फिल्‍म समीक्षा : मोनिका

मोनिका: मौजूं  विषय पर ईमानदार कोशिश-अजय ब्रह्मात्‍मज

इस फिल्म की कथाभूमि लखनऊ है। मोनिका और चंद्रकांत पंडित हमें भोपाल, पटना, देहरादून और जयपुर में भी मिल सकते हैं। हर प्रदेश में मोनिका और चंद्रकांत पंडित की कहानियां हैं। किसी प्रदेश में मोनिका का नाम मनीष भी हो सकता है। तात्पर्य यह कि लेखक-निर्देशक सुषेन भटनागर ने एक मौजूं विषय पर फिल्म बनाई है। पत्रकार की महत्वाकांक्षा और राजनीतिज्ञों द्वारा उनके इस्तेमाल की कहानियों में अक्सर राजनीतिज्ञों का खलनायक की तरह चित्रित किया जाता है। मोनिका को ही गौर से देखें तो मोनिका की मनोग्रंथि और महत्वाकांक्षा ही उसे राजनीतिक शिकंजे में ले जाती है और इस्तेमाल होने के लिए तैयार करती है। हमें इस कड़वे सच केदूसरे पक्ष को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।

मध्यवर्गीय परिवार की मोनिका की महत्वाकांक्षाएं परिवार और लखनऊ जैसे शहर से बड़ी हो जाती हैं। उसकी इस कमजोरी को स्वार्थी राजनीतिज्ञ, संपादक और बिजनेस घराने के लोग ताड़ जाते हैं। वे उसकी मेधा का दुरूपयोग करते हैं। मोनिका एक-दो दफा अपनी सामान्य जिंदगी में लौटना भी चाहती है, लेकिन तब तक इतनी देर हो चुकी है कि उसका असहाय पति भी उसकी मदद नहीं कर पाता। सुषेन भटनागर ने सरल तरीके से राजनीति, मीडिया और इंडस्ट्री के काले व्यूह को उजागर करने की कोशिश की है। उनकी यह सरलता ही फिल्म को सामान्य बना देती है और एक मजबूत संभावना को कमजोर कर देती है। उन्होंने मोनिका के लिए जो नैरेटिव चुना है, वह इस कहानी का उलझाता है। कोर्ट रूम को मंच बना कर फ्लैश बैक में लाया गया वृतांत फिल्म की गति में स्पीड ब्रेकर का काम करता है।

सुषेन भटनागर की शिल्पगत कमियों के बावजूद कथ्य और अभिनय के लिहाज से यह फिल्म उल्लेखनीय है। मोनिका सीमित संसाधनों में उनकी एक ईमानदार कोशिश है। प्रोडक्शन की कमियों को सुषेन भटनागर ने आशुतोष राणा और दिव्या दत्ता के अभिनय से पूरा किया है। दोनों के दमदार अभिनय में नाटकीयता दिख सकती है,लेकिन यह भी एक शैली है। हिंदी के पारंपरिक सिनेमा में दर्शक ऐसे अभिनय के आदी रहे हैं। आशुतोष राणा ने चंद्रकांत पंडित के छद्म और छल को अच्छी तरह आत्मसात किया है। दिव्या दत्ता मोनिका के द्वंद्व और दुविधा को बढ़ी सीमा तक व्यक्त करती है। अपने एकाकी दृश्यों में वह अतिरिक्त मेहनत करती हैं, जो कई बार ज्यादा और अनुचित लगता है। सहयोगी कलाकारों में मोनिका के पति राज की भूमिका रजित कपूर नहीं जंचे हैं। शेष कलाकारों की संजीदगी फिल्म को मजबूत करती है। अंत में फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर दृश्यों के प्रभाव को नहीं बढ़ा पाता। फिल्म का यह एक कमजोर पक्ष है।

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