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Showing posts from February, 2010

फिल्‍म समीक्षा : तीन पत्‍ती

नयी और अलग सी प्रचलित और सामान्य फिल्मों की शैली से अलग है तीन पत्ती। इसके दृश्य विधान में नवीनता है। इस में हिंदी फिल्मों के घिसे-पिटे खांचों में बंधे चरित्र नहीं हैं। फिल्म की कहानी भी अलग सी है। एकेडमिक जगत, छल-कपट और लालच की भावनाएं और उन्हें चित्रित करने की रोमांचक शैली के कारण फिल्म उलझी और जटिल लग सकती है। व्यंकट सुब्रमण्यम मौलिक गणितज्ञ हैं। वे गणित में प्रोबैबिलिटी के समीकरण पर काम कर रहे हैं। अपनी धारणाओं को आजमाने के लिए वे तीन पत्ती के खेल का सहारा लेते हैं। उनका लक्ष्य एकेडमिक है, लेकिन उनके साथ आए प्रोफेसर शांतनु और चार स्टूडेंट धन के लालच में हैं। इस लालच की वजह से उनके रिश्ते और इरादे में बदलाव आता है। आइजक न्यूटन अवार्ड लेने लंदन पहुंचे व्यंकट सुब्रमण्यम वहां के गणितज्ञ पर्सी से मन का भेद खोलते हैं। फिल्म प्ऊलैशबैक और व‌र्त्तमान मे ं चलने लगती है। वे उस कचोट का भी जिक्र करते हैं, जिसकी वजह से वे खुद को इस अवार्ड का हकदार नहीं मानते। फिल्म के अंत में हम देखते हैं कि उनके साथ छल करने वाला व्यक्ति ही उन्हें अवार्ड दिलवा कर प्रायश्चित करता है। आखिरकार तीन पत्

फिल्‍म समीक्षा : कार्तिक कालिंग कार्तिक

बुनावट से ज्यादा सजावट इस फिल्म में फरहान अख्तर, दीपिका पादुकोन, राम कपूर, शेफाली छाया, विपिन शर्मा और क्युंगमिन ब्रांड फोन की मुख्य भूमिकाएं हैं। सभी एक्टरों के साथ फिल्म एक्शन का एक हिस्सा फोन को भी मिला है। निर्देशक विजय ललवानी ने स्पि्लट पर्सनैलिटी या सिजोफ्रैनिक व्यक्तित्व के कार्तिक का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है। समाज में कार्तिक जैसे कई लड़के प्रतिभाशाली होने के बावजूद हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं। बचपन, परवरिश और वर्गीय मूल्यों के दबाव में घुटते रहते हैं। उनकी अंतरात्मा कई बार उन्हें झकझोरती और इस व्यूह से बाहर निकाल लेती है, लेकिन सभी इतने भाग्यशाली नहीं होते। कार्तिक भी ऐसे ही दब्बू व्यक्तित्व का युवक है। फिल्म में उसकी अंतरात्मा फोन के जरिए बोलने लगती है। उसमें भारी तब्दीली आती है। कभी नजरअंदाज किया जा रहा कार्तिक अचानक सभी का अजीज बन जाता है। सफलता की सीढि़यां चढ़ता कार्तिकएक मोड़ पर अपनी अंतरात्मा से उलझ जाता है और फिर उसकी फिसलन आरंभ होती है। लेकिन हिंदी फिल्म का हीरो कभी गिरा नहीं रह सकता। उसकी प्रेमिका उसे संभाल लेती है और इस तरह कार्तिक कालिंग कार्तिक का सभी फिल

दरअसल : मुनाफा बांटने में हर्ज क्या है ?

-अजय ब्रह्मात्‍मज मानव संसाधन विकास मंत्रालयके के अधीन गठित कॉपीराइट संशोधन समिति से आमिर खान ने इस्तीफा दे दिया है। उन्हें ऐसा लगा कि जावेद अख्तर के हवाले से छपी खबरों में उन्हें बेवजह निशाना बनाया गया है और उनकी छवि धूमिल की गई है। ऐसा संकेत मिल रहा था कि पूरे मामले में आमिर का विरोधी रवैया है और वे गीतकारों के साथ मुनाफा शेयर करने के पक्ष में नहीं हैं। विमर्श के दौरान उठे विरोधी स्वर को समझने-गुनने से पहले जावेद अख्तर द्वारा सार्वजनिक कर देना एक प्रकार की जल्दबाजी कही जाएगी। अगर इसके साथ समिति की नैतिकता जोड़ी जाए, तो मसला और गंभीर हो जाता है। बहरहाल आमिर के इस्तीफे से कॉपीराइट संशोधन का मुद्दा सरेआम हो गया। चैनल और अखबारों की नजर उस पर गई और पिछले हफ्ते से ही किसी न किसी बहाने से इस पर बहस और खबरें चल रही हैं। आम नागरिक के लिए कॉपीराइट का मुद्दा उतना गंभीर नहीं है। अचानक आमिर ने उन्हें सचेत कर दिया है। यह अच्छा झटका है। अभी चल रही बहस और खबरों से कॉपीराइट के मुद्दे को जानने-समझने का मौका मिल रहा है। यह मामला लंबे समय से अटका पड़ा था। दुनिया भर में कॉपीराइट के प्रावधानों में नित नए

हिंदी टाकीज द्वितीय : फिल्‍में देखने का दायरा बढ़ा है और सलीका भी - मनीषा पांडे

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लंबे अंतराल के बाद हिंदी टाकीज की नई कड़ी। आखिर मनीषा पांडे ने लिख दिया और चवन्‍नी उये यहां अविकल प्रस्‍तुत कर रहा है।मनीषा में एक बेचैनी और क्रिएटिव कंफ्यूजन है,जो उन्‍हें अपनी उम्र की दूसरी लड़कियों से अलग कद देता है। वह पड़ी-लिखी और सुसंगत विचारों की हैं। उनके व्‍यक्तित्‍व में एक जल्‍दबाजी है। अपने परिचय में वह लिखती हैं ... 11 सितंबर, 1980 को इलाहाबाद में जन्‍म हुआ। जैसे जैसे बड़े हुए ये जानने की जद्दोजहद में उम्र गुजरी कि हम कौन हैं, क्‍यों हैं और हमारे जीवन का मकसद क्‍या है? होश के साथ जो चारों ओर लोगों को बदहवासियों में दौड़ते पाया तो लगा क्‍या इस दौड़ में शामिल हो जाने को ही आए हैं हम भी। शायद नहीं। न आएं हो तब भी दौड़ रहे हैं उसी भीड़ में। सीधे शब्‍दों में कहूं तो पत्रकार हूं, भोपाल में दैनिक भास्‍कर के फीचर एडीटर के पद पर शोभायमान। पर ये वो नहीं है, जो चाहा है जिंदगी से। जो चाहा है, वो अभी ना के बराबर किया है। फिर भी उम्‍मीद रौशन है कि एक दिन जरूर वो करेंगे, जो चाहते हैं। संसार के हर सुख, हर गम से बेपरवाह निकल पड़ेंगे अपनी यायावरी पर। घूमेंगे जहान में, देखेंगे दुनिया और लिखे

How well do you know Shah Rukh Khan? - ROFLquiz.com

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फिल्‍म समीक्षा : तो बात पक्‍की

उलझी हुई सीधी कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज केदार शिंदे ने मध्यवर्गीय मानसिकता की एक कहानी चुनी है और उसे हल्के-फुल्के अंदाज में पेश करने की कोशिश की है। उन्हें तब्बू जैसी सक्षम अभिनेत्री का सहारा मिला है। साथ में शरमन जोशी और वत्सल सेठ जैसे आकर्षक कलाकार हैं। इन सभी के बावजूद तो बात पक्की हास्य और विडंबना का अपेक्षित प्रभाव नहीं पैदा करती। ऋषिकेश मुखजी, बासु चटर्जी और गुलजार की तरह हल्की-फुल्की और रोचक फिल्म बनाने का आइडिया सुंदर हो सकता है, लेकिन उसे पर्दे पर उतारने में भारी मशक्कत करनी पड़ती है। केदार शिंदे की फिल्म की शुरूआत अच्छी है, किंतु इंटरवल के बाद फिल्म उलझ जाती है। राजेश्वरी की इच्छा है कि उसकी छोटी बहन निशा की शादी किसी योग्य लड़के से हो जाए। उसे पहले राहुल सक्सेना पसंद आता है, लेकिन युवराज सक्सेना के आते ही वह राहुल के प्रति इरादा बदल लेती है। राहुल और युवराज के बीच फंसी निशा दीदी के हाथों में कठपुतली की तरह है, जिसकी एक डोर राहुल के पास है। युवराज से निशा की शादी नहीं होने देने की राहुल की तरकीब सीधे तरीके से चित्रित नहीं हो पाई है। इसके अलावा फिल्म की सुस्त गति से थिए

फिल्‍म समीक्षा : क्लिक

साउंड से डराने की कोशिश -अजय ब्रह्मात्‍मज किर्र... किर्र... फ्लैश... खींच गई तस्वीर। तस्वीर में उतरती धुएं की लकीर... धुएं की लकीर यानी कोई आत्मा और फिर उस आत्मा के पीछे का रहस्य। इस रहस्य के उद्घाटन में आधी फिल्म निकल जाती है। तब तक संदीप चौटा अलग-अलग ध्वनियों से दृश्यों में डर भरने की कोशिश करते हैं। हर दृश्य धम्म, धड़ाक म, फट-फटाक, थड , च्यूं-च्यूं जैसी किसी ध्वनि और शार्प कट के साथ अकस्मात खत्म होता है। निर्देशक को लगा होगा कि दर्शकों के डर के के लिए यह इफेक्ट कारगर होगा, लेकिन सिनेमाघरों में बैठे दर्शक हंस पड़ते हैं। पर्दे पर दिखाया जा रहा खौफ सिनेमाघर में नहीं पसर पाता। निर्देशक नई युक्ति निकालता है। वह आत्मा के बाद शरीर तक पहुंचता है। शरीर पलटने पर हमें एक विकृत चेहरा दिखता है, जिसे उसकी मां प्यार से चूमती और सो जाने के लिए कहती है। मां को भ्रम है कि उसकी बेटी मरी नहीं है। वह उसे बीमार समझती है। अंतिम संस्कार न हो पाने की वजह से आत्मा भटकती रहती है। इस आत्मा और फिल्म के किरदारों के बीच रिश्ता रहा है। वही अब सता और डरा रहा है। संगीत सिवन की क्लिक साधारण किस्म की डरावनी फिल्म

दरअसल: पा‌र्श्व गायन बढ़ती भीड़, खोती पहचान

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों के पा‌र्श्व गायन में बड़ा परिवर्तन आ चुका है। अभी फिल्मों में अनेक गीतकार और संगीतकारों के गीत-संगीत के उपयोग का चलन बढ़ गया है। कुछ फिल्मों में छह से अधिक गीतकार और संगीतकार को एक-एक गीत रचने के मौके दिए जाते हैं। गायकों की सूची देखें, तो वहां भी एक लंबी फेहरिस्त नजर आती है। अब किसी फिल्म का नाम लेते ही उसके गीतकार और संगीतकार का नाम याद नहीं आता, क्योंकि ज्यादातर फिल्मों में उनकी संख्या दो से अधिक होने लगी है। अगर भूले से कभी कोई गीत याद आ जाए, तो उसके गीतकार और संगीतकार का नाम याद करने में भारी मशक्कत करनी पड़ती है। गायकी की बात करें, तो जावेद अली, शाबिर तोषी, शिल्पा राव, मोहित चौहान, कविता सेठ, आतिफ असलम, पार्थिव गोहिल, अनुष्का मनचंदा, बेनी दयाल, श्रद्धा पंडित, जुबीन, हरद कौर, मीका, तुलसी कुमार, नेहा भसीन आदि दर्जनों गायक विभिन्न फिल्मों में एक-दो गाने गाते सुनाई पड़ते हैं। अगर आप हिंदी फिल्म संगीत के गंभीर शौकीन हों, तो भी कई बार आवाज पहचानने में दिक्कत होती है। संगीत का मिजाज बदलने से आर्केस्ट्रा पर ज्यादा जोर रहता है। ऐसे में गायकों की आवाज संगीत म
लंबे गैप के बाद तब्बू तो बात पक्की में दिखेंगी। केदार शिंदे निर्देशित इस फिल्म में उनके साथ शरमन जोशी और वत्सल सेठ भी हैं। बातचीत तब्बू से..। लंबे गैप के बाद आप फिल्म तो बात पक्की केसाथ आ रही हैं? बहुत समय से कॉमेडी करने की इच्छा थी। ऐसी कॉमेडी, जिसमें रोल अच्छा हो और कहानी भी हो। यह चलती-फिरती कॉमेडी फिल्म नहीं है। यह छोटे शहर के मिडिल क्लास फैमिली की कहानी है। कोई मुद्दा या समस्या नहीं है। फिर फिल्म के निर्माता रमेश तौरानी ने साफ कहा कि आप नहीं करेंगी, तो हम फिल्म नहीं बनाएंगे। उनका आग्रह अच्छा लगा। फिर बात पक्की हो गई। नए डायरेक्टर के साथ फिल्म करने के पहले कोई उलझन नहीं हुई? मेरे लिए नए डायरेक्टर के साथ काम करने का सवाल उतना मायने नहीं रखता। मैंने ज्यादातर नए डायरेक्टर के साथ ही काम किया है। मैंने कभी किसी नए डायरेक्टर के साथ काम करने को रिस्क नहीं समझा। कहानी और स्क्रिप्ट पर भरोसा है, तो मैं हां कर देती हूं। क्या स्क्रिप्ट पढ़कर आप डायरेक्टर पर भरोसा कर लेती हैं? हां, इतनी समझ तो हो ही गई है। भरोसा तो आप बड़े डायरेक्टर का भी नहीं कर सकते। मैं इतना नहीं सोचती। मुझे जिन फिल्मों में

फिल्‍म समीक्षा : माय नेम इज खान

साधारण किरदारों की विशेष कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज करण जौहर ने अपने सुरक्षित और सफल घेरे से बाहर निकलने की कोशिश में माय नेम इज खान जैसी फिल्म के बारे में सोचा और शाहरुख ने हर कदम पर उनका साथ दिया। इस फिल्म में काजोल का जरूरी योगदान है। तीनों के सहयोग से फिल्म मुकम्मल हुई है। यह फिल्म हादसों से तबाह हो रही मासूम परिवारों की जिंदगी की मुश्किलों को उजागर करने के साथ धार्मिक सहिष्णुता और मानवता के गुणों को स्थापित करती है। इसके किरदार साधारण हैं, लेकिन फिल्म का अंतर्निहित संदेश बड़ा और विशेष है। माय नेम इज खान मुख्य रूप से रिजवान की यात्रा है। इस यात्रा के विभिन्न मोड़ों पर उसे मां, भाई, भाभी, मंदिरा, समीर, मामा जेनी और दूसरे किरदार मिलते हैं, जिनके संसर्ग में आने से रिजवान खान के मानवीय गुणों से हम परिचित होते हैं। खुद रिजवान के व्यक्तित्व में भी निखार आता है। हमें पता चलता है कि एस्परगर सिंड्रोम से प्रभावित रिजवान खान धार्मिक प्रदूषण और पूर्वाग्रहों से बचा हुआ है। मां ने उसे बचपन में सबक दिया था कि लोग या तो अच्छे होते हैं या बुरे होते हैं। वह पूरी दुनिया को इसी नजरिए से देखता है।

दरअसल : आ रहे हैं विदेशी तकनीशियन

-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले हफ्ते मैं हेमा मालिनी की फिल्म टेल मी ओ खुदा के सेट पर था। जोधपुर के बालसमंद में शूटिंग चल रही है। मयूर पुरी निर्देशित इस फिल्म की कहानी चार शहरों में प्रवास करती है। जोधपुर में राजस्थान के हिस्से की शूटिंग हो रही थी, जिसमें एषा देओल, अर्जन बाजवा और चंदन सान्याल के साथ मधु और विनोद खन्ना हैं। इस सेट पर रेगुलर इंटरव्यू और कवरेज के दौरान दो व्यक्तियों ने ध्यान खींचा। एपल नामक कैमरामैन राजस्थान के हिस्से की फोटोग्राफी कर रहे थे और एलेक्स फिल्म के मेकअप आर्टिस्ट थे। दोनों विदेशी मूल के हैं। एलेक्स मलेशिया के हैं। मलेशिया में एक भारतीय वीडियो शूटिंग के समय उनका भारतीय यूनिट से संपर्क हुआ। उसके बाद एक-दो छोटे वेंचर में काम करने के बाद उन्होंने विवेक ओबेराय की फिल्म प्रिंस की और अभी टेल मी ओ खुदा का मेकअप डिपार्टमेंट देख रहे हैं। सेट पर मौजूद तमाम भारतीयों के बीच इन विदेशियों को आराम से अपना काम करते देख कर खुशी और गर्व हुआ। हिंदी समेत सभी भारतीय फिल्में अब इस ऊंचाई तक पहुंच गई हैं कि विदेशी आर्टिस्ट और तकनीशियन यहां बेहिचक काम खोज रहे हैं। टेल मी ओ खुदा में चार विदेशी

पापुलैरिटी को एंजाय करते हैं शाहरुख

-अजय ब्रह्मात्मज शाहरुख खान से मिलना किसी लाइव वायर को छू देने की तरह है। उनकी मौजूदगी से ऊर्जा का संचार होता है और अगर वे बातें कर रहे हों तो हर मामले को रोशन कर देते हैं। कई बार उनका बोलना ज्यादा और बड़बोलापन लगता है, लेकिन यही शाहरुख की पहचान है। वे अपने स्टारडम और पापुलैरिटी को एंजाय करते हैं। वे इसे अपनी मेहनत और दर्शकों के प्यार का नतीजा मानते हैं। उन्होंने इस बातचीत के दरम्यान एक प्रसंग में कहा कि हम पढ़े-लिखे नहीं होते तो इसे लक कहते ़ ़ ़ शाहरुख अपनी उपलिब्धयों को भाग्य से नहीं जोड़ते। बांद्रा के बैंडस्टैंड पर स्थित उनके आलीशान बंगले मन्नत के पीछे आधुनिक सुविधाओं और साज-सज्जा से युक्त है उनका दफ्तर। पूरी चौकसी है। फिल्मी भाषा में कहें तो परिंदा भी पर नहीं मार सकता, लेकिन फिल्म रिलीज पर हो तो पत्रकारों को आने-जाने की परमिशन मिल जाती है। उफ्फ! ये ट्रैफिक जाम मुंबई में कहीं भी निकलना और आना-जाना मुश्किल हो गया है। मन्नत से यशराज स्टूडियो (12-15 किमी) जाने में डेढ़ घंटे लग जाते हैं। मैं तो जाने से कतराता हूं। मेरा नया आफिस खार में बन रहा है। लगता है कि यहीं है, लेकिन

फिल्‍म समीक्षा : स्‍ट्राइकर

स्लम लाइफ पर बनी वास्तविक फिल्म -अजय ब्रह्मात्‍मज चंदन अरोड़ा की स्ट्राइकर में प्रेम, अपराध, हिंसा और स्लम की जिंदगी है। सूर्या इस स्लम का युवक है, जो अपने फैसलों और विवेक से अपराध की परिधि पर घूमने और स्वाभाविक मजबूरियों के बावजूद परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेकता। वह मुंबई की मलिन बस्ती का नायक है। हिंदी फिल्मों में मुंबइया निर्देशकों ने ऐसे चरित्रों से परहेज किया है। मलिन बस्तियों के जीवन में ज्यादातर दुख-तकलीफ और हिंसा-अपराध दिखाने की प्रवृति रही है। स्ट्राइकर इस लिहाज से भी अलग है। सूर्या मुंबई के मालवणी स्लम का निवासी है। उसका परिवार मुंबई के ंिकसी और इलाके से आकर यहां बसा है। बचपन से अपने भाई की तरह कैरम का शौकीन सूर्या बाद में चैंपियन खेली बन जाता है। कैरम के स्ट्राइकर पर उसकी उंगलियां ऐसी सधी हुई हैं वह अमूमन स्टार्ट टू फिनिश गेम खेलता है। स्थानीय अपराधी सरगना जलील उसका इस्तेमाल करना चाहता है,लेकिन सूर्या उसके प्रलोभन और दबावों में नहीं आता। सूर्या की जाएद से दोस्ती है। सूर्या कमाई के लिए छोटे-मोटे अपराध करने में नहीं हिचकता। दोनों दोस्त एक-दूसरे की मदद किया करते ह

इश्किया : सोनाली सिंह

इश्किया............सोचा था की कोई character होगा लेकिन......पूरी फिल्म में इश्क ही इश्क और अपने-अपने तरीके का इश्क। जैसे भगवान् तो एक है पर उसे अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग रूप में उतार दिया है । जहाँ खालुजान के लिए इश्क पुरानी शराब है जितना टाइम लेती है उतनी मज़ेदार होती है । इसका सुरूर धीरे - धीरे चढ़ता है । वह अपनी प्रेमिका की तस्वीर तभी चाय की मेज़ पर छोड़ पाता है जब उसके अन्दर वही भाव कृष्णा के लिए जन्मतेहै । वहीँ उसके भांजे के लिए इश्क की शुरुआत बदन मापने से होती है उसके बाद ही कुछ निकलकर आ सकता है। कहे तो तन मिले बिना मन मिलना संभव नहीं है। व्यापारी सुधीर कक्कड़ के लिए इश्क केवल मानसिक और शारीरिक जरूरतों का तालमेल है । वह बस घरवाली और बाहरवाली के लिए समर्पित है और किसी की चाह नहीं रखता। मुश्ताक के लिए उसकी प्रेमिका ही सबकुछ है । वह प्रेम की क़द्र करता है । उसे अहसास है " मोहब्बत क्या होती है '। इसी वजह से वह विलेन होने के बाबजूद, मौका मिलने के बाद भी अंत में कृष्ण, खालुजान या फिर बब्बन किसी पर भी गोली नहीं चला पता। विद्याधर वर्मा के लिए प्रेम है पर कर्त्तव्य से ऊपर नहीं