दरअसल:क्या पटकथा साहित्य है?

अजय ब्रह्मात्मज
हर फिल्म की एक पटकथा होती है, इसे ही स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले भी कहते हैं। पटकथा में दृश्य, संवाद, परिवेश और शूटिंग के निर्देश होते हैं। शूटिंग आरंभ करने से पहले निर्देशक अपनी स्क्रिप्ट पूरी करता है। अगर वह स्वयं लेखक नहीं हो, तो किसी दूसरे लेखक की मदद से यह काम संपन्न करता है। भारतीय परिवेश में कहानी, पटकथा और संवाद से स्क्रिप्ट पूरी होती है। केवल भारतीय फिल्मों में ही संवाद लेखक की अलग कैटगरी होती है। यहां कहानी के मूलाधार पर पटकथा लिखी जाती है। कहानी को दृश्यों में बांटकर ऐसा क्रम दिया जाता है कि कहानी आगे बढ़ती दिखे और कोई व्यक्तिक्रम न पैदा हो। शूटिंग के लिए आवश्यक नहीं है कि उसी क्रम को बरकरार रखा जाए, लेकिन एडीटिंग टेबल पर स्क्रिप्ट के मुताबिक ही फिर से क्रम दिया जाता है। उसके बाद उसमें ध्वनि, संगीत आदि जोड़कर दृश्यों के प्रभाव को बढ़ाया जाता है। पटकथा लेखन एक तरह से सृजनात्मक लेखन है, जो किसी भी फिल्म के लिए अति आवश्यक है। इस लेखन को साहित्य में शामिल नहीं किया जाता। ऐसी धारणा है कि पटकथा साहित्य नहीं है। हिंदी फिल्मों के सौ सालों के इतिहास में कुछ ही फिल्मों की पटकथा पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो सकी है। गुलजार, राजेन्द्र सिंह बेदी और कमलेश्वर की फिल्मों की पटकथाएं एक समय न केवल प्रकाशित हुई, बल्कि बिकीं भी, लेकिन फिर भी उन्हें साहित्य का दर्जा हासिल नहीं हुआ! साहित्य के पंडितों के मुताबिक पटकथा शुद्ध शुद्ध रूप से व्यावसायिक लेखन है और किसी फिल्म के लिए ही उसे लेखक लिखते हैं, इसलिए उसमें साहित्य की मौलिकता, पवित्रता और सृजनात्मकता नहीं रहती। साहित्य की सभी विधाओं की तरह पटकथा लेखक की स्वाभाविक और नैसर्गिक अभिव्यक्ति नहीं है, इसलिए उसे साहित्य नहीं माना जा सकता। फिल्मों के लेखक और साहित्यकारों के बीच इस मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई है। दरअसल, फिल्मों के लेखक यह मानते हैं कि उनका लेखन किसी प्रकार से साहित्यिक लेखन से कम नहीं है। उसमें भी मौलिकता होती है और वह फिल्म के रूप में अपने दर्शकों को साहित्य के समान दृश्यात्मक आनंद देती है।
मशहूर फिल्म लेखक और शायर जावेद अख्तर कहते हैं कि पटकथा के प्रति प्रकाशकों और साहित्यकारों को अपना दुराग्रह छोड़ना चाहिए! उनकी राय में हिंदी में ऐसी कई फिल्में बनी हैं, जिनकी पटकथा में साहित्यिक संवेदनाएं हैं और इसीलिए उन्हें पुस्तक के रूप में भी पढ़ा जा सकता है। वे अपने तर्क का विस्तार नाटकों तक करते हैं। वे कहते हैं कि नाटकों का मंचन होता है। उसमें भी अभिनेता, संगीत और अन्य कला माध्यमों का उपयोग होता है। वह भी दर्शकों के मनोरंजन के लिए ही रचा जाता है। वे पूछते हैं कि अगर नाटक साहित्यिक विधा है, तो फिर पटकथा से परहेज क्यों है? जावेद अख्तर चाहते हैं कि श्रेष्ठ हिंदी फिल्मों की पटकथा प्रकाशित होनी चाहिए। मराठी के नाटककार और होली और पार्टी जैसी फिल्मों के लेखक महेश एलकुंचवार स्पष्ट कहते हैं कि पटकथा को साहित्यिक दर्जा नहीं दिया जा सकता। पटकथा स्वयं पूर्ण रचना नहीं होती। प्रकाश और ध्वनि के साथ मिलकर वह फिल्म का रूप लेती है। अगर पटकथा प्रकाशित की जाएगी, तो उसमें सहायक साधनों को नहीं रखा जा सकेगा। प्रकाश और ध्वनि के अभाव में पटकथा का वही प्रभाव नहीं रहेगा, जो फिल्म देखते समय रहा होगा। साहित्य के पंडित और आलोचकों के पास और भी तर्क हैं। पटकथा के प्रभाव को भारतीय दर्शक अच्छी तरह समझते हैं। फिल्म प्रभावशाली माध्यम है और इसका असर व्यापक होता है। कई बार फिल्मों के रूप में आने के बाद साहित्यिक विधाएं ज्यादा लोकप्रिय हुई हैं। ताजा उदाहरण फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर है। इसकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए प्रकाशक ने उपन्यास का मूल नाम क्यू एंड ए बदल दिया है। साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे, जिन्हें फिल्मों की वजह से ज्यादा पाठक मिले। इस लिहाज से अगर पटकथा को स्वतंत्र कृति के रूप में प्रकाशित किया जाए, तो निश्चित ही पाठक फिल्म का साहित्यिक आनंद उठा सकेंगे। मुमकिन है, कुछ दशक बाद उन्हें साहित्य का दर्जा भी हासिल हो जाए!

Comments

Anonymous said…
मेरी महेश एलकुंचवार से असहमति है. पटकथा एक पूर्ण रचना ही होती है. यदि कुछ लोग पटकथा को साहित्य से परे रखने के लिये कहतें है तो यही माना जाना चाहिये कि वो अपने लिये कौना बचाये रखने की कोशिश कर रहे हैं.

व्यावसायिक लेखन, साहित्य की मौलिकता, पवित्रता और सृजनात्मकता वगैरह तो मुझे जुमले बाजी ही लगतीं है.

वैसे जिसे आजकल साहित्य कहा जा रहा है वह क्या अब बिकता है? कितना बिकता है? नाटक को साहित्य मानते हैं लेकिन पिछले पांच साल में कितने नये नाटक छपे हैं? पटकथा को साहित्य में शामिल करके किताब छाप कर लायेंगे भी तो खरीदेगा कौन?
कौन खरीदता है आजकल किताबें? बोधी भाई तो अपने घर में किताबों कि बहुलता से परेशान हैं!

सो पटकथा सौ टके साहित्य हैं लेकिन इस पर कोई लेबिल चिपके या न चिपके इसे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला.
सर,आपकी बात से सहमती जताते हुए कहना चाहूँगा कि कुछ साल पहले जब गुलज़ार साहब ने अपनी कुछ फिल्मों की पटकथा को मंज़रनामों का नाम देकर वाणी प्रकाशन से पब्लिश करवाया ,तो मार्केट में ,साहित्यिक हलकों में भी उसका अच्छा स्वागत हुआ.और इससे गुलज़ार साहब के सिनेमा की अन्य बारीकियों को जानने का मौका भी मिला.आंधी,मीरा,मेरे अपने,इत्यादि कुछ ऐसे ही मंज़रनामें थे.यह सही है कि फिल्मों की पटकथा को यदि बुक-फॉर्म में लाया जाये तो इस माध्यम के प्रति एक उम्दा समझ जो मेरे हिसाब से कहीं अधिक साहित्यिक होगी,ज्यादा रोचक होगी,बढेगी.
इन सबसे अलग एक बात है,आपको याद होगा कि सिनेमा हॉलों के कम्पाउंड में या आस-पास के मुख्य सड़क के किनारे पहले फिल्मों (चर्चित और उन्ही दिनों आई हुई)के कहानियों वाली पॉकेट साईज किताबें बेचीं जाती थी.शायद २ या ३ रुपये में.फिर बाद में डायमंड कामिक्स वालों ने फ़िल्मी चित्रकथा निकालनी शुरू की थी.इनमे से शायद मेरे पास घर पे एकाध अभी भी हों .जैसे कि 'जूनून,हम,जिगर,अंगार. ऐसी ही कई फिल्में पर शायद ठीक-ठाक रेस्पोंस नहीं मिलने के कारण बंद हो गयीं.
महेन said…
मुद्दा तो बहस का है. पश्चिम में इस बात को लेकर सहजता है. दरअसल बात तो यह है कि अपने यहाँ तो साहित्य की मार्किट ही सिमट रही है तो साहित्य-साहित्य खेलने वाले किसी और को अपनी गाय क्यों दोहने दें, जब उनके खुद के ही फ़ाके पड़ रहे हों.

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