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Showing posts from April, 2011

फिल्‍म समीक्षा : आई एम्...

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पहचान से जूझते किरदार -अजय ब्रह्मात्‍मज *इस फिल्म के लिए पैसे चंदे से जुटाए गए हैं। आई एम.. क्राउड फंडिंग से बनी भारत की पहली फिल्म है। ओनिर और संजय सूरी की मेहनत और कोशिश और एक्टरों के समर्थन से फिल्म तो बन गई। अब यह ढंग से दर्शकों के बीच पहुंच जाए तो बात बने। यहीं फिल्म के ट्रैडिशनल व्यापारी पंगा करते हैं। *आई एम .. लिंग, जाति, धर्म और प्रदेश से परे व्यक्ति के पहचान और आग्रह की फिल्म है। हम अपनी जिंदगी में विभिन्न मजबूरियों की वजह से खुद को एसर्ट नहीं करते। अपना आग्रह नहीं रखते और पहचान के संकट से बिसूरते रहते हैं। *आई एम.. में आशु उर्फ अभि (संजय सूरी) से सारे किरदार जुड़ते हैं, लेकिन वे एक कहानी नहीं बनते। नैरेशन का यह शिल्प नया और रोचक है। *आफिया, मेघा, अभिमन्यु और ओमर के जरिए ओनिर ने आधुनिक औरत के मातृत्व के आग्रह, कश्मीर से विस्थापित पंडित के द्वंद्व, सौतेले पिता के शारीरिक शोषण की पीड़ा और वैकल्पिक सेक्स की दिक्कतों के मुद्दों को संवेदनशील तरीके से चित्रित किया है। फिल्म में इन मुद्दों के ग्राफिक विस्तार में गए बिना ओनिर संकेतों और प्रतीकों में अपना मंतव्य रखते हैं। वे

फिल्‍म समीक्षा : शोर

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मुंबई की सेंट्रल लाइन के सपने -अजय ब्रह्मात्‍मज राज निदिमोरू और कृष्णा डीके की शोर छोटे स्केल पर बनी सारगर्भित फिल्म है। बाद में एकता कपूर के जुड़ जाने से फिल्म थोड़ी बड़ी दिखने लगी है। अगर इस फिल्म को एक बड़े निर्माता की फिल्म के तौर पर देखेंगे तो निराशा होगी। राज और कृष्णा की कोशिश के तौर पर इसका आनंद उठा सकते हैं। *हर फिल्म का अपना मिजाज और स्वरूप होता है। अगर दर्शकों के बीच पहुंचने तक वह आरंभिक सोच और योजना के मुताबिक पहुंचे तो दर्शक भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं। इधर एक नया ट्रेंड चल रहा है कि फिल्म बनती किसी और नजरिए से है और उसकी मार्केटिंग का रवैया कुछ और होता है। शोर ऐसे ही दो इरादों के बीच फंसी फिल्म है। *शोर में तीन कहानियां हैं। एक कहानी में विदेश से आया एक उद्यमी मुंबई में आकर कुछ करना चाहता है। दूसरी कहानी में मुंबई की सेंट्रल लाइन के उपनगर के तीन उठाईगीर हैं, जो कुछ कर गुजरने की लालसा में रिस्क लेते हैं। तीसरी कहानी एक युवा क्रिकेटर की है। तीनों कहानियों के किरदारों का साबका अपराध जगत से होता है। अपराधियों के संसर्ग में आने से उनकी सोच में तब्दीली आती

फिल्‍म समीक्षा : चलो दिल्‍ली

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-अजय ब्रह्मात्‍मज * मध्यवर्ग के मूल्य, आदर्श, प्रेम और उत्सवधर्मिता से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। चलो दिल्ली में निर्देशक शशांत शाह की यह कोशिश रंग लाई है। उन्होंने इस संदेश के लिए एक उच्चवर्गीय और एक मध्यवर्गीय किरदार के साथ जयपुर से दिल्ली का सफर चुना है। *मनु गुप्ता दिल्ली के चांदनी चौक के निवासी हैं। मनु गुप्ता की करोलबाग में लेडीज आयटम की दुकान है। वे गुटखे के शौकीन हैं और धारीदार अंडरवियर पहनते हैं। मिहिका बनर्जी मुंबई की एक कारपोरेट कंपनी की मालकिन हैं, जिनके अधीन 500 से अधिक लोग काम करते हैं। वह आधुनिक शहरी कारपोरेट कन्या हैं, जिनकी हर बात और काम में सलीका है। *बात तब बिगड़ती है, जब दोनों परिस्थितिवश एकही सवारी से जयपुर से दिल्ली के लिए निकलते हैं। मनु गुप्ता के लिए कोई भी घटना-दुर्घटना कोई बड़ी बात नहीं है, जबकि मिहिका बनर्जी हर बात पर भिनकती और झिड़कती रहती है। अलग-अलग परिवेश और उसकी वजह से भिन्न स्वभाव के दो व्यक्तियों का हमसफर होना ही हंसी के क्षण जुटाता है। *जयपुर से दिल्ली के सफर में कई ब्रेक लगते हैं। मनु और मिहिका को इलाके में प्रचलित हर सवारी का सहारा लेन

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (22अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 9 22 अप्रैल अखबार पढ़ने के लिए सुबह-सवेरे जगा। रिव्‍यू पढ़ने से पहले तनाव में हूं। स्‍वाति को जगाया। उसने नींद में ही पढ़ने की कोशिश की। मैं पेपर छीन लेता हूं। टाइम्‍स ऑफ इंडिया ने हमें 3 स्‍टार दिए हैं और अच्‍छी समीक्षा लिखी है। ठीक है, पर दिल चाहता है कि थोड़ा और होता। सुबह से नेट पर हूं। अपनी फिल्‍म के रिव्‍यू खोज रहा हूं। हालीवुड रिपोर्टर ने मिक्‍स रिव्‍यू दिया है, लेकिन कुल मिलाकर ठीक है। वैरायटी अमेरिकी फिल्‍म बाजार का बायबिल है। उसमें खूब तारीफ छपी है। और क्‍या चाहिए? भारतीय समीक्षाएं उतनी उदार नहीं हैं। कुछ तो बिल्‍कुल विरोधी हैं। इन सभी को पचाने में वक्‍त लगेगा। मैं थिएटर के लिए निकलता हूं। सस्‍ते थिएटर जेमिनी में 50 दर्शक हैं... ज्‍यादा नहीं है, पर शुक्रवार की सुबह के लिहाज से कम नहीं कहे जा सकते। इंटरवल और फिल्‍म खत्‍म होने के बाद हम कुछ बच्‍चों और उनके अभिभावकों से बातें करते हैं । उन्‍हें फिल्‍म पसंद आई है। चलो अभी तक ठीक है। हम पीवीआर फीनिक्‍स जाते हैं। 250 रुपए का टिकट है। ज्‍यादा दर्शक नहीं हैं, लेकिन बच्‍चे और उनकी मम्मियों को फिल्‍म

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (19 अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 8 19 अप्रैल हमलोग चंडीगढ़ में हैं। अपने दोस्‍त शक्ति सिद्धू के निमंत्रण पर सौपिन स्‍कूल आए हैं। हमारे स्‍वागत में बच्‍चों ने शानदार परफार्मेंस दिया। पहले गायन मंडली ‘ तारे जमीन पर ’ का टायटल ट्रैक गाती है। फिर एक विशेष बच्‍ची संस्‍कृति हमारे लिए शास्‍त्रीय नृत्‍य करती है... उसके चेहरे की खुशी और उसकी वजह से हमारी खुशी अतुलनीय है। अंत में छात्रों की एक मंडली ने ‘ जोकोमोन ’ का झुनझुनमकड़स्‍त्रामा गीत पेश करती है... उन्‍होंने सुंदर नृत्‍य भी किया। मैं शक्ति से मिलता हूं। स्‍कूल के स्‍थापक सौपिन परिवार के सदस्‍यों से भेंट होती है। मुझे स्‍कूल की अंतरंगता और ऊंर्जा अच्‍छी लगती है। स्‍कूल ने हमारे लिए भोज का आयोजन किया है। थोड़ी देर के लिए मैं भूल जाता हूं कि मैं प्रोमोशन के लिए आया हूं। हमलोग रेडियो और प्रिंट इंटरव्यू के लिए भास्‍कर के कार्यालय जाते हैं। पत्रकार दर्शील से कुछ मुश्किल सवाल पूछते हैं। स्‍टेनली का डब्‍बा के चाइल्‍ड आर्टिस्‍ट के बारे में उससे पूछा जाता है कि अगर उसने भारत के चाइल्‍ड स्‍टार की जगह ले ली तो उसे कैसा लगेगा? हमलोगों के किसी हस्‍तक्

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (18अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 7 18 अप्रैल हम दिल्‍ली निकलते हैं। आकाश से मुंबई झोंपड़पट्टियों का हुजूम लगती है। दुनिया में ऐसा कोई शहर नहीं है। भारत में भी नहीं है... मुंबई का आकाशीय दर्शन अवसाद से भर देता है। फिर भी यह देश के मनोरंजन उद्योग का केंद्र है। निश्चित ही यह महज संयोग नहीं हो सकता। हम नोएडा के एक स्‍कूल में जाते हैं। दर्शील को बच्‍चे घेर लेते हैं। मुझे भी बच्‍चों ने घेर लिया है... अजीब लगता है। बच्‍चे एकदम से अपरिचित चेहरे से ऑटोग्राफ मांग रहे हैं। मैं अब भीड़ की मानसिकता पर संदेह करने लगा हूं... खासकर स्‍कूलों की भीड़। रात में दोस्‍तों के साथ डिनर करता हूं। मेरा ड्रायवर मुझे नोएडा में छोड़कर निकल जाता है। अब मेरे दोस्‍त को डिनर के बाद 50 किलोमीटर की ड्रायविंग का आनंद उठाना होगा। किनारों पर लगे पेड़ों वाली चौड़ी सड़क, चौड़ा फुटपाथ, हर मोड़ पर फुलवारी... मेरी मुंबइया आंखों को दिल्‍ली किसी और देश का शहर लगता है। ट्रैफिक सिग्‍नल अभी तक काम कर रहे हैं, जबकि रात बारह से ज्‍यादा हो चुके हैं... सड़क पर कोई दूसरी सवारी नहीं है। फिर भी कारें ट्रैफिक सिग्‍नल पर रूक रही हैं। स्‍व

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (17 अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 6 17 अप्रैल हमलोगों ने कुछ रेडियो इंटरव्यू किए थे। वहीं सुन रहा था। एक आरजे की कोशिश थी कि किसी तरह कोई कंट्रोवर्सी मिल जाए – उसने दर्शील से पूछा ‘ क्‍या उसकी कोई गर्लफ्रेंड है? उसका नाम क्‍या है? क्‍या वह एटीट्यूड रखता है... सुन्‍न कर देने वाले सवाल। रेड एफएम की आरजे कंट्रोवर्सी के लिए गिरगिरा रही थी। तब मुझे झुंझलाहट हो रही थी। सुनते समय महसूस कर रहा हूं कि क्‍यों कंट्रोवर्सी से अच्‍छी मीडिया कवरेज मिलती है या यों कहें कि कंट्रोवर्सी के बगैर सुनने में ज्‍यादा मजा नहीं आता। रात में केतनव में स्‍क्रीनिंग है। केतनव प्रिव्‍यू थिएटर है। यह स्‍क्रीनिंग फिल्‍म इंडस्‍ट्री के दोस्‍तों और एक बच्‍चे के लिए है। मेरे प्रिय दोस्‍त करीम हाजी का बेटा है काशिफ, उसकी प्रतिक्रियाएं एकदम सटीक होती है। मैंने किसी स्‍क्रीनिंग में किसी बच्‍चे को इतने करीब से नहीं देखा। फिल्‍म खत्‍म होती है। काशिफ खुदा है। मैं राहत की सांस लेता हूं। अब 96 घंटे बचे हैं।

फिल्‍म समीक्षा : जोकोमोन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अपने चाचा देशराज की दया और सहारे पल रहे कुणाल को जब यह एहसास होता है कि वह भी ताकतवर हो सकता है और अपने प्रति हुए अन्याय को ठीक कर सकता है तो मैजिक अंकल की मदद से वह चाइल्ड सुपरहीरो जोकोमोन का रूप ले लेता है। सत्यजित भटकल की ईमानदार दुविधा फिल्म में साफ नजर आती है। वे कुणाल को चमत्कारिक शक्तियों से लैस नहीं करना चाहते। वे उसे साइंटिफिक टेंपर के साथ सुपरहीरो बनाते हैं। उन्होंने कुणाल के अंदरुनी ताकत को दिखाने के लिए कहानी का पारंपरिक ढांचा चुना है। एक लालची और दुष्ट चाचा है, जो अपनी पत्नी की सलाह पर कुणाल से छुटकारा पाकर उसके हिस्से की संपत्ति हड़पना चाहता है। अपनी साजिश में वह गांव के पंडित का सहयोग लेता है। वह अंधविश्वास पर अमल करता है। जोकोमोन बने कुणाल की एक कोशिश यह भी कि वह अपने गांव के लोगों को अंधविश्वास के कुएं से बाहर निकाले। चाचा को तो सबक सिखाना ही है। इन दोनों कामों में उसे मैजिक अंकल की मदद मिलती है। मैजिक अंकल साइंटिस्ट हैं। वे साइंस के सहारे कुणाल के मकसद पूरे करते हैं। सत्यजित भटकल की तारीफ करनी होगी कि बच्चों के मनोरंजन के उद्देश्य स

फिल्‍म समीक्षा : दम मारो दम

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पुराना कंटेंट, नया क्राफ्ट -अजय ब्रह्मात्‍मज निर्देशक और अभिनेता की दोस्ती और समझदारी से अच्छी फिल्में बनती हैं। दम मारो दम भी अच्छी है, अगर अभिषेक बच्चन की पिछली फिल्मों की पृष्ठभूमि में देखें तो दम मारो दम अपेक्षाकृत अच्छी फिल्म है। रोहन सिप्पी ने अभिषेक बच्चन का बेहतर इस्तेमाल किया है। अन्य फिल्मों की तरह यहां वे बंधे, सिकुड़े, सिमटे और सकुचाए नहीं दिखते। स्क्रिप्ट की अपनी सीमा में उन्होंने निखरा प्रदर्शन किया है। उन्हें सहयोगी कलाकारों का अच्छा साथ मिला है। इसके बावजूद यह फिल्म कई स्तरों पर निराश करती है। दम मारो दम माडर्न मसाला फिल्म है, जिसमें पुराने फार्मूले की छौंक भर है। फिल्म में तीन मुख्य किरदार हैं, जो वास्तव में एक ही कहानी के हिस्से हैं। तीन कहानियों को एक कहानी में समेटने की संरचना अलग होती है। इस फिल्म में एक ही कहानी को टुकड़ों में बांट कर फिर से बुना गया है। लेखक और निर्देशक की कोशिश इसी बहाने क्राफ्ट में कमाल दिखाने की हो सकती है, लेकिन अगर यह विष्णु कामथ की सीधी कहानी के तौर पर पेश की जाती तो प्रभावशाली होती। विष्णु कामथ अपनी जिंदगी में सब कुछ खो चुका

भौमिक होने का मतलब

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले मंगलवार को अचानक एक पत्रकार मित्र का फोन आया कि सचिन भौमिक नहीं रहे। इस खबर ने मुझे चौंका दिया, क्योंकि मैंने सोच रखा था कि स्क्रिप्ट राइटिंग पर उनसे लंबी बातचीत करनी है। पता चला कि वे बाथरूम में गिर गए थे। वे अस्पताल में थे। वहां से लौटे तो फिर तबियत बिगड़ी और वे दोबारा काम पर नहीं लौट सके। उनके सभी जानकार बताते हैं कि वे लेखन संबंधी किसी भी असाइनमेंट के लिए तत्पर रहते थे। उनकी यह तत्परता दूसरों की मदद में भी दिखती थी। सचिन भौमिक ने प्रचुर लेखन किया। पिछले पचास सालों में उन्होंने लगभग 135 फिल्में लिखीं। इनके अलावा अनगिनत फिल्मों के लेखन में उनका सहयोग रहा है। हर युवा लेखक की स्क्रिप्ट वे ध्यान से सुनते थे और जरूरी सलाह देते थे। एक जानकार बताते हैं कि उन्होंने दर्जनों स्क्रिप्ट दूसरों के नाम से लिखी या अपनी स्क्रिप्ट औने-पौने दाम में बेच दी। सचिन भौमिक की यह विशेषता थी कि वे किसी भी फिल्म के लेखन में ज्यादा समय नहीं लगाते थे। उनका ध्येय रहता था कि हाथ में ली गई फिल्म जल्दी से पूरी हो जाए तो अगली फिल्म का लेखन आरंभ करें। वे चंद ऐसे लेखकों में शुमार थे, जिनके पास

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (16 अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 5 16 अप्रैल 2011 एक हफ्ते के अंदर फिल्‍म रिलीज होगी। पिछली रात फोन आया कि होर्डिंग लग गए हैं। स्‍वाति मुझे और बच्‍चों से कहती है कि हमलोग चलें और बांद्रा वेस्‍ट में लगी होर्डिंग देख कर आए। शाम का समय है और सड़क पर भारी ट्रैफिक है, लेकिन बच्‍चे उत्‍साहित हैं। मेरी बेटी आलो अपना नया कैमरा ले लेती है और हम निकलते हैं। सड़क पर भारी ट्रैफिक है। मेरा बेटा निशांत कार्टर रोड पर बॉस्किन रॉबिंस आइस्‍क्रीम, डूनट आदि खाने की फरमाईश करता है... तर्क है कि हमें सेलिब्रेट करना चाहिए। सड़क की ट्रैफिक में कार के अंदर बहस चल रही है कि होर्डिंग देखने के बाद हम किस आइस‍क्रीम पार्लर जाएंगे। 20वें मिनट पर मैं किसी सुपरहीरो की तरह उड़़ कर होर्डिंग तक पहुंच जाना चाहता हूं। उसे लगा देना चाहता हूं। काश ! ट्रैफिक की भीड़ और कार में प्रतिद्वंद्वी आइस्‍क्रीम पार्लरों पर चल रही बच्‍चों की बहस की गर्मी के बावजूद होर्डिंग की पहली झलक का जादुई असर होता है। सुंदर तरीके से डिजायन की गई होर्डिंग बस स्‍टाप पर लगी है। ‘ बैकलिट ’ रोशनी से चमकीला प्रभाव पड़ रहा है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुझे कभी इ

एक्शन फिल्म है दम मारो दम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज रोहन सिप्पी और अभिषेक बच्चन का साथ पुराना है। 'कुछ न कहो', 'ब्लफ मास्टर' के बाद 'दम मारो दम' उनकी तीसरी फिल्म है। 'दम मारो दम' के बारे में बता रहे हैं रोहन सिप्पी दम मारो दम एक सस्पेंस थ्रिलर है, जिसमें अभिषेक बच्चन पुलिस अधिकारी की भूमिका निभा रहे हैं। उनके साथ प्रतीक बब्बर और राणा दगुबटी भी हैं। फिल्म में बिपाशा बसु की खास भूमिका है, जबकि दीपिका पादुकोण सिर्फ एक गाने में दिल धड़काती दिखेंगी। 'दम मारो दम' को कॉप स्टोरी कह सकते हैं, लेकिन यह एक सस्पेंस थ्रिलर है। हमने एक नई कोशिश की है। फिल्म में तीन कहानिया हैं, जो एक दूसरे से गुंथी हुई हैं। पहली कहानी प्रतीक की है। वह स्टुडेंट है। एक खास मोड़ पर लालच में वह गलत फैसला ले लेता है। उसकी भिड़ंत एसीपी कामत से होती है। फिर अभिषेक की कहानी आती है। वह एक इंवेस्टीगेशन के सिलसिले में बाकी किरदारों से टकराता है। तीसरी कहानी में राणा और बिपाशा की लव स्टोरी है। राणा भी अभिषेक के रास्ते में आता है। हमारी कहानी पूरी तरह से फिक्शनल है। खूबसूरती की वजह से हमने गोवा की पृष्ठभूमि रखी। गोवा की छव

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (13 अप्रैल)

डायरेक्‍टर डायरी – 4 13 अप्रैल 2011 कल थोड़ा आराम था। ‘ जोकोमोन ’ के प्रोमोशन के लिए नहीं निकलना था,केवल एक-दो इंटरव्यू हुए टेलीफोन पर। सुबह-सवेरे अंधेरी में स्थित ईटीसी स्‍टूडियो पहुंचे। दर्शील के पास बताने के लिए बहुत कुछ था। टीवी शो ‘ कॉमेडी सर्कस ’ की शूटिंग के किस्‍से...। उससे पूछा गया कि दूसरे सुपरहीरो और उसमें क्‍या अंतर है? उसने चट से जवाब दिया, ‘ मैं अपने कॉस्‍ट्यूम के ऊपर से चड्ढी नहीं पहनता। ’ ‘ और अंदर? ’ सवाल पूछा गया। दर्शील की हंसी रूकने में एक मिनट लगा। ईटीसी के बाद हमलोग जुहू के एक होटल गए। वहां इलेक्‍ट्रानिक मीडिया के सारे इंटरव्यू थे। बैंक्‍वेट रूम में कैमरामैन (सभी पुरुष) एंकर (लगभग सभी लड़कियां) भरे थे। मैं कोई शिकायत नहीं कर रहा हूं। लेकिन टीवी चैनल केवल खूबसूरत लड़कियों को ही क्‍यों चुनते हैं? चैनलों ने परिचित सवाल पूछे – चिल्‍ड्रेन फिल्‍म ही क्‍यों? सुपर‍हीरो की फिल्‍में भारत में नहीं चलतीं, फिर भी सुपर‍हीरो की की फिल्‍म ही क्‍यों? ज्‍यादातर सवाल फिल्‍म की सफलता की संभावनाओं को लेकर होते हैं। जवाब देते समय मैंने महसूस किया कि लिखते समय तो

बचकानी क्यों हो बच्चों की फिल्म- सत्‍यजित भटकल

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- अजय ब्रह्मात्‍मज /रघुवेन्द्र सिंह सत्यजित भटकल पेशेवर वकील थे। आमिर खान ने बचपन के अपने इस मित्र को लगान फिल्म की निर्माण टीम में शामिल किया और सत्यजित की सिनेमा से घनिष्ठता बढ़ती गई। सत्यजित ने लगान फिल्म की मेकिंग पर द स्पिरिट ऑफ लगान पुस्तक लिखी, जो बहुत सराही गई। दर्शील सफारी अभिनीत जोकोमोन सत्यजित भटकल की निर्देशक के तौर पर पहली कामर्शियल फिल्म है जिसमें कहानी है चाइल्ड सुपरहीरो की। 'जोकोमोन' फिल्म का बीज कैसे पड़ा? इसका मुख्य किरदार कुणाल नाम का लड़का है, जिसे दर्शील सफारी प्ले कर रहे हैं। कुणाल अनाथ है। वह चाचा के पास रहता है। अपने स्वार्थ के लिए चाचा बड़े शहर ले जाकर छोड़ देते हैं। वह अकेला महसूस करता है। उसकी केयर करने वाला कोई नहीं है। उस परिस्थिति में वह अपनी स्ट्रेंथ को डिस्कवर करता है। किसी भी इंसान की कमजोरी उसकी लाइफ की सबसे बड़ी स्ट्रेंथ बन सकती है। इस विचार से बीज पड़ा कि क्या होगा, अगर वह लड़का अपनी कमजोरी को ताकत बना ले। क्या हम इसे पूरी तरह से बाल फिल्म कह सकते हैं? जी नहीं। पूरी तरह से भी नहीं और आधी तरह से भी नहीं। मुझे आपत्ति है बाल फिल्म कहने से। कुछ प

बातचीत में आत्‍मकथा ए आर रहमान की

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-अजय ब्रह्मात्‍मज इंटरनेट पर अलग-अलग जानकारियां पढ़ने को मिल जाएंगी कि उनका नाम एआर रहमान कैसे पड़ा और पर्दे की दुनिया से उनके जीवन की सच्ची कहानी क्या है? रहमान बताते हैं कि सच है कि अपना यह नाम उन्हें कभी पसंद नहीं आया और उन्हें इसका कारण भी नहीं मालूम? वह बताते हैं कि बस मुझे अपने नाम की ध्वनि अच्छी नहीं लगती थी। उनके मुताबिक महान अभिनेता दिलीप कुमार के प्रति उनका कोई अनादर नहीं है। उन्हें लगता था कि उनकी खुद की छवि के अनुरूप उनका नाम नहीं था। सूफी मत का अनुकरण करने से कुछ समय पहले वह लोग एक ज्योतिषी के पास बहन की जन्मपत्री लेकर गए थे, क्योंकि मां उसकी शादी कर देना चाहती थी। यह उसी समय की बात है, जब वह अपना नाम बदलना चाहते थे और इस बहाने एक नई पहचान पाना चाहते थे। ज्योतिषी ने उनकी तरफ देखा और कहा, इस व्यक्ति में कुछ खास है। उन्होंने अब्दुल रहमान और अब्दुल रहीम नाम सुझाया और कहा कि दोनों में से कोई भी नाम उनके लिए बेहतर रहेगा। उन्हें रहमान नाम एकबारगी में पसंद आ गया। यह भी एक संयोग ही था कि एक हिंदू ज्योतिषी ने उन्हें यह मुस्लिम नाम दिया था। फिर उनकी मां चाहती थी कि वह अपने नाम में

पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे-लारा दत्‍ता

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-अजय ब्रह्मात्‍मज लारा दत्ता के जीवन में उत्साह का संचार हो गया है। हाल ही में महेश भूपति से उनकी शादी हुई है। 16 अप्रैल को उनका जन्मदिन था और इसी महीने 29 अप्रैल को उनके प्रोडक्शन हाउस भीगी बसंती की पहली फिल्म 'चलो दिल्ली' रिलीज हो रही है। उनसे बातचीत के अंश- इस सुहाने मोड़ पर कितने सुकून, संतोष और जोश में हैं आप? हर इंसान की जिंदगी में कभी न कभी ऐसा मोड़ आता है, जब वह खुद को सुरक्षित और संतुष्ट महसूस करता है। मैं अभी उसी मोड़ पर हूं। एक औरत होने के नाते कॅरिअर के साथ यह टेंशन बनी रहती है कि शादी तो करनी ही है। वह ठीक से हो जाए। लड़का अच्छा हो। ग्लैमरस कॅरिअर में आने से एक लाइफस्टाइल बन जाती है। हम खुद के लिए उसे तय कर लेते हैं। कोशिश रहती है कि ऐसा लाइफ पार्टनर मिले, जो साथ चल सके। मैं अभी बहुत खुश हूं। मेरी शादी एक ऐसे इंसान से हुई है, जो मुझे कंट्रोल नहीं करता। मेरे कॅरिअर और च्वाइस में उनका भरपूर सपोर्ट मिलता है। अभी लग रहा है कि मैं सब कुछ हासिल कर सकती हूं। मेरा ऑब्जर्वेशन है कि आपने टैलेंट का सही इस्तेमाल नहीं किया या यों कहें कि फिल्म इंडस्ट्री ने आप को वाजिब मौके नहीं

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (10 अप्रैल)

10 अप्रैल अगला पड़ाव पुणे है। बिग सिनेमा में दर्शील को देखने भारी भीड़ आ गई है। उसे सभी ने घेर लिया है। एक स्‍टार का पुनर्जन्‍म हुआ है। मेरे खयाल में प्रेस कांफ्रेंस ठीक ही रहा। ज्‍यादातर मेरी मातृभाषा मराठी में बोल रहे थे। दर्शील और मंजरी भी मराठी बोलते हैं। मंजरी पुणे से है। खास रिश्‍ता है। प्रेस कांफ्रेंस में फिल्‍म से संबंधित सवालों के जवाब देने के अवसर मिलते हैं। बड़ा सवाल है – चिल्‍ड्रेन फिल्‍म ही क्‍यों? ‘ जोकोमोन ’ बच्‍चों के लिए है, लेकिन केवल बच्‍चों के लिए नहीं है। आयटम नंबर नहीं होने, हिंसा नहीं होने और द्विअर्थी संवादों के नहीं होने से किसी फिल्‍म के दर्शक सिर्फ बच्‍चे नहीं हो सकते। दरअसल, ऐसा होने पर मां-बाप और दादा-दादी या नाना-नानी भी अपने बच्‍चों के साथ ऐसी फिल्‍मों का बेझिझक आनंद उठा सकते हैं, जो कि आयटम नंबर आ जाने पर थोड़ा कम हो जाता है। हमने अपनी टेस्‍ट स्‍क्रीनिंग में देखा कि बड़े भी बच्‍चों की तरह फिल्‍म देख कर खुश हो रहे थे। दूसरा सवाल – कोई वयस्‍क दर्शक मुख्‍य भूमिका में बच्‍चे को क्‍यों देखना चाहेगा? बच्‍चे के नायक बनने का मुद्दा इस वजह से

फिल्‍म समीक्षा : 3 थे भाई

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-अजय ब्रह्मात्‍मज किसी फिल्म में रोमांस का दबाव नहीं हो तो थोड़ी अलग उम्मीद बंधती है। मृगदीप सिंह लांबा की 3 थे भाई तीन झगड़ालु भाइयों की कहानी है, जिन्हें दादाजी अपनी वसीयत की पेंच में उलझाकर मिला देते हैं। किसी नीति कथा की तरह उद्घाटित होती कथानक रोचक है, लेकिन भाषा, कल्पना और बजट की कमी से फिल्म मनोरंजक नहीं हो पाई है। चिस्की, हैप्पी और फैंसी तीन भाई है। तीनों के माता-पिता नहीं हैं। उन्हें दादाजी ने पाला है। दादाजी की परवरिश और प्रेम के बावजूद तीनों भाई अलग-अलग राह पर निकल पड़ते हैं। उनमें नहीं निभती है। दादा जी एक ऐसी वसीयत कर जाते हैं, जिसकी शर्तो को पूरी करते समय तीनों भाइयों को अपनी गलतियों का एहसास होता है। उनमें भाईचारा पनपता है और फिल्म खत्म होती है। नैतिकता और पारिवारिक मूल्यों का पाठ पढ़ाती यह फिल्म कई स्तरों पर कमजोर है। तीनों भाइयों में हैप्पी की भूमिका निभा रहे दीपक डोबरियाल अपनी भूमिका को लेकर केवल संजीदा हैं। उनकी ईमानदारी साफ नजर आती है। ओम पुरी लंबे अनुभव और निरंतर कामयाबी के बाद अब थक से गए हैं। उनकी लापरवाही झलकने लगती है। श्रेयस तलपडे को मिमिक्री का

डायरेक्‍टर डायरी : सत्‍यजित भटकल (९ अप्रैल)

9 अप्रैल 2011 11am हम इंदौर आ गए हैं। ‘जोकोमन’ के प्रोमोशन के लिए मेरे साथ मंजरी और दर्शील इंदौर में हैं। हम सभी एमेरल्‍ड हाइट स्‍कूल आए हैं। बड़े शहर वाले गहरी सांस लेते हैं। ऐसा स्‍कूल नहीं देखा। 200 एकड़ की जमीन में फैला स्‍कूल, मैदान, स्‍वीमिंग पुल, क्रिकेट के मैदान, किले की डिजायन में बनी इमारते... बेचारी मुंबई... निर्धन मुंबई। 200 बच्‍चे आदर के साथ खड़े हैं। वाह... बच्‍चों को क्‍या हो गया है? हम उनके आधे भी अनुशासित नहीं थे। ‘जोकोमन’ के गीत पर स्‍कूल के बच्‍चे जोश के साथ नाचते हैं (मेरी लालची आंखों में ऐसे और भी दृश्‍य उभरते हैं) ... एक निर्देशक को और क्‍या चाहिए। दर्शील उनसे मिलता है। हाथ मिलाता है। तस्‍वीरें उतारी जाती हैं। मुझे दर्शील की नैसर्गिक और संतुलित सरलता अच्‍छी लगती है। वह दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करता। 3pm हमलोग लोकल रेडियो स्‍टेशन माय एफएम आए हैं। मंजरी का माइक गिर जाता है। रेडियो जौकी मजाक करता है, ‘मैम, माइक भी आप पर फिसल रहा है।’ मंजरी खुश है। एक्‍टर एक्‍टर ही रहेंगे। 6pm हम एक बड़े मॉल में आए हैं। भारी भीड़ जमा है। दर्शील के फैन की भीड़ है। एमस

जान भी लो यारो

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अभी मैं भ्रष्टाचार को आड़े हाथों लेती फिल्म जाने भी दो यारों की बातें कर रहा हूं। इस फिल्म पर केंद्रित पुस्तक जय अर्जुन सिंह ने लिखी है। सामान्य रूप से फिल्म प्रेमियों और विशेष रूप से जाने भी दो यारों के प्रशंसकों के लिए यह रोचक पाठ है। 12 अगस्त, 1983 को जाने भी दो यारों रिलीज हुई थी। तब से यह फिल्म दर्शकों को हंसाती आ रही है। आज की हास्य (कॉमेडी) फिल्मों की तरह इसमें नॉनसेंस, वल्गर और फिजिकल कॉमेडी नहीं है। जाने भी दो यारों अपने समय की सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। यह फिल्म मुंबई की पृष्ठभूमि में बिल्डर, कानून के रक्षक, उच्च अधिकारी और मीडिया की मिलीभगत से चल रहे भ्रष्ट तंत्र को उजागर करती है। फिल्म में एक गहरा संदेश है, लेकिन उसे उपदेश की तरह नहीं पेश किया गया है। यही कारण है कि फिल्म हंसाने के साथ चोट भी करती है। 18 सालों के बाद भी इस फिल्म का प्रभाव कम नहीं हुआ है। अफसोस की बात है कि हिंदी में दोबारा ऐसी फिल्म नहीं बनी। जय अर्जुन सिंह ने पूरे मन जाने भी दो यारों की मेकिंग की जानकारियां बटोरी हैं और उन्हें रोचक तरीके से फिल्मी पटकथा की तरह पेश किया है। यह पुस्तक फिल्म निर्मा

डायरेक्टर डायरी-सत्‍यजित भटकल

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सत्यजित भटकल... ‘ जोकोमन ’ के निर्देशक। 'जोकोमन' 22 अप्रैल को रिलीज हो रही है।रिलीज के पहले वे अपनी डायरी लिख रहे हैं। ‘ जोकोमन ’ उनकी पहली फीचर फिल्म है। इसके पहले उन्होंने ‘ चले चलो ’ नाम से ‘ लगान ’ की मेकिंग पर फिल्म बनाई थी। उन्होंने ‘ लगान ’ की मेकिंग पर ‘ द स्पिरिट ऑफ लगान ’ पुस्तक लिखी थी। satyabhatkal@gmail.com शुक्रवार - 8 अप्रैल 8 am अनिद्रा से जागा... क्या सचमुच ऐसी कोई नींद होती है ? शाम में परिवार और फिल्म के कलाकारों एवं तकनीशियनों के लिए ‘ जोकोमन ’ की स्क्रीनिंग है। असामान्य समूह है। मेरी मौसी , काका , चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहन और फिल्म बिरादरी... जिनके बारे में... बहरहाल! फिल्म बनाना अलग काम है... ‘ मैं फिल्म निर्देशित कर रहा हूं ’ कहने-सुनने में एक उत्साह रहता है , लेकिन अपनी फिल्म के लिए मूल्यांकित होना... मैं भयभीत हूं। भयभीत होने पर जो करता हूं , वही कर रहा हूं। स्वाति पर चिल्लाता हूं... सभी घर से दुखी होकर निकले हैं... नम आंखों से चुप... वे समझ रहे हैं - बेचारा... इसने फिल्म बनाई है। अब मैं ठीक हूं और अकेला 2 pm प्रचार संबंधी कार्यक्रम