पहिला इंजेक्शन तो डीडीएलजे ही दिहिस

-चण्डीदत्त शुक्ल
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे से जुड़ी चण्डीदत्त शुक्ल की भी एक याद.

यूपी के गोंडा ज़िले में जन्मे चण्डीदत्त की ज़िंदगी अब दिल्ली में ही गुज़र रही है. लखनऊ और जालंधर में पंच परमेश्वर और अमर उजाला जैसे अखबारों व मैगजीन में नौकरी-चाकरी करने, दूरदर्शन-रेडियो और मंच पर तरह-तरह का काम करने के बाद दैनिक जागरण, नोएडा में चीफ सब एडिटर रहे. अब फोकस टीवी के प्रोग्रामिंग सेक्शन में स्क्रिप्टिंग की ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं. लिखने-पढ़ने का वक्त नहीं मिलता, लेकिन जुनून बरकरार है. एक्टिंग, वायस ओवर, एंकरिंग का शौक है. सुस्त से ब्लागर भी हैं. इनका ब्लॉग है... www.chauraha1.blogspot.com..इनसेchandiduttshukla@gmail.com पर भी मुलाकात की जा सकती है.

20 अक्टूबर, 1995. पक्का यही तारीख थी...याद इसलिए नहीं कि इस दिन डीडीएलजे देखी थी...भुलाइ इसलिए नहीं भूलती, क्योंकि इसी तारीख के ठीक पांच दिन बाद सलीम चच्चा ने पहली बार इतना ठोंका-पीटा-कूटा-धुना-पीसा था कि वो चोट अब भी सर्दी में ताज़ा हो जाती है...। हुआ यूं कि सलीम चच्चा बीज के लिए लाया पैसा अंटी में छुपाए थे और हम, यानी हमारे दोस्त अंजुमन और मैं उनकी अंटी ढीली करके ट्रेन से फरार हो लिए थे...डब्ल्यूटी (ये कोई पास नहीं है, विदाउट टिकट!), का करनेअरे डीडीएलजे देखने। अब सिटी तउ याद नहीं, पता नहीं लखनऊ रहा कि बहराइच...पर रहा पास के ही कउनउ शहर।

नास होय अंजुमनवा के (लोफड़, हमके भी बिगाड़ दिहिस....अब ससुरा जीएम है कहीं किसी कंपनी में अउ हम अब तक कलमै (बल्कि की-बोर्ड) घिसि रहे हैं...), वही सबेरे-सबेरे घर टपकि पड़ागुरू... चलउ...नई फ़िलिम रिलीज़ भई है...। आज दुइ टिकट कै इंतजाम एक चेला किहे हइ।

पइसा कइ का इंतज़ाम होई, पूछे पे ऊ अपने ही बापू के अंटी का पता बता दिया। आगे का हुआ, बतावै के कउनउ ज़रूरत बा?

चुनांचे.. ट्रेन में टीटी से बचते-बचाते हम उस पवित्र शहर में पहुंचे...जहां डीडीएलजे लगी थी. चेला से दुइ टिकिट लिहे अउ मुंह फाड़ के, रोते-गाते-सिसकते-आंसू और नाक सुड़कते हम लोग भावुक होके डीडीएलजे देखने लगे.

संस्मरण कुछ खास लंबा ना होने पाए, सो in-short हम लोग डीडीएलजे देखे अउर घर लौटे. ठोंके-पीटे गए, लेकिन जो ज्ञान इस फिलिम से, बल्कि साहरुख भइया से पाए, वोह अक्षुण्ण है...अनश्वर है...अनंत है. ज्ञान के बारे में बताएंगे हम, अभी वक्त है कुछ प्रॉब्लम डिस्कस करने का.

प्रॉब्लम नंबर एक95 में हारमोंस कम रहे होंगे, सो चेहरे पर मूंछ ढूंढे नहीं मिलती... लोगबाग ऐसे ही लड़का ना समझ लें, इसके लिए हमने सारे जतन किए थे. जवान दिखने की खातिर अगर ज़रूरत पड़ती तो शायद शंकर-पारबती का व्रत भी रखे होते. भगवान जिलाए रखें शिवपाल बारबर के, जो अस्तुरा घिस-घिसकर ऊपरी होंठ के ऊपर थोड़ा-बहुत कालापन पैदा कर दिए. दूसरी दिक्कत ई रही कि शुरू से लड़का-लोहरिन के बीच में पढ़े, सो रोमांस कौन-खेत के मूली होत है, ये पता नाही रहा.

1995 में रिलीज़ भई डीडीएलजे और ज़िंदगी जैसे बदल गई! हम भी तब नवा-नवा इंटर कॉलेज छोड़िके डिग्री कॉलेज पहुंचे रहे. रैगिंग भी खत्म होइ गई और लड़कियन के पहली बार अतनी नज़दीक से देखेके मिला. ये प्रॉब्लम भी सुलझि गई थी कि मोहल्ले की लड़कियां बहिन होती हैं, उन्हें बुरी नज़र से नहीं देखा जा सकता. असल में बाहर से आने वाली लड़कियों के साथ ऐसी कोई शर्त नहीं थी ना...। दूर-दूर से जो आती थीं लड़कियां, पहले तो हम उन्हें कॉलेज के बाद आंख उठाकर देखते भी नहीं, डीडीएलजे ने जो सबसे बड़ा कमाल किया, वो ये कि लड़कियां बस पकड़ने स्टैंड पे जातीं और हम उनके पीछे-पीछे जाते। अरे भाई, ज़िम्मेदारी वाली बात थी...भला कोई दूसरा कैसे हमारे कॉलेज की लड़कियों को छेड़ देता! (एक सफाई दे दें...झुंड में रहते तो हम भी थे, लेकिन अइसा कुछ हम नहीं किए थे...ना यकीन हो, तो अंजुमनवा से पूछ लीजिए...ससुरा, चार बार हाकी खाइस हइ, यही चक्कर में.)

हां, तउ अब बारी डीडीएलजे और साहरुख भइया से मिले ज्ञान की...

साहरुख भइया हमको बहुत सारा रास्ता बताए...पहिला ये कि बिना मूंछ के भी जवान होत हैं और दुसरा येरोमांस बहुत ज़रूरी है जिन्नगी के लिए।

हम ठहरे एकदम पक्के दिहाती...कहने को गोंडा ज़िला मुख्यालय रहा, लेकिन मैसेज एकदम क्लियर थाआस-पड़ोस की सारी लड़कियां बहिन हैं...और तू उनके भाई! मतलब इमोशंस की भ्रूणहत्या...ख़ैर, हमको तो रोमांस का ही पता नहीं था कि ये बीमारी होती का है, सो कोई तकलीफ़ भी नहीं हुई...लेकिन साहरुख भइया अउ काजोल भउजी, ऐसी तकलीफ़ पैदा किए हैं कि आज तक ऊ पीर जिगर से बाहर नहीं होइ रही है.

बात कम अउ मतलब ज्यादा ई कि 90 का दशक आधा बीत चुका था, तभी प्रेमासिक्त होने की बीमारी डीडीएलजे की बदौलत खूब सिर चढ़कर बोली...और ऐसी बोली कि अब तक लोग दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के गीत सुनते हैं और प्रेमी बन जाते हैं...(अतिशयोक्ति हो, तो माफ़ कीजिए...वैसे, मुझे तो लवेरिया का पहला इंजेक्शन तभी लगा था.) रोमैंटिक फ़िल्में तो हमने पहले से हज़ार देखीं थीं, लेकिन भला हो घर-परिवार से मिले संस्कारों का कि हम भी रोमैंस का मतलब थोड़ा-बहुत समझने लगे।

अब इस ज्ञान के चलते कितनी हड्डियां टूटीं, ये बताने लगे, तो मामला गड़बड़ाय जाएगा, लेकिन इतना ज़रूर समझ लीजिए कि डीडीएलजे ना होती, तउ हम कभी आसिक बन पाने का जोखिम ना उठाते। भला होय आदित्य भइया तोहरा भी कि ऐसी फिलिम बनाए...खुद तउ डूबे ही सनम...हमका भी लइ डूबे

Comments

हमें इस फिल्म ने टीन एज के प्रेम(अगर था तो) से मुक्त करने में भरसक कोशिश की और आपको पहिला इंजेक्सन दिया,एकदम विरोध अनुभव लेकिन खुसी है कि इ सिनेमा प्रेम पर ही अड़ी रही,खुदकुशी तक नहीं गयी।..बेहतरीन लिखा है लेकिन अचानके से औ आगे लिखने से हाथ काहे रोक दिए।..
चण्डीदत्त शुक्ल said…
इंस्पिरेशनवा तउ आपइ दिहे हो बाबू! पर मस्त रहिस...का करी...इहां नौकरिया पे खतरा आइ जात...पेटवउ तउ देखइके परी...खाली दिल लइके का करबउ हो बबुआ!!!
MEDIA GURU said…
kya dhansu injection lagaya hai aapne.............
मज़ा आ गया ।
भइये हम आपकी भासा में तो अपनी बात नहीं न कह पायेंगे लेकिन आप की बात हमारे दलि की छू गयी1 एक तो ईमानदारी से कहने की कला और दूजे अपने आपको जस का तस धर दीनने की हिम्‍मत। आज के हिन्‍दी लेखन में ये बात हो तो तो भला पाठक दूर कैसे जायेगा। उसे तो साला मुख धारा के साहित्‍य ही दंड पिलवाने पर तुला हुआ है1 खूब लिखा है जमे रहो।
bahut hi rochak sansmaran hai. padh ke maza aayi gawa..
ये डीडीएलजे क्या सबको मुफ्त में लवेरिया बांट रहा था, कल विनीत का संस्मरण पढ़-पढ कर हंसती रही और आज आप आ गए अपने चोट के निशान सहलाते हुए। पर बहुत बढ़िया लिखे हैं , अंत में लगा अरे ये तो खत्म हो गया दो चार ठो बात और सुनाते तो मजा आता
sushant jha said…
थोड़ा और लिखते तो कीबोर्ड खिया जाता का..?
Unknown said…
पंडित जी का मस्त लिखा. भौजी जी को पढाके उन्हूसे कमेन्ट लिख्वो, बहुत मजा आई बाबु. भूल गायव रात रात भर मनकापुर काइ स्टेशन. अब समझ गयन इ सब दुल्हनिया वाली फिल्म का चक्कर रहिस. भला हो अंजुमन भैया का. भौजाई का पैलगी जरुर कहेव.
@ महाबीर सेठ
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तुहूं महाबीर...कहां परा हउ...। अरे, दुल्हनिया वाली फिलिम देखइ के बादिम हम उल्लू रहेन जउ बियाहे के चक्कर मां फंसि जातेन...अरे, आसिकी अउ फेरा मां बहुत फरक होता हइ बबुआ!!! जब तक गल्ली-गल्ली खोपड़ी ना फूटइ, तब तक कहां मजा आसिकी कइ...। बियाह-वुआह तउ बादेम होत रहत हइ...सबसे पहिले आसिकी...। लागत हइ, यहि बिमारिस तू अब तक बचा हउ...। अब गावत रहउ, राज्यश्री प्रोडक्शन कइ विजयगाथा...हम तउ भइया आसिक हन...वहइ रहब...घर-गिरहस्थी हमरे बसकइ नाहीं। thanks for comment

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