फिल्‍म समीक्षा : पीपली लाइव

- अजय ब्रह्मात्‍मज

अनुषा रिजवी की जिद्दी धुन और आमिर खान की साहसी संगत से पीपली लाइव साकार हुई है। दोनों बधाई के पात्र हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के तौर-तरीके से अपरिचित अनुषा और फिल्म इंडस्ट्री के उतने ही सधे जानकार आमिर... दोनों के परस्पर विश्वास से बगैर किसी दावे की बनी ईमानदार पीपली लाइव शुद्ध मनोरंजक फिल्म है। अब यह हमारी संवेदना पर निर्भर करता है किहम फिल्म में कितना गहरे उतरते हैं और कथा-उपकथा की कितनी परतों को परख पाते हैं। अगर हिंदी फिल्मों के फार्मूले ने मानसिक तौर पर कुंद कर दिया है तो भी पीपली लाइव निराश नहीं करती। हिंदी फिल्मों के प्रचलित फार्मूले, ढांचों और खांकों का पालन नहीं करने पर भी यह फिल्म हिंदी समाज के मनोरंजक प्रतिमानों को समाहित कर बांधती है।

ऊपरी तौर पर यह आत्महत्या की स्थिति में पहुंचे नत्था की कहानी है, जो एक अनमने फैसले से खबरों के केंद्र में आ गया है। फिल्म में टिड्डों की तरह खबरों की फसल चुगने को आतुर मीडिया की आक्रामकता हमें बाजार में आगे रहने के लिए आवश्यक तात्कालिकता के बारे में सचेत करती है। पीपली लाइव मीडिया, पालिटिक्स, महानगर और प्रशासन को निशाना नहीं बनाती। यह सिर्फ अपने अस्तित्व के लिए परेशान सभी सामाजिक घटकों द्वारा ओढ़ ली गई जिम्मेदारी की चादर को खींच देती है। उन्हें और उनकी गतिविधियों को अनावृत्त कर देती है। अब हम उनकी विसंगति पर रोएं या हंसे... यह हमारी समझ और आउटलुक का मामला है। वास्तव में यह छोटे अखबार के प्रिंट पत्रकार राकेश के द्वंद्व और विवेक की फिल्म है। हर फिल्म में लेखक और निर्देशक किसी न किसी पात्र में मौजूद रहते हैं। पीपली लाइव में राकेश ही लेखक-निर्देशक की सोच, जिज्ञासा, मजबूरी और दुखद आकस्मिक अंत का संवाहक है।

पीपली लाइव समाज की विडंबनाओं और विद्रूपताओं को उजागर करती हुई नत्था, बुधिया, झुनिया, बूढ़ी मां, होरी के जीवन का परिचय देती है। आजादी की चौसठवीं सालगिरह का जश्न मना रहे दर्शकों को यह फिल्म एक बार यह सोचने के लिए अवश्य मजबूर करेगी कि अधिक आराम और अधिक जगह पाने की लालसा में विकास की छलांगे लगाते समय हमने कैसे गरीबी रेखा के नीचे (बिलो पोवर्टी लाइन) जी रहे लोगों को भुला दिया है। नत्था की आत्महत्या की घोषणा खबर है, लेकिन होरी की गुमनाम मौत का कोई गवाह नहीं है। निश्चित ही अनुषा के मानस में प्रेमचंद की गोदान का नायक होरी जिंदा रहा होगा।

पीपली लाइव पूरी तरह से वैचारिक और राजनीतिक फिल्म है। अनुषा रिजवी ने अपने नजरिए को छुपाया नहीं है। कथित ह्यूमनिस्ट फिल्मकारों की तरह अनुषा रिजवी फिल्म का खुला अंत नहीं करतीं और न ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से डरती हैं। हर साल खेती छोड़कर लाखों किसान आजीविका और अस्तित्व के लिए शहरों में मजदूर बनने को मजबूर लाखों किसानों की यह सिनेमाई दास्तान है। निरीह नत्था का व‌र्त्तमान हमें झकझोर देता है।

इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी कलाकारों का चयन है। एक रघुवीर यादव के अलावा कोई भी परिचित अभिनेता नहीं है, लेकिन फिल्म शुरू होने के बाद किरदार अपरिचित नहीं रह जाते। हिंदी फिल्मों के नायक के रूप में नत्था और राकेश जैसे नायक दुर्लभ हैं। ओंकार दास माणिकपुरी और नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने उम्दा तरीके से किरदारों को जीवंत किया है। वे अभिनय करते नजर नहीं आते। टीवी रिपोर्टर मलाइका शिनॉय और विशाल शर्मा, नत्था की बीवी की भूमिका में शालिनी वत्स एवं सपोर्टिग कास्ट में आया हर कलाकार फिल्म के प्रभाव को बढ़ाता है। हिंदी फिल्मों में ग्रामीण लैंडस्केप सालों बाद लौटा है। पीपली लाइव अपने कथ्य, शिल्प और प्रभाव के लिए याद रखी जाएगी।

रेटिंग- ****1/2 साढ़े चार स्टार

Comments

Parul kanani said…
vakai kamaal ki movie hai.. :)
रूऊं या हंसूं... सच पूछिये तो मुझे फिल्म देखते हुये फफक के रोने को जी कर रहा था... पोरों को नम होने से तो नहीं ही बचा सका। फिल्म में कई ऐसे मौके थे जब आप हंसते-हंसते रो पड़ें और रोते-रोते हंस पड़ें। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये निर्देशक की पहली फिल्म है। अनुषा रिजवी ने तो बस कमाल कर दिया है।
Rahul Singh said…
आशा है पीपली में छत्‍तीसगढ़ akaltara.blogspot.com पर देखना आपको रोचक लगेगा.
बहुत ही बढ़िया समीक्षा... निश्चय ही "पीपली लाईव" एक उम्दा प्रयास है...आपका और पीपली लाईव की पूरी टीम का तहे दिल से शुक्रिया...
बेशक पीपली लाइव अच्छी फिल्म है... लेकिन इससे जुड़े कुछ सवाल भी हैं... सवाल फिल्म से कम इसे बनाने के सरोकारों से ज्यादा... बहरहाल फिल्म से जुड़े कुछ सवाल यहां भी हैं, जिसे आप- http://pratishrutibuxar.blogspot.com/ पर आमिर, पीपली लाइव और किसान शीर्षक से देख सकते हैं

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