऐसा करने वालों पर नाक-भौं सिकोड़ता हो. काशी नरेश को छोड़कर हर आदमी की हर आदमी तक पहुंच है. राजनीतिक चर्चाओं में कम से कम मुख्यमंत्री स्तर की चर्चा और अधिक से अधिक की कोई सीमा नहीं है. पुस्तक का ही एक उद्धरण है, 'पिछले खाड़ी युद्ध के दौरान अस्सी चाहता था कि अमरीका का व्हाइट हाउस इस मोहल्ले का सुलभ शौचालय हो जाय ताकि उसे दिव्य निपटान के लिए बाहरी अलंग अर्थात गंगा पार न जाना पड़े...'

गालियां इस जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा हैं. किताब को पढ़कर और अस्सी पर तीन दिन बिताने के बाद इसे समझने के लिए कोई अतिरिक्त मेहनत नहीं चाहिए. इस मामले में लेखक काशीनाथ सिंह स्वयं के प्रति भी उतना ही ईमानदार और निर्मम रवैया अपनाते हैं जितना कि पुस्तक के अन्य जीवित-कल्पित पात्रों के प्रति. मसलन- 'इस आवाज के साथ-साथ कोने से एक फुसफुसाहट भी हुई जिसे भला आदमी अनसुना कर जाता है. एक अपरिचित और दूसरे परिचित स्वर के बीच संवाद- 'ई कौन है बे?' 'लेखक हैं भोंसड़ी के', 'लिखता क्या है?' 'हमारी झांट. जो हम बोलते हैं वही टीप देता है.' 'अरे वही तो नहीं, देख तमाशा लकड़ीवाला?' 'हां वही. देखो तो कितना शरीफ, लेकिन हरामी नंबर एक.'

तो गालियों को लेकर चंद्रप्रकाश जी का नजरिया क्या रहेगा फिल्म में, इसे जानने की बेचैनी सभी के अंदर हैं और सबकी चिंता एक ही है, अगर इसमें से गालियां खत्म हो गईं तो समझो फिल्म की आत्मा ही नष्ट हो गई. अस्सी चौराहे पर बैठे-बैठे जब इस बात की चर्चा छिड़ी तो द्विवेदी सोच में पड़ गए और थोड़ी देर बाद फलसफाना अंदाज में लोगों को आश्वस्त किया- 'इस विषय पर मैं काफी दुविधा में रहा हूं. मैंने इस नजरिये से सोचा कि मेरी भी एक आठ साल की बेटी है. क्या मैं उसके साथ यह फिल्म देख सकता हूं? अंत में मैंने फैसला किया कि मैं अपनी बेटी से कहूंगा कि मैं तुम्हारे लिए इस फिल्म का एडिटेड वर्जन बनाऊंगा.' गालियों की चर्चा आने पर फिल्म में पंडित धर्मनाथ शास्त्री की भूमिका कर रहे हीमैन सनी देओल का नजरिया बेहद सपाट होता है, 'बॉर्डर में मैंने गालियां दी थीं, यहां भी मेरे हिस्से में आएंगी तो दूंगा. पर ये सब डॉक्टरसाब (चंद्रप्रकाश द्विवेदी) के ऊपर है. गालियां हों या सामान्य डायलॉग, अभिनय में सब कुछ फ्लो में निकलता है.' लेकिन चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साथ चाणक्य में काम कर चुके अभिनेता मुकेश तिवारी गालियों की चर्चा होने पर काफी उत्साहित हो जाते हैं और अपना एक डायलॉग बोलकर सभी आशंकाओं को दूर कर देते हैं, 'बंधुवर, जाने कब से कहां-कहां मराते घूम रहे हो. कभी इधर भी आओगे? दुनिया क्या से क्या होती जा रही है और तुम्हारा पता नहीं. इससे पहले कि अस्सी घाट मियामी का आसामी हो जाए, इससे पहले कि घाट के विदेशी और चौराहे के 'स्वदेशी' देसी मुहल्ले की खाट खड़ी कर दें- आओ और देखो कि किस कदर 'गंड़ऊ गदर' मचा रहे हैं दड़बे के गदरहे.'

बनारस में ऐसा इलीट तबका आज तक विकसित नहीं हो सका है जो पान खाने, गालियां देने और भांग छानने से खुद को रोक पाता हो या ऐसा करने वालों पर नाक-भौं सिकोड़ता हो

काशी का अस्सी उस कालखंड का व्यापक चित्रण है जब देश में उदारवाद की पहली रोशनी आई थी, भारतीय राजनीति गंभीर संक्रमण काल से गुजर रही थी. मंडल को लेकर वीपी सिंह ने देश में तूफान पैदा किया तो कमंडलधारी भाजपाइयों ने राजनीति में धर्म का घातक फाॅर्मूला भी इसी दौरान पेश किया था. इस तरह भारतीय समाज एक साथ कई तरह की चुनौतियों से निपट रहा था. अपने विनोदी स्वभाव और अल्हड़ बनारसी अंदाज में यह किताब एक साथ बाजारवाद, राजनीति, कर्मकांड-पाखंड और कट्टरपंथ पर कड़े प्रहार करती चलती है. इसके अंतर्मन में बनारस के तेजी से बदलते (या कहें कि बिगड़ते) चरित्र के प्रति भी एक चिंता दिखाई देती है. कौन ठगवा नगरिया लूटल हो इसी चिंता को समर्पित है. काशीनाथ सिंह का एक बयान, 'ज्यादा नहीं ये बीस-तीस वर्षों के अंदर हुए बदलाव हैं जिनका एक रफ स्केच है यह टिप्पणी. हां, राजधानी आज भी है यह नगर, लेकिन कला और संस्कृति की नहीं, धार्मिक अनुष्ठानों और कर्मकांडों की. इस पर कोई गर्व करना चाहे तो कर सकता है.'

समीक्षकों की लठैती ने काशी का अस्सी को उपन्यास की श्रेणी में रखवा दिया है, पर यह अपने किस्म की अनूठी ही रचना है जिसमें संस्मरण है, गल्प है, यथार्थ है यानी कुल मिलाकर यह उपन्यास की शारीरिक रचना से दूर-दूर तक मेल नहीं खाती. यह पांच अलग-अलग हिस्सों वाली एक पुस्तक है और हर हिस्सा एक-दूसरे से बिलकुल अलहदा. द्विवेदी के सामने इसे आपस में पिरोकर फिल्म की शक्ल देने की दुरूह चुनौती थी और यही वह कला थी जिसमें द्विवेदी की अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन होना है और उनके शब्दों में इस चुनौती को पार कर लेने का आत्मविश्वास छलक-छलक जा रहा था- 'अभी तो मैं स्क्रिप्ट के संबंध में ज्यादा खुलासा नहीं करूंगा लेकिन फिल्म देखने के बाद आप कहने को मजबूर हों जाएंगे कि मैं भी काशीनाथ सिंहजी जैसा ही बढ़िया लेखक हूं.'

कई मायनों में मोहल्ला अस्सी व्यक्तियों का भी आदर्श मेल भी है. मसलन एक समय गया सिंह के तेजतर्रार रोल के लिए चुने गए सौरभ शुक्ला ने तारीखों की दिक्कत के चलते फिल्म छूटती देख उपाध्याय की अपेक्षाकृत छोटी भूमिका को करना भी स्वीकार कर लिया. सौरभ इसकी वजह बताते हैं, 'डॉक्टरसाब के साथ काम करने की तमन्ना लंबे अरसे से थी. चाणक्य में जब हमारी पूरी मंडली इनके साथ काम कर रही थी तब मैं चूक गया था क्योंकि उसी वक्त मैं दिल्ली से बॉम्बे पहुंचा था. बाद में भी कुछ न कुछ दिक्कतें आती रहीं. अब बीस साल बाद फिर से ये मौका हाथ आया जिसे मैं छोड़ना नहीं चाहता था.' फिल्म के सिनेमैटोग्राफर विजय अरोड़ा इस कड़ी में अगला नाम है. फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद इंडस्ट्री की मुंहमांगी कीमत पाने वाला यह सिनेमैटोग्राफर बिना पैसे के ही इस फिल्म में काम करने के लिए तैयार हो गया. विजय अरोड़ा के नाम वास्तव, दस, तुम बिन, जंगल, विरुद्ध, धमाल जैसी फिल्मों का रीलजगत रचने का कीर्तिमान है. यही बात फिल्म के प्रोड्यूसर विनय तिवारी के लिए भी कही जा सकती है जिन्होंने द्विवेदी के कहने पर एक ही रात में पूरा उपन्यास पढ़ डाला और अगली सुबह फिल्म प्रोड्यूस करने के लिए हामी भी भर दी.

फिल्म बनाना किताबें लिखने से कहीं ज्यादा जटिल और महंगा काम है. फिल्मी दुनिया के मौजूदा ढांचे में इसे सफल बनाने और हर व्यक्ति तक पहुंचाने की अपनी एक व्यवस्था है और इसका एक हिस्सा है स्टार सिस्टम. द्विवेदी की पहचान इस व्यवस्था से जूझने की रही है, लेकिन इस फिल्म में उन्होंने इस छवि से थोड़ा समझौता कर लिया है. वे बताते हैं, 'जिस समय हमने पिंजर बनाई थी तब दूसरी तरह का उत्साह था, उस तरह की समझ नहीं थी. हमें ये समझना होगा बाजार शक्तिशाली है और उससे लड़कर जीतना संभव नहीं है. और सिर्फ बाजार की मजबूरी में हम अपने मन के काम करना बंद नहीं कर सकते. थोड़ा-बहुत समझौते करने पड़ते हैं.' एक वाजिब सवाल था जो कइयों के मन में घूम रहा था, एक शहर और उसमें भी एक मोहल्ले की कहानी, उसका रहन-सहन क्या पूरे देश का ध्यान खींच पाएगी? इसकी व्यावसायिक सफलता की क्या उम्मीद है? और सनी देओल जैसे सुपरस्टार को धोती और मूंछों में लोग कितना स्वीकार करेंगे? जवाब खुद सनी देते हैं- 'मैं नहीं मानता कि कोई फिल्म बड़ी या छोटी होती है. मेरे मुताबिक बढ़िया कहानी, बढ़िया अभिनय और बढ़िया निर्देशन किसी कहानी को सफल बनाता है. जब मैंने दामिनी की थी उस वक्त भी मेनस्ट्रीम के एेक्टर ऐसी भूमिकाओं से बचते थे पर मैंने उसे किया. मैं हमेशा अपनी गटफीलिंग पर काम करता हूं.'

इतनी देसी भूमिका के लिए इरफान या नसीर जैसे कलाकारों की बजाय सनी क्यों? इस सवाल पर द्विवेदी कहते हैं, 'इस तरह के सवाल करते समय लोग सनी के 25 साल लंबे फिल्मी करियर और दो-दो राष्ट्रीय पुरस्कारों को भूल जाते हैं.' हम भी यही उम्मीद करते हैं कि दोनों की बात सच साबित हो.

अब थोड़ी-सी बात पंडिताइन बनी साक्षी तंवर की जिनके बारे में काशीनाथ सिंह ने पहला शॉट करते देखकर ही कह दिया था, 'यह पंडिताइन तो असली पंडिताइन जितनी ही ठसकदार है.' भारतीय टेलीविजन जगत में सास-बहू, ननद-भौजाई, देवरानी-जेठानी वाली परंपरा की जननी साक्षी पंडिताइन की भूमिका के लिए पहली पसंद थी. पूर्वांचली गिरस्तिन की भूमिका को पर्दे पर जीना पार्वती भाभी की चुनौती से कितना कठिन या सरल रहा, स्वयं साक्षी बताती हंै, 'महिलाओं की मानसिकता, उनकी सोच पूरी दुनिया में एक जैसी ही होती है. इस भूमिका के लिए मैंने अलग से कोई तैयारी नहीं की है, लेकिन अपनी मां को मैंने एक घरेलू महिला के रूप में जिस तरह से देखा है उसे ही अपनी भूमिका में उतारने की कोशिश करती हूं.'

काशी का अस्सी उस दौर की बानगी भी है जब विचार मंच पर था और बाजार नेपथ्य की चीज हुआ करता था. यह उस बनारस का प्रतिनिधित्व करती है जिसकी जड़ें संत कबीर और औघड़ बाबा कीनाराम रोप गए हैं, जहां आज भी रांड़, सांड़, साधू और संन्यासी से बचने की सलाह दी जाती है. किताब भी उन्हीं के अंदाज में बाजार, संप्रदाय, जाति और सियासी जोड़-तोड़ के खिलाफ लुकाठी लेकर खड़ी होती है. एक वाकया देखिए- 'यह है उनकी बुद्धि, एक लाला भाजपा से इसलिए नाराज है कि लालाओं के लिए वहां जगह नहीं और कहोगे कि मुलायम और कांशीराम जातिवाद कर रहे हैं. हम खिलाफ हैं तुम्हारे दोमुंहेपन के. तुमने कहा- सोनिया विदेशी है लेकिन जब कांग्रेस ने आडवाणी की गांड़ में डंडा किया कि वह भी विदेशी है तो कहना शुरू कर दिया सोनिया देशी हैं, विदेशी नहीं. इस तरह पहले कहा- काशी-मथुरा एजेंडा पर नहीं है, अब कह रहे हो कि अयोध्या में राम मंदिर बनेगा. कल फिर कहोगे कि नहीं, हम कोर्ट को नहीं मानते. साले कोई दीन ईमान है तुम्हारा?'

फिल्म इन मुद्दों से कैसे, कितना न्याय करेगी, और करेगी भी या नहीं! द्विवेदी बस इतना ही कहते हैं, 'विश्वास करो, कुछ भी छूटेगा नहीं.'

Comments

रोचक पोस्ट!
अब तो फ़िल्म का इंतजार है।
Anonymous said…
Prabhu!! Iss film ki deri me kuchh aur logon kaa bhi utna hee yogdaan hai, kripya unke sahyog par bhi prakash daalen, sirf mahanaayakon ki chaatukarita kar k aur nirmata ki bhartsana kar k kab tak apna jeevan yaapan karenge aap??
बेहतरीन तरीके से प्रवाहपूर्ण भाषा में लिखी आपकी पोस्ट काबिल-ए-तारीफ है। शुक्रिया।

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