दिब्येन्दु को मिली पहचान

दिब्येन्दु को मिली पहचान


दिब्येन्दु को मिली पहचानयह तय था कि सिद्धार्थ श्रीनिवासन की फिल्म पैरों तले का व‌र्ल्ड प्रीमियर टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में होगा। इस फिल्म में दिब्येन्दु भट्टाचार्य शीर्ष भूमिका में हैं। उन्होंने दीन-हीन चौकीदार का रोल बखूबी निभाया है, जो मौका आने पर उठ खड़ा होता है। वह जाहिर करता है कि सालों की गुलामी के बावजूद उसके अंदर का इंसान जिंदा है, जो अच्छे-बुरे और सच्चे-झूठे के बीच का फर्क जानता है।

पैरों तले ने दिब्येन्दु को इंटरनेशनल पहचान दी है। टोरंटो में भारत की चार फिल्मों में से एक पैरों तले को फिल्म फेस्टिवल के दर्शकों ने खूब सराहा और दिब्येन्दु के स्वाभाविक अभिनय की तारीफ की। इंटरनेशनल समीक्षकों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि इतने उम्दा ऐक्टर की भारत में कोई खास पहचान नहीं है। एनएसडी से स्नातक दिब्येन्दु भट्टाचार्य ने मानसून वेडिंग से फिल्मों में काम आरंभ कर दिया था। मीरा नायर की उस फिल्म में वे चंद सेकेंड के लिए दिखे थे। इस फिल्म के अनुभव के बाद ही उन्होंने फिल्मों में आने का इरादा किया और फिर मुंबई आए। राजपाल यादव के सहपाठी रहे दिब्येन्दु ने मुंबई आने में थोड़ी देर की और उनका करियर भी धीमी गति से आगे बढ़ा। वे हिंदी फिल्मकारों के पूर्वाग्रह और धारणाओं के शिकार रहे। फिर भी वे निराश नहीं हुए और उन्होंने अपनी यात्रा जारी रखी। कहना मुश्किल है कि पैरों तले की इंटरनेशनल पहचान के बाद भी उन्हें कॉमर्शियल हिंदी फिल्में मिल पाएंगी या नहीं? हिंदी फिल्मों में काम पाने की शर्ते बिल्कुल अलग होती हैं। मुंबई आने के बाद उन्होंने छोटी-बड़ी अनेक फिल्मों में काम किया। उनके हुनर से प्रभावित फिल्मकारों ने हमेशा उन्हें बड़ी भूमिकाओं के लिए आश्वस्त किया, लेकिन छोटी भूमिकाएं देकर फुसलाते रहे। फिर भी उन्होंने कोई शिकायत नहीं की। वे कभी टीवी सीरियल, तो कभी कारपोरेट फिल्मों से खुद को संतुष्ट करते रहे। उन्होंने काम पाने की कोशिश में प्रशिक्षित अभिनेता की गरिमा को ताक पर नहीं रखा। कई फिल्मकारों से पैसे और रोल के मुद्दे पर उनकी अनबन हो गई। उनकी फिल्में छूट गई, लेकिन उन्होंने समझौता करना जरूरी नहीं समझा। आत्मविश्वास के धनी दिब्येन्दु को फिल्में मिलती रहीं, फिर भी वे हिंदी फिल्मों के कॉमर्शियल सीन से गायब रहे। इस वजह से दर्शकों के बीच उनकी पहचान नहीं बन पाई।

कोलकाता निवासी दिब्येन्दु का रंग गहरा सांवला है। कई फिल्मकारों ने ऑफ रिकॉर्ड कहा है कि अगर उनका रंग थोड़ा साफ होता। उनका कद पांच फीट छह इंच से ज्यादा होता और वे बांग्लाभाषी नहीं होते, तो उनके पास अनेक फिल्में होतीं। उनकी अभिनय क्षमता में भरोसा रखने पर भी ये फिल्मकार उन्हें काम नहीं दे पाते, क्योंकि उन्हें भी हिंदी फिल्मों के बने-बनाए सेटअप में काम करना पड़ता है। हिंदी फिल्मों के सभी कलाकारों के लिए जरूरी हो गया है कि उनका रंग गोरा और कद-काठी खास किस्म की हो। कौन कहता है कि भारत में सभी को रोजगार और काम के समान अवसर मिलते हैं? अभिनेता होने की सामान्य शर्त से अलग होने पर केवल युक्तियों, संयोगों और अवसर से फिल्में मिल पाती हैं। उनमें राजपाल यादव जैसे अपवाद भी होते हैं, जो अपनी शारीरिक बनावट को ही विशेषता बना कर एक नई जगह बना लेते हैं।

हिंदी फिल्में तेजी से बदल रही हैं। पैरेलल सिनेमा की तरह वास्तविक फिल्मों की समांतर दुनिया विकसित हो रही है। ऐसी फिल्मों में भिन्न किस्म के नेचुरल अभिनेताओं को काम मिल रहा है। दिब्येन्दु की पैरों तले ऐसी ही फिल्म है। ऐसी फिल्मों को सामान्य दर्शक नहीं मिल पाते, क्योंकि वितरकों और प्रदर्शकों का हुजूम ऐसी फिल्मों में स्टार वैल्यू नहीं देख पाता। अभी तक ऐसी छोटी और वास्तविक फिल्मों का प्रदर्शन आम नहीं हो पाया है। आम दर्शकों के बीच पहचान हासिल करने में उन्हें अभी वक्त लगेगा। टोरंटो में मिली तारीफ के बाद दिब्येन्दु ने बताया कि कुछ विदेशी फिल्मकारों ने उनके काम में इंटरेस्ट दिखाया है। वे इन दिनों टोरंटो शहर में ही इंटरनेशनल स्तर पर बन रही एक फिल्म की शूटिंग कर रहे हैं। दिब्येन्दु मानते हैं, सच्चे कलाकारों को देर-सवेर काम जरूर मिलता है।



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