फ़िल्म समीक्षा : कु़र्बान


धुंधले विचार और जोशीले प्रेम की कहानी


-अजय ब्रह्मात्‍मज


रेंसिल डिसिल्वा की कुर्बान मुंबइया फिल्मों के बने-बनाए ढांचे में रहते हुए आतंकवाद के मुद्दे को छूती हुई निकलती है। गहराई में नहीं उतरती। यही वजह है कि रेंसिल आतंकवाद के निर्णायक दृश्यों और प्रसंगों में ठहरते नहीं हैं। बार-बार कुर्बान की प्रेमकहानी का ख्याल करते हुए हमारी फिल्मों के स्वीकृत फार्मूले की चपेट में आ जाते हैं।

आरंभ के दस-पंद्रह मिनटों के बाद ही कहानी स्पष्ट हो जाती है। रेंसिल किरदारों को स्थापित करने में ज्यादा वक्त नहीं लेते। अवंतिका और एहसान के मिलते ही जामा मस्जिद के ऊपर उड़ते कबूतर और शुक्रन अल्लाह के स्वर से जाहिर हो जाता है कि हम मुस्लिम परिवेश में प्रवेश कर रहे हैं। हिंदी फिल्मों ने मुस्लिम परिवेश को प्रतीकों, स्टारों और चिह्नों में विभाजित कर रखा है। इन दिनों मुसलमान किरदार दिखते ही लगने लगता है कि उनके बहाने आतंकवाद पर बात होगी। क्या मुस्लिम किरदारों को नौकरी की चिंता नहीं रहती? क्या वे रोमांटिक नहीं होते? क्या वे पड़ोसियों से परेशान नहीं रहते? क्या वे आम सामाजिक प्राणी नहीं होते? कथित रूप से सेक्युलर हिंदी फिल्म उद्योग की इस सांप्रदायिकता पर ध्यान देने की जरूरत है। इस मायने में रेंसिल डिसिल्वा की कुर्बान अलग प्रतीत होती है, लेकिन अंदर से वैसी ही पारंपरिक और रूढि़वादी है।

अवंतिका न्यूयार्क से भारत आई है। वह एक कालेज में पढ़ा रही है। उसी कालेज में एहसान खान की अस्थायी नियुक्ति होती है। चंद मुलाकातों में दोनों शादी कर लेते हैं और फिर न्यूयार्क पहुंचते हैं। इसके बाद घटनाएं मोड़ लेती हैं। आतंकी साजिश में फंस चुकी अवंतिका अंत तक हिम्मत नहीं हारती। वह कोशिश करती है कि इन साजिशों के बारे में बता सके। रियाज मसूद उदारवादी मुस्लिम के तौर पर सामने आता है, लेकिन वह है बिल्कुल फिल्मी किरदार। वह सुरक्षा एजेंसियों की मदद लेने के बजाए खुद ही मामले को सुलझाना चाहता है, क्योंकि उसकी प्रेमिका आतंकवाद का निशाना बन चुकी है। आतंकवाद से लड़ने की इस बचकानी कोशिश पर हंसी आती है और पता चलता है कि कैसे हिंदी फिल्मों के लेखक-निर्देशक अपनी सीमाओं की जकड़ से निकलना नहीं चाहते। वैचारिक और सैद्धांतिक स्तर पर अवश्य ही कुर्बान में आतंकवाद के फैलाव के लिए अमेरिकी सामरिक और राजनयिक नीतियों को दोषपूर्ण माना गया है, लेकिन उन तर्को को सुनते हुए आतंकवादी गतिविधियां जायज लगने लगती हैं। एहसान और उसके साथियों की साजिशें उचित लगने लगती हैं। लेखक-निर्देशक सैद्धांतिक रूप से स्पष्ट नहीं है। यह ढुलमुलपन कुर्बान को आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर बनी एक कमजोर फिल्म साबित करता है। हां, प्रेम कहानी के चित्रण में अवंतिका और एहसान के द्वंद्व, अविश्वास और प्रेम के चित्रण में निर्देशक का जोश दिखाई पड़ता है। सैफ और करीना के अंतरंग दृश्य शिष्ट और बेहतर हैं।

*** तीन स्टार


Comments

बढ़िया समीक्षा... मैं तो कहता हूँ ३ भी ज्यादा स्टार दे दिए २ काफी हैं...
जय हिंद....
अच्छी समीक्षा रही मैने इसी विषय पर गर्म हवा को लेकर एक आलेख लिखा है ..देखें http://sharadakokas.blogspot.com
करीना के ख़त्म होते करियर की कुछ फ्लॉप फिल्मों में से एक.

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