हिन्दी टाकीज:ज़िन्दगी में लहर फिल्मों ने दी-दीपांकर गिरी



हिन्दी टाकीज-३१


इस बार हैं दीपांकर गिरी। दीपांकर इन दिनों फिल्मों के लेखक बनने की तैयारी में हैं। साहित्य और सिनेमा का समान अध्ययन किया है उन्होंने। अपने परिचय में लिखते हैं...झारखंड के छोटे से चिमनी वाले शहर के एक साधारण घर में जन्म । लिखने पढने की बीमारी विरासत में मिली,जिसके कारण अंत में जामिया मिलिया में जाकर मास मीडिया में एडमिट हो गया। साहित्य ,कविता,कहानियों की दवाइयां लेकर वहां से निकला और दैनिक भास्कर,प्रभात खबर होते हुए मुंबई की राह पकड़ ली। टीवी सीरियलों ने कुछ दिन रोजी-रोटी चलाई। फिलहाल अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट लेकर दफ्तर दर दफ्तर यायावरी,फिर भी बीमारी है कि कतमा होने का नाम नहीं लेती।


ज़िन्दगी में लहर फिल्मों ने दी
कल की ही बात है...
अधिक मौसम नहीं बीते हैं। लगता है जैसे कल की ही बात है और मैं झारखंड के एक छोटे से ऊंघते हुए शहर "चंदपुरा" के पपड़ियां उचटते सिनेमा हाल के बाहर लाइन में लगा हूं और डर इसका कि कहीं टिकट ख़त्म न हो जाए। तमाम धक्कामुक्की के बाद चार टिकट लेने की कामयाबी थोड़ी देर के लिए जिंदगी में खुशबू भर देती है। मल्टीप्लेक्स के कंप्यूटर से निकले टिकटों के इस दौर में भी आज गहरे गुलाबी रंग के उस पतले से टिकट की खुशबू उसी शिद्दत से सूंघ सकता हूं। वहां तब से लेकर आज तक सिर्फ एक ही हाल है और उसका नाम है विकास टाकीज। उसका विन्यास कुछ ऐसा है कि "वि" अलग लिखा है "का" अलग और "स" अलग। इस डिजाइन से अधिक नुकसान तो नहीं हुआ, बस "का" के मिट जाने पर अब वह दूर से "विस" लगता है। रोचक तथ्य यह है कि जब ये "विकास" दिखता था तब वह इस सिनेमा हाल के सुनहरे दिन थे। इसी सिनेमा हाल में मैने बचपन में "गंगा किनारे मोरा गांव" देखी थी और यहीं पर देखा था "पिया के गांव"। यहीं "दोस्ताना" देखी थी, "मर्द" देखी थी और यहीं पर "मिस्टर इंडिया" देखी थी। परिवार के साथ यहीं देखी थी "संयोग" और "बीस साल बाद" और भी न जाने कितनी जिनके नाम याद नहीं।तब सब जाते थे देखने और हम बच्चे भी खुशी में चहकते हुए।

पांच दिन लगातार 'दिलवाले दुलहनियां ले जाएंगे'
फिर हम बड़े हुए और परिवार के साथ जाने पर जैसे हमारा कद घट जाता था सो परिवार की जगह दोस्तों ने ले ली थी और जो पहली फिल्म दोस्तों के साथ देखी वो थी 'दिलवाले दुलहनियां ले जाएंगे'। ये वो दिन थे जब हम नये नये जवान हो रहे थे और अपनी जवानी पर बड़े इतराते थे पर इस फिल्म ने जिंदगी के आवारापने पर बड़ा कहर ढाया और हमें संजीदा बना दिया। इस फिल्म का ऐसा असर रहा कि रात भर सो न सके और अगले दिन फिर से जाकर काउंटर की लाइन में खड़े हो गए। टिकट के पैसे अगले हफ्ते लगने वाली फिल्म के लिए थी और एक ही फिल्म के लिए दो बार पैसे लुटाना बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं था,लेकिन मन कहां माने राज और सिमरन के लिए हमारे दिल धड़कने लगे थे। दूसरे दिन फिल्म देखने के बाद भी हमारा जी नहीं भरा तो हमलोगों ने अपने चाय और समोसे कुर्बान कर दिये और अगले दो दिन भी फिल्म देख ली। चार दिन लगातार फिल्म देखने के बाद पांचवे दिन के लिए हमारी जेब ने हाथ खड़े कर दिये। कोई उपाय न देख पांचवे दिन हम सभी दोस्तों ने एक उपाय निकाला और अगले दिन हम सभी अपने अपने पंचर सायकल सड़कों में घसीटते हुए आखिरकार सिनेमा हाल की दीवार से टिका दी। झूठ को जितने तरीके से मरोड़ा जा सकता था हमने मरोड़ दिया। पांच दिन एक फिल्म को देखने के बाद भी हमारा जी नहीं भरा था और कोई रास्ता नहीं था फिर भी हमने अपने सायकल उधर मोड़ दिया और उस दिन जैसे चमत्कार हुआ और टॉर्च वाले को हम पर दया आ गई और हमें आगे की सीट पर बिठा दिया। हमारे संकट के समय में टॉर्च वाला देवदूत बनकर अवतरित हुआ था। ये तो थी हम पगलों की बात पर इस फिल्म ने जैसे हमारे शहर को भी एक धागे में बांध दिया था। टाउनशिप के डॉक्टर,इंजीनियर,हमारे टीचर,पापा और उनके दोस्त. मां और दीदी की मंडली सब ने मिलकर एक सुर में इस फिल्म को देखा और विकास टाकीज के कैंपस में दिन चटाखेदार धूप की तरह चमकने लगी थी और रातें शंघाई की तरह सजती थी। टाकीज के बाहर बाजार थे। सारा शहर सिनेमा के रंग में डूबा हुआ था। ये विकास टाकीज के सुनहरे दिन थे,जिसके मैनेजर को स्टेशन मास्टर और टीटी साहेब से अधिक सम्मान दिया जाता था और जिनका कद एसबीआई के बैंक मैनेजर से ज्यादा था। ये सिनेमा हाल हमारे टाउनशिप की संस्कृति बन चुका था। खुशी के हर मौके पर लोग परिवार सहित इस हाल में आते थे। लोग अपने रिश्तेदारों को लेकर आते थे और गर्व से यहां फिल्म दिखाते थे।
ये सिलसिला आगे के कई सालों तक चलता रहा,मगर धीरे धीरे धूप ढलने लगी और इन्ही में से किसी दिन "विकास" "विस" में बदल गया। और तभी इनके पोस्टर बदलने लगे थे। अब उस पर लगे पोस्टर या तो "गुंडा" जैसी फिल्मों की होतीं थी या मिथुन दा की "जल्लाद" और कभी-कभार "सर कटी लाश" तक भी बात पहुंच जाती थी ।

कालोनी की ज़िन्दगी और 'मोहरा'
कालोनी लाइफ की अपनी मजबूरियां होती हैं। यहां पर बच्चों और बच्चों के मां-बाप को पढ़ने और पढ़ाने की एक बीमारी होती है।सुबह चार बजे सब एक-दूसरे के घरों की तरफ देखते हैं कि किन की लाइट जल रही है। लाइट जलने का मतलब ये है कि मिश्रा जी का बेटा या बेटी पढ़ाई कर रहें हैं तो जब वो पढ़ाई कर रहें हैं तो हमे भी पढ़ाई करनी चाहिए। इस लोकप्रिय सिद्धांत के फलस्वरूप हमें सुबह कड़कडाती ठंड में पढ़ाई करने को मजबूर किया जाता था। शाम के वक़्त घरों में कुछ शब्द रोज-रोज सुनाई देते थे मसलन आई आई टी,मेडिकल,कोचिंग, फिजिक्स, कैलकुलस, brillient tutorials ... फलाने जी के लड़के का आइआइटी में हो गया। फलाने जी की लड़की का एम्स में हो गया है। तो घरों पर,चाय की दुकान पर,राशन की दुकान पर,जहां देखो यही बातचीत। हर अभिभावक अपने बच्चों के लिए प्रभावी कोचिंग कराने की तैयारी में लगा हुआ है। और जब कालोनी के एकमात्र सिनेमा हाल में "गुंडा" जैसी फिल्में लगने लगें तो उधर का रुख करना आत्महत्या के बराबर था और अगर गलती से कोई फिल्म देख ली तो फिर खैर नहीं। अब "विकास" भरी दुपहरी में ऊंघता रहता और कोई भी उसके पास नहीं फटकता था। लेकिन मेरा मन नहीं मानता था। बचपन की आदत थी कैसे छूटे। एक घटना जो इस सिलसिले में याद आती है वो ये है कि एक साल जब छठ का आया तभी विकास टाकीज में "मोहरा" लगी हुई थी। उन दिनों हम अक्षय कुमार और सुनील शेट्टी की एक्शन फिल्मों के दीवाने थे,लेकिन देखने का कोई सुनहरा मौका नजर नहीं आ रहा था। लेकिन "छठ" ने ये समस्या सुलझा दी थी इसलिए छठ के दिन जब सारा परिवार नदी किनारे छठ मनाने जा रहा था तो मैने तबियत खराब होने का दुनिया का सबसे पुराना बहाना बनाया,जिसमें पानी के पास फटकने से भी उस तबियत के लिए और भी खतरा उठाना था,इसलिए मुझे घर पर रहने की छूट मिल गई और मैने बड़े मिजाज से घर में ताला जड़ कर "मोहरा" देख डाली,लेकिन जब घर लौटा तो नजारा कुछ और ही था। ताजा खबर ये थी कि छठ के इस शुभावसर पर किसी नास्तिक चोर ने हमारे आंगन में सूख रहे कपड़े गायब कर दिए थे। मैने बहाना लगाने की कोशिश की कि मैं दरवाजे खिड़कियाँ बंद कर सोया था,लेकिन फिर भी अपने हिस्से की डांट सुन ही ली. लेकिन अगले दो दिन तक जो अपने दोस्तों के बीच हीरो बनकर रहा,उसके सामने ये डांट तो कब का काफुर हो गया पता ही नहीं चला।

उम्र बढ़ी और बोकारो पहुंचे
लेकिन इसके बाद चंदपुरा में फिल्म देखना नामुमकिन हो गया। चंदपुरा काफी छोटी जगह है और इस छोटे जगह की समस्या ये है कि इसके पास न तो शहर जैसी आवाजाही और न भीड़भाड़ है है न ही गांव वाला "गंवईपन"। और गांव और शहर के बीच लटके इस टाऊनाशिप में लगभग पांच हजार लोग काम करते हैं इसलिए तकरीबन लोग एक-दूसरे को पहचानते हैं। इसलिए ये चोरी-छिपे फिल्म देखने का मतलब एक दिन घर में बात पहुंच जानी थी।इसलिए हम सब दोस्तों ने यह मशविरा किया कि फिल्में चंदपुरा को बजाए अपने नजदीकी शहर बोकारो में देखी जाए। लेकिन वहां जाएं कब क्योंकि हफ्ते में छह दिन तो इंटरमीडएट की कक्षा ये थी। काफी सोच-विचार कर इस नतीजे पर पहुंचे कि शनिवार को कलासेस बंक कर बोकारो निकल जाया जाए।बस फिर क्या था अगले ही शनिवार से हम पढ़ाई के नाम पर बैग में एक टी शर्ट ... कुछ नाम की किताबें और लंच बॉक्स लेकर अपनी सायकल में हम युनिफोर्म पहने घर से निकल जाते थे और जिस तरह से "राग दरबारी" में शक्कर की बोरियों से लदा टक कोआपरोटिव की तरफ न मुड़ कर शहर की तरफ सीधी निकल गयी थी और वहीं से कोआपरेटिव में गबन शुरु हो गया था,उसी तरह हमारी सायकलें स्कूल की तरफ न मुड़ कर बायें में नदी और जंगलों के बीच मुड़ जाती थी,जहां से बोकारो जाने का कच्चा रास्ता बना था। बोकारो जाने को लिए नदी का रास्ता काफी खराब था टेढ़े मेढ़े पथरीले पठारी। एक रस्ते में जितनी खराबियां हो सकती है वो सब उसमें मौजूद थी। तिस पर नदी में कोई स्थायी पुल भी नहीं था। नदी को किनारे वाले गांव के लोगो ने अपने आने-जाने के लिए बांस का एक पुल बनाया था,जिसे पैदल पार करने का भाड़ा आठ आना था और सायकल ले जाने का एक रुपया। हमलोगो में से हर एक के पास बमुश्किल १० या १२ रुपये होते थे,जिसमें एक रुपये उसमें चले जाते थे।हां इतनी मुरव्वत ठेकेदार ने हमारे लिए जरूर कर दी थी कि हमें आने के पैसे नहीं देने होते थे। और लगभग हर मौसम में हमने ये नदी पार की। कई बार गिरे बारिश में फंसे। कीचड़ में कपड़े भी गंदे हुए लेकिन सिनेमा घर में बड़े से परदे का मोह नहीं छोड़ पाते और इस तरह नदियों,पहाड़ों और जंगलों से होकर हम चांदी की तरह चमचमाते बोकरो स्टील सिटी में इंटर करते थे।साफ सुथरी चौड़ी सड़कें । दिन का पहला शो १२ बजे शुरु होता था। और हम वहां लगभग ११ बजे पहुंच जाते थे।वहां पहुंचकर एक अठन्नी सायकल पार्किंग वाले को देना पड़ता था और टिकट आती थी लगभग सात रुपए की। हालांकि आगे की टिकट पांच रुपए की ही आती थी,लेकिन आगे कौन बैठे। इतना पहाड़ पर्वत लांघने के बाद गरदन ऊंची करके देखने के लिए आए हैं क्या? इसलिए हम बालकनी में बैठते थे। बचते थे तीन या चार रुपए। उसमें भी अगर सायकल पंक्चर हो गया तो दो रुपये उस में चले जाते थे। इस एक घंटे के समय में हम घर से मिले अपने अपने लंच बॉक्स साफ कर देते थे।बोकारो में तीन सिनेमा हाल हैं देवी,जीतेन्द्र और पाली प्लाजा। देवी थोडा महंगा था इसलिए हम या तो जीतेन्द्र में देखते थे या पाली पर.ज्यादातर फिल्में हमने पाली मे हीं देखी। यहां देखी जो महत्त्वपूर्ण फिल्में याद हैं,वे सब ९० के मध्य दशक के बाद रीलिज हुई फिल्में थीं,जिनमे अजय देवगन की "जंग" थी।

सटीक गानों से मिलती थी मदद
ये वो वक़्त था जब हमारा अक्षय कुमार से मोहभंग हो चुका था और हमारा नया एक्शन हीरो था अजय देवगन। इसलिए "जंग" देखने के बाद हमने जीतेन्द्र सिनेमा घर में हमने अगले हफ्ते "दिलजले" देखी। उस उस फिल्म में एक गाना था जिसने हमारे ऊपर बडा एहसान किया था। एहसान इस तरह से कि इंटरमीडिएट में हमारे साथ बहुत सारी नयी लडकियां आयीं और उनको खुद की तरफ खींचने के लिए ये गाना एकदम सटीक था और वो गीत था "जिसके आने से रंगों मे डूब गई है शाम सोच रहा हूं उससे पूछूं उस लड़की का नाम। और अगली लाइन में बड़े अच्छे लफ्जों का प्रयोग किया गया था। कहना न होगा कि इस गीत ने हमारा कितना काम किया। अगली फिल्म जो पाली में लगायी गयी वह थी सुपरहिट फिल्म "राजा हिन्दुस्तानी"। इस फिल्म के गाने पहले ही हिट हो चुके थे "परदेसी परदेसी" ने जो धमाल मचाया था,उससे पूरा माहौल "परदेसी परदेसी" हो गया था। जिनकी प्रेमिकाएं एक दिन के लिए भी शहर से बाहर अपने रिश्तेदारों के पास चली जाती थी उनके आशिकों के मुंह से अचानक "परदेसी परदेसी जाना नहीं " निकल जाता था और मुझे याद है शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां उन दिनों "राजा हिन्दुस्तानी " का आडियो कैसेट न हो। कई बार तो एक ही मोहल्ले से एक ही साथ कई घरों से "परदेसी परदेसी" की आवाजें आती थी। खैर इस फिल्म ने इतना उत्पात मचाया कि लोग "दिलवाले दुलहनियां " और "हम आपके हैं कौन" की अगली कड़ी के रुप में इस फिल्म को देखने लगे।

सनी देओल का जादू
हमारे दूसरे सुपरस्टार थे "सनी देऒल"। उस समय अचानक पाली में एक के बाद एक सनी देऒल की फिल्में लगने लगी थी।पोस्टर देखकर हम इत्मीनान कर लेते थे कि उसमें कीमती इबारतें जैसे "रोमांस और मारधाड़ एकशन से भरपूर" और
ये पढ़ने के बाद जब तक फिल्म देख नहीं लेते थे तब तक हमें चैन नहीं मिलता था। सडकों पर जब सनी साहब हीरोइन के लिए मारपीट करते थे तो हमें अनिर्वचनीय खुशी मिलती थी। उन दिनों हमने उनकी जो जो फिल्में देखीं वे थीं सबसे पहले 'बॉर्डर' फिर जैकी सनी मनीषा की "दुश्मनी"। उसके बाद देखी थी "घातक" और फिर "अजय"। "अजय" हमें खास प्रिय था क्योंकि उसमें एक गीत था "छम्मकछल्लो जरा धीरे चलो वरना जाऒगी फिसल जो कि फिर से हमारे बड़े काम का था। इस फिल्म का नशा किसी ने तोड़ा तो वो थी सनी देओल ,करिश्मा कपूर,सलमान अभिनीत "जीत" ने। इस फिल्म के पोस्टर पर लिखा था "एक वायलेंट लव स्टोरी "। ये लाइन हमें आकर्षित कर गई क्योंकि हम उन दिनों ऐसी अवसथा में थे,जहां हम अपनी प्रेमिकाओं के लिए किसी भी तरह का "वायलेंस" कर सकते थे। ये अलग बात थी कि उसके बाद भी वे हमें घास नहीं डालती थीं। सनी देऒल का भी हमारे ऊपर काफी गहरा असर था जिसके फलस्वरूप हमने कई स्थानों पर कुछ हुड़दंग और मारपीट तक कर दी थी। इसके लिए दो फिल्में जो हमें याद हैं जो हमने केवल देखने को लिए देख ली थी वे थी "अग्निसाक्षी " और "बाल ब्रह्मचारी " । "अग्निसाक्षी' हम नाना पाटेकर के लिए गए थे और "बाल ब्रह्मचारी " हम राजकुमार साहब को सुपुत्र का अभिनय देखने के लिए गए थे। उन दिनों हमें अभिनय कितना समझ में आता था इसका तो हमें अंदाजा नहीं,लेकिन जितना आता था वो भी हम उस फिल्म के साथ भूल गए। फिर शाहरुख खान की "करण अजुन" कहीं से लौटकर फिर से पाली में लगी। बस फिर क्या था। हम ममता कुलकर्णी को दीवाने हो गए जो अक्षय कुमार की "सबसे बडा खिलाड़ी " में जाकर चरम सीमा में पहुँच गई। उन दिनों हमारे सुपरस्टार अलग-अलग अवतारों जैसे शाहरुख लौट रहे थे "चाहत" से। माधुरी अंखियां मिलाते हुए लौटीं "राजा" से और अक्षय "सबसे बडा खिलाड़ी" से। और ये सब फिल्में हमने पाली में देख लीं।

टीटी की वैकेंसी और 'डर '
उन्हीं दिनों किसी दोस्त ने बताया कि शाहरुख की चर्चित फिल्म "डर" फिर से कतरास के लक्ष्मी टाकीज मे आयी है। हमने "करण अर्जुन " देख ली थी और "डर" के बारे में इतना सुन रखा था कि हम इस मौके को हाथ से जाने देना नहीं चाहते थे। हमारा "अनुसंधान" कहता था कि "डर" का फिलहाल पाली क्या बोकारो के किसी भी सिनेमाघर में लगना संभव नहीं है इसलिए इस फिल्म को कतरास में ही देखा जा सकता था। तो इस विषय पर हमारी टोली की एमरजेंसी मीटिंग बुलाई गई और "डर" देखने की योजना पर गंभीर विचार विमर्श हुआ। तमाम तरह की संभावनाऒं को टटोलने के बाद हमें कोई सालिड बहाना नहीं मिल रहा था। तभी एक ऐसे मित्र ने जो हमारे गैंग में शामिल नहीं था और जो "पढाकुऒं" की श्रेणी में आता था उसने आकर पूछा कि रेलवे ने टीटी की वैकेंसी निकाली है और क्या तुम लोगों में से कोई जाना चाहता है क्या । पहले तो हमने उसे भगा दिया,लेकिन हममे से एक का ध्यान उस पर अटका रहा और उसने बाद में हमें चेताया कि वह पढ़ाकू हमें काम की बात बता गया है।हम सब का माथा ठनका और फामॆ चूँकि चंदपुरा जैसे छोटे जगह में मिलना मुश्किल था इसलिए हमने अपने घरों में ये कहा कि हम टीटी के लिए एप्लाई करना चाहते थे,इसलिए फामॆ लाने धनबाद जाना होगा । घरवाले आशचयॆचकित लेकिन थोडे खुश भी हुए। उनहें लगा कि हम कैरियर के पति काफी सचेत हो रहें हैं। लेकिन घर के बड़ों ने कहा कि फामॆ हम ला देते हैं तुम क्यों जा रहे हो? हमने जिस तरह से इस बात का प्रतिवाद किया उतना कभी पढाई को लेकर नहीं किया। मैंने कहा कि अब हम बड़े हो गए हैं अभी दुनिया नहीं देखेंगे तो कब देखेंगे और इस तरह के तमाम वाहियात से तकॆ दे दे कर मैंने घर से छुट्टी ले ली । कमोबेश ऐसी ही स्थिति का सामना बाकी दोस्तों ने भी किया लेकिन अंतत: सभी दोस्त इतवार की सुबह सुबह स्टेशन पर मिल ही गए और हम धनबाद जाने वाली ट्रेन में बैठ गए लेकिन हम धनबाद जाने के बजाए चुपके से कतरास उतर गए और वहां से सीधो लक्ष्मी टाकीज पहुंच गए। सिनेमा हाल अभी खुला भी नहीं था और लगभग दो घंटे इधर-उधर भटकने के बाद हाल खुला और हमने सबसे पहले लाइन में खड़े होकर टिकट ले लिया। वो हाल क्या था ज्यादातर दर्शकों का अनुमान था कि ये हाल नहीं गोदाम है। चूहे हमारे शरीर के ऊपर दौड़ रहे थे. परदे नीचे से फटा हुआ था। कुर्सियों में गद्दी नाम की थी पर एक बार फिल्म शुरु हो जाने के बाद इन सब बातों का खयाल कहां रहता है। "डर" देखकर जो आत्मा को शांति मिली थी,वह हमारी आत्मा ही जानती थी। लेकिन घर लौटते वक़्त सबके जेहन में एक ही सवाल था कि फामॆ का क्या बहाना बनाएंगे। खैर इस मुश्किल सवाल का एक सीधा-साधा जवाब ढूढ लिया गया और जो होगा सो देखा जाएगा के तजॆ पर घर में एंट्री मार दी। घरवालों ने पूछा तो आत्मविश्वास से भरकर कह दिया कि फामॆ ख़त्म हो गया अगले हफ्ते आएगा। इस जवाब के तह में जाने की किसे फुसॆत थी सो उस दिन बडी अचछी नींद आयी।

और फिर मैं "परदेसी" हो गया
इतना सब कुछ करते हुए कब इंटरमीडिएट की परीक्षाएं आ गईं पता ही नहीं चला। रिजलट आते आते हम सब दोसत ये समझ चुके थे कि अब हमारा यहां से आगे की पढाई के लिए रूखसत का वक़्त है। वो नदी,पहाड़, जंगल,फिल्में सब कुछ हम से छूट रहे था और मैं दिल्ली जाने वाली गाड़ी में बैठ चुका था। दिल्ली जाते वक़्त सारे सिनेमाई परदे मेरी आंखों के सामने से गुजरने लगे। एक पल के लिए लगा जैसे शायद ही फिर कभी लौटना होगा। उस वक़्त सचमुच लगा कि मैं "परदेसी" हो गया।


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Comments

vinitutpal said…
bahut khuub. jamia kee padhai kaa asar lekh men dikh raha hai. manmohak prastuti.
Unknown said…
Its really nice dear... hume bhi apne bachpan ki yadon ko yaad karne ke liye majboor kar diya...

warna hum software wale sirf logic lagane ke alwa kuchh sochte hi nahi..

Good to see you in film industry.. Hoping more from u for this industry..

Thanks Dear..
Ranjeet Prasad,
S/w Engg
Pavan said…
दीपांकर,

बहुत खूब!

ये लहर ज़िन्दगी में यूं ही बरक़रार रहे!
apke cinemayi safar se rubaru hokar bahut achcha laga. likhne ka andaz mazedaar hai. shukriya.
cinefare said…
sach hi kha hai dipankar aapne..zindagi me filmo ka contribution hai to zaroor

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