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Showing posts from November, 2009

डायरेक्टर की हीरोइन हूं मैं : करीना

पिछले साल 26 नवंबर को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के समय करीना कपूर अमेरिका के फिलाडेल्फिया में कुर्बान की शूटिंग कर रही थीं। आतंकवाद के बैकग्राउंड पर बनी यह फिल्म पिछले दिनों रिलीज हुई। इसमें उन्होंने अवंतिका की भूमिका निभाई है। करीना मानती हैं, टेररिज्म अभी दुनिया की बड़ी समस्या है और इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। करीना आगे कहती हैं, यह सोच बिल्कुल गलत है कि हर मुसलमान टेररिस्ट है। हम सभी इंसान हैं। हम सभी शांति चाहते हैं। हमारी सरकार हर तरह की सावधानी बरत रही है, लेकिन हमें भी चौकस रहने की जरूरत है। कुर्बान में निभाई अपनी भूमिका को करीना इंटेंस मानती हैं और उसे जब वी मेट, ओमकारा, देव और चमेली की श्रेणी की फिल्म कहती हैं। वे बताती हैं, अगर फिल्म में हीरोइन का रोल अच्छा हो। उसके कैरेक्टर पर काम किया गया हो, तो काम करने में मजा आता है। सिर्फ तीन गाने, तीन सीन हों, तो आप क्या परफॉर्म करेंगे? मेरी ऐसी ही कुछ फिल्मों से प्रशंसक निराश हुए हैं। दर्शकों की प्रतिक्रियाओं से मुझे एहसास हो रहा है कि जब किसी फिल्म से मेरा नाम जुड़ जाता है, तो लोग उसमें कुछ ज्यादा देखना चाहते हैं। एक उम्मीद के स

दरअसल : हिंदी फिल्‍मों में आतंकवाद

-अजय ब्रह्मात्‍मज 26/11 से छह दिन पहले रिलीज हुई कुर्बान के लिए इससे बेहतर वक्त नहीं हो सकता था। सभी पत्र-पत्रिकाओं और समाचार चैनलों पर 26/11 के संदर्भ में आतंकवाद पर कवरेज चल रहा है। पाठक और दर्शक उद्वेलित नहीं हैं, लेकिन वे ऐसी खबरों को थोड़े ध्यान और रुचि से देखते हैं। कुर्बान के प्रचार में निर्देशक रेंसिल डिसिल्वा ने स्पष्ट तौर पर आतंकवाद का जिक्र किया और अपनी फिल्म को सिर्फ प्रेम कहानी तक सीमित नहीं रखा। कुर्बान आतंकवाद पर अभी तक आई फिल्मों से एक कदम आगे बढ़ती है। वह बताती है कि मुसलिम आतंकवाद को आरंभ में अमेरिका ने बढ़ाया और अब अपने लाभ के लिए आतंकवाद समाप्त करने की आड़ में मुसलिम देशों में प्रवेश कर रहा है। मुसलमान अपने साथ हुई ज्यादतियों का बदला लेने के लिए आतंकवाद की राह चुन रहे हैं। हिंदी फिल्मों के लेखक-निर्देशक मनोरंजन के मामले में किसी से पीछे नहीं हैं, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक फिल्मों में उनकी विचारशून्यता जाहिर हो जाती है। लेखक-निर्देशकों में एक भ्रम है कि उनका अपना कोई पक्ष नहीं होना चाहिए। उन्हें अपनी राय नहीं रखनी चाहिए, जबकि बेहतर लेखन और निर्देशन की प्राथमिक शर्त

फिल्‍म समीक्षा : दे दना दन

-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रियदर्शन अपनी फिल्मों का निर्देशन नहीं करते। वे फिल्मांकन करते हैं। ऐसा लगता है कि वे अपने एक्टरों को स्क्रिप्ट समझाने के बाद छोड़ देते हैं। कैमरा ऑन होने के बाद एक्टर अपने हिसाब से दिए गए किरदारों को निभाने की कोशिश करते हैं। उनकी फिल्मों के अंत में जो कंफ्यूजन रहता है, उसमें सीन की बागडोर एक्टरों के हाथों में ही रहती है। अन्यथा दे दना दन के क्लाइमेक्स सीन को कैसे निर्देशित किया जा सकता है? दे दना दन प्रियदर्शन की अन्य कामेडी फिल्मों के ही समान है। शिल्प, प्रस्तुति और निर्वाह में भिन्नता नहीं के बराबर है। हां, इस बार किरदारों की संख्या बढ़ गई है। फिल्म के हीरो अक्षय कुमार और सुनील शेट्टी हैं। उनकी हीरोइनें कट्रीना कैफ और समीरा रेड्डी है। इन चारों के अलावा लगभग दो दर्जन कैरेक्टर आर्टिस्ट हैं। यह एक तरह से कैरेक्टर आर्टिस्टों की फिल्म है। वे कंफ्यूजन बढ़ाते हैं और उस कंफ्यूजन में खुद उलझते जाते हैं। फिल्म नितिन बंकर और राम मिश्रा की गरीबी, फटेहाली और गधा मजदूरी से शुरू होती है। दोनों अमीर होने की बचकानी कोशिश में एक होटल में ठहरते हैं, जहां पहले से ही कुछ ल

एहसास : विवाह को नया रूप देंगे युवा-महेश भट्ट

तुमने विवाह जैसी पवित्र संस्था को नष्ट कर दिया है। क्या तुम अवैध संबंध को उचित बता कर उसे अपनी पीढी की जीवनशैली बनाना चाहते हो? तुम्हारी फिल्म विकृत है। क्या तुम यह कहना चाहते हो कि दो पुरुष और एक स्त्री किसी कारण से साथ हो जाते हैं तो दोनों पुरुष स्त्री के साथ शारीरिक संबंध रख सकते हैं? एक वरिष्ठ सदस्य ने मुझे डांटा। वे फिल्म इंडस्ट्री की सेल्फ सेंसरशिप कमेटी के अध्यक्ष थे। यह कमेटी उन फिल्मों को देख रही थी, जिन्हें सेंसर बोर्ड ने विकृत माना या सार्वजनिक प्रदर्शन के लायक नहीं समझा था। विवाह की पवित्र धारणा मैंने पर्दे पर वही दिखाया है, जो मैंने जिंदगी में देखा-सुना है। ईमानदारी से कह रहा हूं कि मैं कभी ऐसी स्थिति में फंस गया तो मुझे ऐसे संबंध से गुरेज नहीं होगा, मैंने अपना पक्ष रखा। कौन कहता है कि सत्य की जीत होती है? मेरी स्पष्टवादिता का उल्टा असर हुआ। मेरी फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया। यह 35 साल पहले 1978 की बात है। मेरी उम्र 22 साल थी और मैंने पहली फीचर फिल्म मंजिलें और भी हैं पूरी की थी। मुझे समझने में थोडा वक्त लगा कि विवाह हिंदी फिल्मों का अधिकेंद्र है, क्योंकि वह भारतीय जीवन

हिंदी टाकीज द्वितीय : फिल्मों ने ही मुझे बिगाड़ा-बनाया-कुमार विजय

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हिंदी टाकीज द्वितीय-2 बनारस के हैं कुमार विजय। उन्‍होंने लगभग तीन दशक पूर्व नाटकों और फिल्मों पर समीक्षाएं लिखने के साथ स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की। बाद में नियमित पत्रकारिता से जुड़ाव हुआ। धर्मयुग , दिनमान आदि पत्रिकाओं तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन करते रहे। एक अरसे तक दैनिक आज और हिन्दुस्तान के संपादकीय विभाग से संबद्धता भी रही। हिन्दुस्तान के वाराणसी संस्करण में फीचर संपादन किया। केबल चैनलों की शुरुआत के दौर में तीन वर्षों तक जीटीवी के सिटी चैनल की वाराणसी इकाई के लिए प्रोडक्शन इंचार्ज के रूप में कार्यक्रमों का निर्माण भी किया। संप्रति एक दैनिक पत्र के संपादकीय विभाग से संबद्ध हैं। साहित्य के पठन-पाठन में उनकी गहरी रुचि है। जीवन के पचास वसंत पूरे करने के बाद अचानक अपने फिल्मी चस्के के बारे में याद करना वाकई एक मुश्किल और तकलीफ देह काम है। अव्वल तो लम्बे समय का गैप है , दूसरे लम्बे समय से फिल्मों से अनकन्सर्ड हो जाने वाली स्थित रही है। इस सफर में सिनेमा ने काफी परिवर्तन भी देखा है। न सिर्फ फिल्में महंगी हुई हैं फिल्में देखना भी महंगा हुआ है। मल्टीप्लेक्स का जमाना है।

फ़िल्म समीक्षा : कु़र्बान

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धुंधले विचार और जोशीले प्रेम की कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज रेंसिल डिसिल्वा की कुर्बान मुंबइया फिल्मों के बने-बनाए ढांचे में रहते हुए आतंकवाद के मुद्दे को छूती हुई निकलती है। गहराई में नहीं उतरती। यही वजह है कि रेंसिल आतंकवाद के निर्णायक दृश्यों और प्रसंगों में ठहरते नहीं हैं। बार-बार कुर्बान की प्रेमकहानी का ख्याल करते हुए हमारी फिल्मों के स्वीकृत फार्मूले की चपेट में आ जाते हैं। आरंभ के दस-पंद्रह मिनटों के बाद ही कहानी स्पष्ट हो जाती है। रेंसिल किरदारों को स्थापित करने में ज्यादा वक्त नहीं लेते। अवंतिका और एहसान के मिलते ही जामा मस्जिद के ऊपर उड़ते कबूतर और शुक्रन अल्लाह के स्वर से जाहिर हो जाता है कि हम मुस्लिम परिवेश में प्रवेश कर रहे हैं। हिंदी फिल्मों ने मुस्लिम परिवेश को प्रतीकों, स्टारों और चिह्नों में विभाजित कर रखा है। इन दिनों मुसलमान किरदार दिखते ही लगने लगता है कि उनके बहाने आतंकवाद पर बात होगी। क्या मुस्लिम किरदारों को नौकरी की चिंता नहीं रहती? क्या वे रोमांटिक नहीं होते? क्या वे पड़ोसियों से परेशान नहीं रहते? क्या वे आम सामाजिक प्राणी नहीं होते? कथित रूप से सेक्युलर हिंदी फि

दरअसल : महत्वपूर्ण फिल्म है रोड टू संगम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों मुंबई में आयोजित मामी फिल्म फेस्टिवल में अमित राय की फिल्म रोड टू संगम को दर्शकों की पसंद का अवार्ड मिला। इन दिनों ज्यादातर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दर्शकों की रुचि और पसंद को तरजीह देने के लिए आडियंस च्वॉयस अवार्ड दिया जाता है। ऐसी फिल्में दर्शकों को सरप्राइज करती हैं। सब कुछ अयाचित रहता है। पहले से न तो उस फिल्म की हवा रहती है और न ही कैटेगरी विशेष में उसकी एंट्री रहती है। रोड टू संगम सीमित बजट में बनी जरूरी फिल्म है। इसके साथ दो अमित जुड़े हैं। फिल्म के निर्माता अमित छेड़ा हैं और फिल्म के निर्देशक अमित राय हैं। यह फिल्म अमित राय ने ही लिखी है। उन्होंने एक खबर को आधार बनाया और संवेदनशील कथा गढ़ी। गांधी जी के अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियां अनेक कलशों में डालकर पूरे देश में भेजी गई थीं। एक अंतराल के बाद पता चला था कि गांधी जी की अस्थियां उड़ीसा के एक बैंक के लॉकर में रखी हुई हैं। कभी किसी ने उस पर दावा नहीं किया। अमित राय की फिल्म में उसी कलश की अस्थियों को इलाहाबाद के संगम में प्रवाहित करने की घटना है। गांधी जी की मृत्यु के बाद उनकी अस्थियां इलाहा

फिल्‍म समीक्षा : तुम मिले

पुनर्मिलन का पुराना फार्मूला -अजय ब्रह्मात्‍मज पहले प्राकृतिक हादसों की पृष्ठभूमि पर काफी फिल्में बनती थीं। बाढ़, सूखा, भूकंप और दुर्घटनाओं में परिवार उजड़ जाते थे, किरदार बिछुड़ जाते थे और फिर उनके पुनर्मिलन में पूरी फिल्म निकल जाती थी। परिवारों के बिछुड़ने और मिलने का कामयाब फार्मूला दशकों तक चला। कुणाल देशमुख ने पुनर्मिलन के उसी फार्मूले को 26-7 की बाढ़ की पृष्ठभूमि में रखा है। मुंबई आ रही फ्लाइट के बिजनेस क्लास में अपनी सीट पर बैठते ही अक्षय को छह साल पहले बिछड़ चुकी प्रेमिका की गंध चौंकाती है। वह इधर-उधर झांकता है तो पास की सीट पर बैठी संजना दिखाई पड़ती है। दोनों मुंबई में उतरते हैं और फिर 26 जुलाई 2005 की बारिश में अपने ठिकानों के लिए निकलते हैं। बारिश तेज होती है। अक्षय पूर्व प्रेमिका संजना के लिए फिक्रमंद होता है और उसे खोजने निकलता है। छह साल पहले की मोहब्बत के हसीन, गमगीन और नमकीन पल उसे याद आते हैं। कैसे दोनों साथ रहे। कुछ रोमांटिक पलों को जिया। पैसे और करिअर के मुद्दों पर लड़े और फिर अलग हो गए। खयालों में यादों का समंदर उफान मारता है और हकीकत में शहर लबालब हो रहा है।

भारत का पर्याय बन चुकी हैं ऐश्वर्या राय

-हरि सिंह ऐश्वर्या राय के बारे में कुछ भी नया लिख पाना मुश्किल है। जितने लिंक्स,उतनी जानकारियां। लिहाजा हमने कुछ नया और खास करने के लिए उनके बिजनेस मैनेजर हरि सिंह से बात की। वे उनके साथ मिस व‌र्ल्ड चुने जाने के पहले से हैं। हरि सिंह बता रहे हैं ऐश के बारे में॥ मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि मैंने कब उनके साथ काम करना आरंभ किया। फिर भी उनके मिस व‌र्ल्ड चुने जाने के पहले की बात है। उन्होंने मॉडलिंग शुरू कर दी थी। मिस इंडिया का फॉर्म भर चुकी थीं। आरंभिक मुलाकातों में ही मुझे लगा था कि ऐश्वर्या राय में कुछ खास है। मुझे उनकी दैवीय प्रतिभा का तभी एहसास हो गया था। आज पूरी दुनिया जिसे देख और सराह रही है, उसके लक्षण मुझे तभी दिखे थे। मॉडलिंग और फिल्मी दुनिया में शामिल होने के लिए बेताब हर लड़की में सघन आत्मविश्वास होता है, लेकिन हमलोग समझ जाते हैं कि उस आत्मविश्वास में कितना बल है। सबसे जरूरी है परिवार का सहयोग और संबल। अगर आरंभ से अभिभावक का उचित मार्गदर्शन मिले और उनका अपनी बेटी पर भरोसा हो, तो कामयाबी की डगर आसान हो जाती है। ऐश के साथ यही हुआ। उन्हें अपने परिवार का पूरा समर्थन मिला। मां-बाप ने उ

दरअसल: फिल्म की रिलीज और रोमांस की खबरें

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-अजय ब्रह्मात्मज इन दिनों हर फिल्म की रिलीज के पंद्रह-बीस दिन पहले फिल्म के मुख्य कलाकारों के रोमांस की खबरें अखबारों में छपने और चैनलों में दिखने लगती हैं। पिछले दिनों रणबीर कपूर और कट्रीना कैफ की अजब प्रेम की गजब कहानी आई। रिलीज के पहले खबरें दिखने लगीं कि रणबीर-कैट्रीना की केमिस्ट्री गजब की है। वास्तव में दोनों के बीच रोमांस चल रहा है, इसलिए उनके प्रेमी खिन्न हैं। दोनों के संबंध अपने-अपने पे्रमियों से खत्म हो चुके हैं। अखबार और चैनलों पर यही खबर थी। अगर फिल्मों और उसके प्रचार के इतिहास से लोग वाकिफ हों या थोड़े भी सचेत ढंग से इन खबरों पर नजर रखते हों, तो उन्हें याद होगा कि यह सिलसिला पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना के समय से चला आ रहा है। एक प्रचारक ने नियोजित तरीके से हर फिल्म की हीरोइन के साथ राजेश खन्ना के प्यार की किस्से बनाए। कभी फिल्म की युगल तस्वीरें तो कभी किसी पार्टी की अंतरंग तस्वीरों से उसने इन खबरों को पुख्ता किया। राजेश खन्ना की रोमांटिक फिल्मों को ऐसे प्रचार से फायदा हुआ। बाद में इस तरकीब को दूसरों ने अपनाया और कमोबेश उनकी फिल्मों को भी लाभ हुआ। मीडिया विस्फोट और समाचार चै