दरअसल :हरश्चिंद्रांची फैक्‍ट्री और आस्‍कर


-अजय ब्रह्मात्‍मज

हरिश्चंद्रांची फैक्ट्री और ऑस्कर परेश मोकाशी की मराठी फिल्म हरिश्चंद्रांची फैक्ट्री इस साल भारत की तरफ से ऑस्कर में विदेशी भाषा की श्रेष्ठ फिल्म की कैटगरी में भेजी गई है। हर साल एक फिल्म भेजी जाती है और हम चार महीने तक टकटकी लगाए रहते हैं कि शायद इस बार भारत को अवार्ड मिल जाए।हाल-फिलहाल में केवल आशुतोष गोवारीकर की लगान नामांकन सूची तक पहुंच पाई थी। तब से हर बार लगता है कि इस साल पुरस्कार मिलेगा। एंट्री को लेकर विवाद भी हुए। ऊपरी तौर पर ऑस्कर की परवाह नहीं करने वाले लोग भी इस चिंता और जानकारी में उलझे रहते हैं कि ऑस्कर में क्या हो रहा है? मानें या न मानें, ऑस्कर फिल्मों को दिया जाने वाला दुनिया का श्रेष्ठ पुरस्कार हो गया है।

ऑस्कर में भारत की मौजूदगी ना के बराबर है। पिछले साल स्लमडॉग मिलेनियर की वजह से कुछ पुरस्कार भारतीय प्रतिभाओं के हाथ लगे, लेकिन वह फिल्म भारतीय नहीं थी। मजा और गर्व तो तब हो, जब किसी हिंदी या अन्य राष्ट्रीय भाषा में बनी फिल्म के लिए यह गौरव हासिल हो। परेश मोकाशी की हरिश्चंद्राची फैक्ट्री अच्छी फिल्म है, लेकिन नामांकन सूची तक इसके पहुंचने की संभावना कम है। 65 देशों की श्रेष्ठ फिल्में इस बार विदेशी भाषा की श्रेष्ठ फिल्म की होड़ में हैं। उनमें हरिश्चंद्राची फैक्ट्री कहां टिकेगी? फिल्म की श्रेष्ठता और योग्यता से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है कि कैसे ऑस्कर के ज्यादा से ज्यादा ज्यूरी मेंबर किसी फिल्म को देखें? उसके लिए जबरदस्त कैंपेनिंग और लॉबिंग सकारात्मक अर्थ में करनी पड़ती है। उसमें काफी पैसे खर्च होते हैं। कुछ सालों पहले एक और मराठी फिल्म श्वास भेजी गई थी। उसके निर्माता-निर्देशक के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे जरूरी व्यय कर सकें। तब अमिताभ बच्चन समेत अनेक व्यक्तियों और संस्थाओं ने धन जमा कर निर्देशक संदीप सावंत की मदद की थी। कैंपेनिंग और अन्य खर्च करोड़ों में आए थे। वह फिल्म नामांकन सूची तक भी नहीं पहुंच पाई थी। इन दिनों संदीप सावंत क्या कर रहे हैं? कोई जानकारी नहीं है।

दरअसल, सिर्फ नामजदगी और मौजूदगी के लिए फिल्म भेजने और उस पर अतिरिक्त खर्च करने का तुक समझ में नहीं आता। अगर कोई कॉरपोरेट हाउस या बड़ा निर्माता साथ में हो, तो अलग बात है। वैसे इस बार यूटीवी का साथ है। यूटीवी इसके पहले रंग दे बसंती लेकर ऑस्कर जा चुकी है। उनके पास अनुभव है। फिर भी ऑस्कर का यह अभ्यास फिजूल लगता है। यह कोई ओलिंपिक खेल में टीम इंडिया के शामिल होने जैसी बात नहीं है। हमें मालूम है कि हम कितनी अच्छी और बुरी फिल्में बना रहे हैं? हमारी बेहतरीन फिल्मों की संवेदना विदेशी ज्यूरी की समझ के बाहर होती है। वे हमारी भावनाओं को समझ नहीं पाते और न ही हमारे विनोद को सराह पाते हैं। होगा क्या कि अभी से लेकर फरवरी तक परेश मोकाशी के साथ उनकी टीम ऑस्कर के फंदे में पड़ी रहेगी। वे अपनी अगली फिल्म और योजनाओं पर काम नहीं कर सकेंगे। हां, इस अभियान में यूटीवी को अवश्य फायदा हो जाएगा।

यूटीवी जैसे कॉरपोरेट हाउस ऐसी फिल्मों के प्रोमोशन और कैंपेन से अपने लिए मिशनरी छवि बनाते हैं। वे साबित करते हैं कि बेहतर फिल्मों और सामाजिक उद्देश्य की फिल्मों पर वे ध्यान देते हैं। गौर करें, तो यूटीवी और दूसरे कॉरपोरेट हाउस आमतौर पर ऐसी फिल्मों में आरंभिक निवेश नहीं करते। फिल्म बन जाने के बाद वे उसे गोद ले लेते हैं और अपने वारिस की तरह उसे पेश करते हैं। अ वेडनेसडे या हरिश्चंद्राची फैक्ट्री का भी उदाहरण लें, तो ये फिल्में यूटीवी ने बाद में खरीदी हैं। उनकी दत्तक फिल्में हैं ये। हरिश्चंद्राची फैक्ट्री के प्रोमोशन में यूटीवी का नाम ही आगे है। लोग जानते भी नहीं कि इस फिल्म को पूरी करने के लिए पंकज मोकाशी ने अपनी संपत्ति दांव पर लगा दी थी। इस फिल्म के मूल बजट के इतना या उससे कुछ कम ऑस्कर अभियान में खर्च होगा। परेश उन पैसों से दूसरी फिल्म बना सकते हैं। यूटीवी इस फिल्म के अभियान से अपने ब्रांड को सम्मान दिलाना चाहता है, जिसके लिए अलग से प्रचार योजना बनाई जाती, तो करोड़ों खर्च होते। हमें पूंजीपतियों की कथित सद्भावना के पीछे की मंशा पर भी नजर रखनी चाहिए।

ऑस्कर के लिए नामित फिल्में

2001- लगान

2002- देवदास

2004- श्वास

2005- पहेली

2006- रंग दे बसंती

2007- एकलव्य

2008- तारे जमीन पर

2009- हरिश्चंद्राची फैक्ट्री


Comments

Kulwant Happy said…
कला दिखाने के लिए सब दाँव पर लगाना पड़ता है। ये ही तो भारत की कमी है। जहां एंथनी जैसे सौ करोड़ की आतिशबाजी ब्लू के रूप में छोड़ते हैं। जो फुस हो जाती है, लेकिन मोकाशी जैसों को कला दिखाने के लिए सब दाँव पर लगाना पड़ता है। ये ही तो विडम्बना है इस देश की।

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