फिल्‍म समीक्षा उड़ान

-अजय ब्रह्मात्‍मज

बहुत मुश्किल है छोटी और सीधी बात को प्रभावशाली तरीके से कह पाना। खास कर फिल्म माध्यम में इन दिनों मनोरंजन और ड्रामा पर इतना ज्यादा जोर दिया जा रहा है कि दर्शक को भी फास्ट पेस की ड्रामैटिक फिल्में ही अधिक पसंद आती हैं। फिर भी लेखक और निर्देशक का विश्वास हो और उन्हें कलाकारों की मदद मिल जाए तो यह मुश्किल काम आसान हो सकता है। उड़ान की यही उपलब्धि है कि वह पिता-पुत्र संबंध और पीढि़यों के अंतराल को सहज एवं हृदयस्पर्शी तरीके से कहती है। उड़ान अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवाणी के सृजनात्मक सहयोग का सुंदर परिणाम है।

शिमला के एक स्कूल के कुछ दृश्यों के बाद फिल्म सीधे झारखंड के जमशेदपुर पहुंच जाती है। वहां हम भैरव सिंह के परिवार में फिल्म के किशोर नायक रोहन के साथ आते हैं। रोहन और उसके तीन साथियों को पोर्न फिल्म देखने के अपराध में स्कूल से निकाला जा चुका है। पिता भैरव सिंह की उम्मीदें बिखर चुकी हैं। वे चाहते हैं कि रोहन इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर उनकी फैक्ट्री में हाथ बंटाए। उधर रोहन लेखक बनना चाहता है। वह कविता और कहानियां लिखना चाहता है। बेमन से की गई पढ़ाई का नतीजा गोल होता है। कड़क स्वभाव के पिता और पुत्र के बीच भिडं़त होती है। इस भिड़ंत के समय तक रोहन किशोर से वयस्क हो चुका है। अठारह साल का रोहन पिता की मर्जी के खिलाफ फैसला लेता है। वह स्वयं आजाद होने के साथ ही छोटे भाई अर्जुन को भी पिता के शिकंजे से छुड़ा लेता है। अंतिम दृश्य में दोनों भाइयों का एक साथ जाना नई उम्मीद और परिंदों के पर निकलने का सुकून देता है, जो आसमान छूने की उड़ान पर हैं।

इधर कमिंग आफ एज फिल्मों की काफी बातें की जा रही हैं। उड़ान छोटे शहर के बैकड्राप पर बनी संवेदनशील कमिंग ऑफ एज फिल्म है। छोटे शहरों से बड़े शहरों में आए हर व्यक्ति ने कभी न कभी अपने मां-बाप की संकीर्ण ख्वाहिशों और इरादों को कुचला है। इसमें वे स्वयं भी आहत हुए हैं और मां-बाप को भी मर्माहत किया है। इस फिल्म में हम खुद को पा सकते हैं। उड़ान देखते समय अगर रोहन के पिता भैरव सिंह की पृष्ठभूमि पर गौर करें तो उनकी जटिलताएं और ग्रंथियां समझ में आती हैं। एक स्तर पर भैरव सिंह से सहानुभूति हो सकती है, क्योंकि आखिरकार वे अपने बेटे की भलाई चाहते हैं। हां, उनके तौर-तरीके पुराने हैं और उन्हें गलतफहमी है कि केवल वे ही सही सोच सकते हैं।

उड़ान में कोई चमक-दमक नहीं है। इसमें नाच-गाने और दूसरे आकर्षक तत्व नहीं हैं। फिल्म की प्रस्तुति में कोई आडंबर नहीं है। लेखक-निर्देशक ने दर्शकों को लुभाने के लिए अतिरिक्त कोशिश नहीं की है। वे अपने विषय के साथ रहे हैं। एक के बाद एक दृश्य पिता-पुत्र संबंध की मुश्किलों को उद्घाटित करता जाता है। फिर भी हम अंतिम दृश्य में दोनों भाइयों के आजाद होने के बारे में नहीं सोचते। सौतेले भाइयों के बीच पैदा हुई बांडिंग स्वाभाविक लगती है। कड़क, गुस्सैल और एकआयामी पिता की भूमिका में रोनित राय ने अपने करियर का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। वे इस रोल में खूब जंचते हैं। रोहन की भूमिका में रजत बरमेचा ने और अर्जुन की भूमिका में अयान बोराडिया ने प्रभावशाली अभिनय किया है। छोटी भूमिकाओं में आए कलाकार भी फिल्म को अपनी मौजूदगी से मजबूत करते हैं। यह फिल्म हर माता-पिता और बेटे-बेटी को देखना चाहिए।

**** चार स्टार

Comments

बहुत ही बेहतरीन फ़िल्म। काश अनुराग से ये चोपडा और जौहर लोग भी सीखे..

अनुराग स्टैन्डिग ओवेशन डिजर्व करते है इतनी खूबसूरत मूवी बनाने के लिये.. हैट्स ओफ़

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