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Showing posts from March, 2009

जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है देश-महेश भट्ट

देशभक्ति क्या है? अपनी जन्मभूमि, बचपन की उम्मीदों, आकांक्षाओं और सपनों का प्रेम है या उस भूमि से प्रेम है, जहां अपनी मां के घुटनों के पास बैठ कर हमने देश के लिए स्वतंत्रता की लडाई लडने वाले महान नेताओं गांधी, नेहरू और तिलक के महान कार्यो के किस्से सुने या झांसी की रानी और मंगल पांडे के साहसी कारनामे सुने, जिन्होंने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों को आडे हाथों लिया था? संक्षेप में, क्या देशभक्ति एक खास जगह से प्रेम है, जहां की हर इंच जमीन आनंद और खुशी से भरपूर बचपन की प्रिय और कीमती यादों से भरी होती है? मां सुनाओ मुझे वो कहानी अगर यही देशभक्ति है तो ग्लोबलाइजेशन और शहरीकरण के इस दौर में चंद भारतीयों को ही यह तमगा मिलेगा, क्योंकि उनके खेल के मैदान अब हाइवे, फैक्ट्री और शॉपिंग मॉल में तब्दील हो गए हैं। चिडियों की चहचहाहट को गाडियों और मशीनों के शोर ने दबा दिया है। अब हमें महान कार्यो के किस्से भी नहीं सुनाए जाते। आज की मां अगर किस्से सुनाने बैठे तो उसे अमीर और गरीब के बीच की बढती खाई, शहरी और ग्रामीण इलाकों के बीच न पटने वाली दूरी और गांधी की भूमि में भडकी सांप्रदायिक हिंसा के न सुनाने लाय

हिन्दी टाकीज: वो दिन याद करो-विपिन चौधरी

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हिन्दी टाकीज -३० हिन्दी टाकीज का सफर तीसवें पड़ाव तक पहुँच गया.इस बार विपिन चौधरी के संस्मरण पढ़ें.विपिन अपने बारे में लिखती हैं, मैं मुख्यतः कवियत्री हूँ। मेरा ब्लाग है http:// vipin-choudhary.blogspot.com के अलावा मेरी कहानियाँ और लेख भी विभिन्न पत्रिकाओं प्रकाशित हुयें हैं कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित।फिलहाल मीडिया से सम्बंधित हूँ। उस वक्त फिल्में को देखा नहीं बल्कि जिया जाता था। बात इतनी पुरानी भी नहीं की समय की धूल उसे अपनी ओट में ले लें। टिक्टों के बैल्क का अच्छा खासा व्यापार चलता था उन दिनों। उन्हीं दिनों कुछ अच्छें सपनों के साथ अच्छी फिल्में भी देखी। तब मनोरंजन इतना मंहगा नहीं हुआ करता था, थोडे खर्च में बडा मनोरंजन हो जाया करता था। उस वक्त सिनेमा देखना अच्छा अनुभव हुआ करता था तब फिल्में इतनी समझ में नहीं आती थी और अब फिल्में देखना बखूबी समझ आता है तब सिनेमा देखना कोई दिल को छूने वाला अनुभव नहीं रह गया है। मलटीप्लैक्स सिनेमा वह जादू नहीं पैदा करता जो हमारे छोटे शहर का छोटा सा सिनेमा हाल पैदा किया करता था। इस भडकीलें समय ने सहजता की जो साधारण खूबसूरती होती है वह हमसें छीन ली है

फ़िल्म समीक्षा:विदेश, आ देखें ज़रा और एक

दीपा मेहता की साधारण फिल्म 'विदेश ' दीपा मेहता ख्यातिलब्ध निर्देशक हैं। उनकी फिल्मों से भारतीय दर्शक परिचित हैं। भारतीय परिवेश में सामाजिक मुद्दों और महिलाओं पर केंद्रित उनकी फिल्मों पर विवाद भी हुए हैं। वह संवेदनशील फिल्मकार हैं, लेकिन विदेश में उनसे चूक हो गई है। फिल्म का विषय उनकी सोच और शैली का है पर चित्रण कमजोर है। लुधियाना की लड़की चांद (प्रिटी जिंटा) की शादी राकी (वंश भारद्वाज) से हो जाती है। अपनी आंखों में सपने लिए वह कनाडा पहुंचती है। वहां शुरू से ही उसे पति के हाथों प्रताडि़त होना पड़ता है। विदेशी भूमि में लाचार और विवश चांद की मदद जमाइका की रोजा करती है। रोजा उसे एक बूटी देती है और बताती है कि यदि वह इसे पति को पिला दे तो वह उस पर आसक्त हो जाएगा। चांद कोशिश करती है, लेकिन घोल का रंग लाल होता देख उसे बाहर फेंक आती है। संयोग से उसे नाग पी लेता है। वह इछाधारी नाग है। नाग उसके पति के रूप में आकर उसे भरपूर प्रेम देता है। असली और मायावी पति के बीच चांद की दुविधा और बढ़ती है..। दीपा मेहता ने रियल कहानी में एक फैंटेसी जोड़ी है। लेकिन फैंटेसी फिल्म का प्रभाव बढ़ाने के बजाए

दरअसल:हिन्दी फिल्में और उनकी समीक्षा

पिछले दिनों एक युवा निर्देशक ने मुंबई के अंग्रेजी फिल्म समीक्षकों की समझदारी पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि उन्हें न तो भारतीय फिल्मों की समझ है और न भारतीय समाज की! उन्होंने यह भी बताया कि वे मुंबई में पले-बढ़े और अंग्रेजी फिल्में देखकर ही फिल्म क्रिटिक बने हैं। इतना ही नहीं, अभी सक्रिय फिल्म समीक्षकों में से अधिकांश गॉसिप लिखते रहे हैं। उनकी समीक्षाएं सितारों और निर्माता-निर्देशकों से उनके रिश्ते से भी प्रभावित होती हैं। कई समीक्षक वास्तव में लेखक और निर्देशक बनने का सपना पाले रहते हैं। उन्हें उम्मीद रहती है कि शायद किसी दिन मौका मिल जाए! उनके इन हितों, मंशाओं और अज्ञानता से फिल्म समीक्षा प्रभावित होती है। ट्रेड सर्किल और दर्शकों के बीच उनके लिखे शब्दों का असर होता है। कई बार फिल्मों के बारे में गलत धारणाएं बनने के कारण फिल्में ध्वस्त हो जाती हैं। मुंबई के फिल्म समीक्षकों से इस शिकायत के बावजूद अधिकांश निर्माता-निर्देशक पत्र-पत्रिकाओं में छपी समीक्षाओं में दिए गए स्टार्स को लेकर व्याकुल रहते हैं। वे अपनी फिल्मों के प्रचार में फिल्म समीक्षाओं से ली गई पंक्तियां और स्टार्स छापते हैं। मकसद

दरअसल:महिलाएं जगह बना रही हैं!

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं की सक्रियता बढ़ी है। समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह फिल्म इंडस्ट्री में विभिन्न स्तरों और विभागों में महिलाएं दिखने लगी हैं। किसी भी फिल्म की शूटिंग में आप महिला सहायकों को भागदौड़ करते देख सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे केवल निर्देशन में सहायता कर रही हों। कैमरा, साउंड और प्रोडक्शन की जिम्मेदारी निभाती सहायिकाओं से अमिताभ बच्चन तक प्रभावित हैं। उन्होंने अपने ब्लॉग में कई बार इस तब्दीली का उल्लेख भी किया है। हम महिला निर्देशकों के नाम से परिचित हैं। बाकी विभागों के तकनीशियन चेहरे और नाम से नहीं जाने जाते हैं। हम लोग कितने कैमरामैन, साउंड इंजीनियर या एडीटर के बारे में विस्तृत जानकारी रखते हैं? फिल्म इंडस्ट्री के बीच कुशल और योग्य तकनीशियनों की मांग रहती है। फिर भी मीडिया और फिल्म के प्रचार में न तो इन तकनीशियनों के नाम का सहारा लिया जाता है और न ही ऐसी जरूरत समझी जाती है कि दर्शकों को उनके बारे में बताया जाए! परिणामस्वरूप वे सभी गुमनाम ही रह जाते हैं। बहरहाल, इधर दो-चार साल की फिल्मों की तकनीकी टीम पर नजर डालें, तो हम पाएंगे कि महिलाओं क

फ़िल्म समीक्षा:फ़िराक

अस्मिता व विश्वाद्य से टकराती सच्चाइयां थिएटर और अलग किस्म की फिल्मों से पहचान बना चुकी नंदिता दास ने निर्देशन में कदम रखा तो स्वभाव के मुताबिक गंभीर सामाजिक मुद्दा चुना। फिराक का विचार उनके व्यक्तित्व से मेल खाता है। फिराक में मनोरंजन से अधिक मुद्दे पर ध्यान दिया गया है। गुजरात के दंगों के तत्काल बाद के अहमदाबाद में छह कथा प्रसंगों को साथ लेकर चलती पटकथा एक-दूसरे का प्रभाव बढ़ाती है। नंदिता ने मुश्किल नैरेटिव चुना है, लेकिन कैमरामैन रवि चंद्रन और अपने संपादक के सहयोग से वह धार्मिक अस्मिता, दोस्ती, अपराध बोध, खोए बचपन व विश्वास को ऐसे टटोलती हैं कि फिल्म खत्म होने के बाद सभी किरदारों के लिए हमें परेशानी महसूस होती है। यह फिल्म तकनीशियनों के सामूहिक प्रयास का सुंदर उदाहरण है। नंदिता दास ने फिल्म शुरू होने पर तकनीशियनों की नामावली पहले देकर उन्हें यथोचित सम्मान दिया है। नीम रोशनी और अंधेरे के बीच चलती फिल्म के कई दृश्य पारभासी और धूमिल हैं। रवि चंद्रन ने फिल्म में प्रकाश संयोजन से कथा के मर्म को बढ़ाया है। फिल्म में कुछ भी लकदक और चमकदार नहीं है। दंगे के बाद की उदासी महसूस होती है। सांप्

हिन्दी टाकीज:सिनेमा बचपन में 'अद्भुत' लगता था-सुयश सुप्रभ

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हिन्दी टाकीज-२९ सुयश सुप्रभ ...ऐसा लगता है की दो नाम हैं.हिन्दी फिल्मों का सन्दर्भ लें तो कोई जोड़ी लगती है,जैसे सलीम-जावेद,कल्याणजी-आनंदजी.सुयश सुप्रभ एक ही व्यक्ति हैं.दिल्ली में रहते हैं और स्वतंत्र रूप से कई काम करते हैं,जिनमें अनुवाद खास है,क्योंकि वह आजीविका से जुड़ा है.पिछले दिनों चवन्नी दिल्ली गया था तो सुयश से मुलाक़ात हुई.यह संस्मरण सुयश उस मुलाक़ात से पहले चवन्नी के आग्रह पर भेज चुके थे.सुयश अपनी दुनिया या अपनी देखि दुनिया की बातें बातें दुनिया की ब्लॉग में लिखते हैं.उनका एक ब्लॉग अनुवाद से सम्बंधित है.उसका नाम अनुवाद की दुनिया है। सुयश को दुनिया शब्द से लगाव है।सुयश ने सिनेमा की अपनी दुनिया में झाँकने का मौका दिया है. हिन्दी टाकीज का सिलसिला चल रहा है.रफ्तार थोड़ी धीमी है। सिनेमा बचपन में 'अद्भुत' लगता था और आज भी लगता है। दूरदर्शन के ज़माने में रविवार की फ़िल्मों को देखकर जितना मज़ा आता था, उतना मज़ा आज मल्टीप्लेक्स में भी नहीं आता है। उस वक्त वीसीआर पर फ़िल्म देखना किसी उत्सव की तरह होता था। मोहल्ले के लोग एक-साथ बैठकर वीसीआर पर फ़िल्म देखते थे। कुछ 'अक्खड़&#

सही बदलाव दर्शक ही लाएंगे: इरफान खान

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों फो‌र्ब्स पत्रिका ने भारत के छह सुपरिचित फिल्म स्टारों की सूची और छवि प्रकाशित की। उनमें से एक इरफान खान थे। हाल ही में ऑस्कर के रेड कार्पेट समारोह और बाद की पार्टी में उन्हें पहचानने वालों में हालीवुड के बड़े सितारे भी थे। इरफान इस पहचान और प्रतिष्ठा से खुश हैं। लंबे संघर्ष के बाद मिली प्रतिष्ठा ने उन्हें संयमित रहना सिखा दिया है। अपने ऑस्कर अनुभव और अन्य विषयों पर उन्होंने खास बातचीत की- ऑस्कर के रेड कार्पेट पर चलने को किस रूप में महत्वपूर्ण मानते हैं? ऑस्कर ने ऐसी प्रतिष्ठा अर्जित की है कि अकादमी के लिए नामांकित होना भी बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। ऑस्कर के साथ सराहना और लोकप्रियता दोनों जुड़ी हुई है। हॉलीवुड की फिल्मों के साथ सराहना और लोकप्रियता दोनों जुड़ी हुई है। ऑस्कर से पुरस्कृत फिल्मों को आप खारिज नहीं कर सकते। अपने यहां फिल्मों की तरह अवार्ड विभाजित हैं। माना जाता है कि नेशनल अवार्ड सीरियस फिल्मों के लिए है तो पॉपुलर अवार्ड कमर्शियल फिल्मों के लिए । हालांकि इधर कुछ बदलाव नजर आ रहा है। उदाहरण के लिए मुंबई मेरी जान को पापुलर अवार्ड में जगह नहीं मिली है, ज

बॉलीवुड में हिन्दी सिर्फ़ बोली जाती है..

-अजय ब्रह्मात्मज अगर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भी सरकारी या अ‌र्द्धसरकारी संस्थान होता और भारतीय संविधान के राजभाषा अधिनियम के अंतर्गत आता तो शायद झूठे आंकड़ों से ही कम से कम यह पता चलता कि रोजमर्रा के कार्य व्यापार में यहां हिंदी का कितना प्रयोग होता है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कोई हिंदी अधिकारी नहीं है और न ही यह संसदीय राजभाषा समिति के पर्यवेक्षण में है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ऐसी इकाई भी नहीं है कि हिंदी के क्रियान्वयन की वार्षिक रिपोर्ट पेश करे। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के हिंदी परहेज का सबसे बड़ा सबूत है कि इसे बॉलीवुड कहलाने में गर्व महसूस होता है। जी हां, यह सच है कि बॉलीवुड में हिंदी सिर्फ बोली जाती है, लिखी-पढ़ी नहीं जाती। बॉलीवुड में कोई भी काम हिंदी में नहीं होता। आश्चर्य न करे फिल्मों के संवादों के रूप में हम जो हिंदी सुनते है, वह भी इन दिनों देवनागरी में नहीं लिखी जाती। वह रोमन में लिखी जाती है ताकि आज के फिल्म स्टार उसे पढ़कर बोल सकें। अमिताभ बच्चन का ही कथन है कि अभिषेक बच्चन समेत आज के सभी युवा स्टारों की हिंदी कमजोर है। कुछ कलाकार, निर्देशक और तकनीशियन अपवाद हो सकते है, लेकिन

फ़िल्म समीक्षा:गुलाल

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-अजय ब्रह्मात्मज इस दशक में आए युवा निर्देशकों में अनुराग कश्यप ने अपनी नयी शैली, आक्रामक रूझान, सशक्त कथ्य और नयी भाषा से दर्शकों के बीच पैठ बना ली है। अपनी हर फिल्म में वे किसी नए विषय से जूझते दिखाई पड़ते हैं। गुलाल राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी राजनीतिक फिल्म है। यह परतदार फिल्म है। इसकी कुछ परतें उजागर होती है और कुछ का आभास होता है। गुलाल हिंदी समाज की फिल्म है। किरदारों और कहानी की बात करें तो यह दिलीप (राजा सिंह चौधरी) से आरंभ होकर उसी पर खत्म होती है। दिलीप के संसर्ग में आए चरित्रों के माध्यम से हम विकट राजनीतिक सच का साक्षात्कार करते हैं। दुकी बना (के। के। मेनन) अतीत के गौरव को लौटाने का झांसा देकर आजादी के बाद लोकतंत्र की राह पर चल रहे देश में फासीवाद के खतरनाक नमूने के तौर पर उभरता है। दुकी बना और उसका राजनीतिक अभियान वास्तव में देश की व‌र्त्तमान राजनीति का ऐसा नासूर है, जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। अनुराग कश्यप ने किसी व्यक्ति, जाति,, समुदाय या धर्म पर सीधा कटाक्ष नहीं किया है। समझदार के लिए इशारा ही काफी है। दर्शक समझ जाते हैं कि क्या बातें हो रही हैं और किरदारों के बीच

फ़िल्म समीक्षा:१३ बी,ढूंढते रह जाओगे,कर्मा और होली

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-अजय ब्रह्मात्मज ठहरता नहीं है डर 13 बी डरावनी फिल्मों के लिए जरूरी है कि वे दर्शकों को जिज्ञासु बना दें। अब क्या होगा? यह सवाल दर्शकों के दिमाग में मंडराने लगे तो रोमांच पैदा होता है। फिर जब अगला दृश्य आए तो वह अपने प्रभाव से सिहरन और डर पैदा करे। यह प्रभाव दृश्य विधान, पाश्‌र्र्व संगीत और अभिनय से पैदा किया जाता है। 13बी देखते हुए जिज्ञासा तो बढ़ती है, लेकिन डर नहीं लगता। फिल्म का नायक मनोहर (आर माधवन) कर्ज लेकर नया अपार्टमेंट खरीदता है और पूरे परिवार के साथ वहां शिफ्ट करता है। मनोहर का हंसता-खेलता परिवार है। इसमें उसकी बीवी के साथ बड़े भाई, भाभी, भतीजे और मां हैं। शिफ्ट होने के दिन से ही कुछ गड़बड़ शुरू हो जाती है। मनोहर पढ़ा-लिखा और तार्किक व्यक्ति है। वह संभावित दुर्घटना से परिवार को बचाने की युक्ति में ऐसे सच को छू लेता है, जो पारलौकिक शक्तियों से संचालित है। लेखक और निर्देशक विक्रम के कुमार ने हारर फिल्म में नए तत्व इस्तेमाल किए हैं। उन्होंने अनोखे ढंग से हैरतअंगेज घटनाओं को कहानी का रूप दिया है। आरंभ के कुछ मिनटों की शिथिलता के बाद फिल्म के नायक मनोहर की तरह यह जिज्ञासा बढ़ने

हिन्दी टाकीज:फिल्मी गानों की किताब ने खोली पोल-ममता श्रीवास्तव

हिन्दी टाकीज-२८ इस बार ममता श्रीवास्तव.ममता गोवा में रहती हैं और ममता टीवी नाम से ब्लॉग लिखती हैं.चवन्नी इनका नियमित पाठक है.ममता की आत्मीय शैली पाठकों से सहज रिश्ता बनती हैं और उनकी बातें किसी कहानी सी महसूस होती हैं.चवन्नी ने उनसे आग्रह किया था इस सीरिज के लिए.ममता ने लेख बहुत पहले भेज दिया था,लेकिन तकनीकी भूलों की वजह से यह लेख पहले पोस्ट नहीं हो सका.उम्मीद है ममता माफ़ करेंगीं और आगे भी अपने संस्मरणों को पढने का मौका देंगीं। चवन्नी ने कई महीनों पहले जब हिन्दी टाकीज नाम से ब्लॉग शुरू किया था तब उन्होंने हमसे भी इस ब्लॉग पर सिनेमा से जुड़े अपने अनुभव लिखने के लिए कहा था पर उसके बाद कुछ महीनों तक तो हमने ब्लॉग वगैरा लिखना-पढ़ना छोड़ दिया था इस वजह से हमने हिन्दी टाकीज पर भी कुछ नही लिखा ।इतने सारे अनुभव और यादें है कि समझ नही आ रहा है कहाँ से शुरू करुँ । पर खैर आज हम cinema से जुड़े अपने अनुभव आप लोगों से बाँटने जा रहे है । सिनेमा या फ़िल्म इस शब्द का ऐसा नशा था क्या अभी भी है कि कुछ पूछिए मत ।वैसे भी ६०-७० के दशक मे film देखने के अलावा मनोरंजन का कोई और ख़ास साधन भी तो नही था । बचप

बिट्टू के बंधन

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-अजय ब्रह्मात्मज राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म 'दिल्ली 6' में सपनों के पीछे भाग रही बिट्टू बहकावे में आकर घर छोड़ देती है। संयोग से रोशन उसे बचा लेता है। अगर बिट्टू चांदनी चौक के फोटोग्राफर के साथ भाग गयी होती हो कहानी कुछ और हो जाती। हम आए दिन ऐसी बिट्टुओं के किस्से पढ़ते रहते हैं। उजाले की तलाश में वर्तमान जिंदगी के अंधेरे से निकलते समय सही दिशा-निर्देश के अभाव में गांव, कस्बे, छोटे शहरों और महानगरों की बिट्टुएं अंतहीन सुरंगों में प्रवेश कर जाती हैं। उनके अपने छूट जाते हैं और सपने पूरे नहीं होते। घर-समाज में हमारे आस पास ऐसी बिट्टुओं की भरमार है। अगर समाज उन्हें बंधनों से मुक्त करे, उन्हें आजादी दे, उन्हें साधिकार निर्भीक ढंग से घूमने-फिरने और अपना कॅरियर चुनने की स्वतंत्रता दे, तो अपना देश विकास की राह पर छलांगें लगाता हुआ काफी आगे बढ़ सकता है। शर्म की बात है कि आजादी के साठ सालों के बाद भी देश की बिट्टुएं बंधन में हैं। शिक्षा और कथित स्वतंत्रता के बावजूद वे दिन-रात सहमी सी रहती हैं। बगैर बीमारी के उनकी सांसें घुटती रहती हैं। उत्तर भारत के किसी भी शहर के मध्यवर्गीय परिवार का

दरअसल:ऑस्कर अवार्ड से आगे का जहां..

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-अजय ब्रह्मात्मज हम सभी खुश हैं। एक साथ तीन ऑस्कर पाने की खुशी स्वाभाविक है। मौलिक गीत और संगीत के लिए रहमान को दो और ध्वनि मिश्रण के लिए रेसूल पुकुट्टी को मिले एक पुरस्कार से भारतीय प्रतिभाओं को नई प्रतिष्ठा और पहचान मिली है। इसके पहले भानु अथैया को रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी के लिए कास्ट्यूम डिजाइनर का ऑस्कर अवार्ड मिला था। सत्यजित राय के सिनेमाई योगदान के लिए ऑस्कर ने उन्हें विशेष रूप से सम्मानित किया था। इस तरह कुल पांच पुरस्कारों के साथ भारत ने अपनी मौजूदगी तो दर्ज कर दी है, लेकिन दरअसल, यहां एक प्रश्न यह उठता है कि क्या ऑस्कर पुरस्कार पाने के बाद भारतीय फिल्मों की तस्वीर बदलेगी? भारतीय फिल्में पिछले पचास सालों से इंटरनेशनल फेस्टिवल में पुरस्कार बटोरती रही हैं। हर साल दो-चार पुरस्कार किसी न किसी फिल्म के लिए मिल ही जाते हैं। अनेक फिल्मों को सराहना मिलती है और देश-विदेश में उनके प्रदर्शन भी किए जाते हैं, लेकिन एक सच यह भी है कि इन पुरस्कृत और सम्मानित फिल्मों में से अनेक फिल्में भारतीय सिनेमाघरों में प्रदर्शित ही नहीं हो पाती हैं! गौर करें, तो हम पाएंगे कि वितरकों और प्रदर्शकों

हिन्दी टाकीज: कोई भी फ़िल्म चुपचाप नहीं आती थी-विष्णु बैरागी

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हिन्दी टाकीज- २७ विष्णु बैरागी रतलाम में रहते हैं.विष्णु बैरागी हों गए हैं और ब्लॉग की दुनिया में सक्रिय हैं. उनके दो ब्लॉग हैं- एकोऽहम् और मित्र-धन ,इसके अलावा विष्णु एजेंट हैं जीवन बीमा निगम के.अपने बारे में वे लिखते हैं....कुछ भी तो उल्लेखनीय नही । एक औसत आदमी जिसे अपने जैसे सड़कछापों की भीड़ में बड़ा आनन्‍द आता है । मैं अपने घर का स्वामी हूं लेकिन यह कहने के लिए मुझे मेरी पत्नी की अनुमति की आवश्यकता होती है पूरी तरह अपनी पत्नी पर निर्भर । दो बच्चों का बाप । भारतीय जीवन बीमा निगम का पूर्णकालकि एजेण्ट । इस एजेन्सी के कारण धनपतियों की दुनिया में घूमने के बाद का निष्कर्ष कि पैसे से अधिक गरीब कोई नहीं । पैसा, जो खुद अकेले रहने को अभिशप्त तथा दूसरों को अकेला बनाने में माहिर । ईशान अभी ग्यारह वर्ष का नहीं हुआ है। छठवीं कक्षा में पढ़ रहा है। चुप बिलकुल ही नहीं बैठ पाता। 'बाल बिच्छू' की तरह सक्रिय बना रहता है। उसे पूरे शहर की खबर रहती है। मैं उसके ठीक पड़ौस में रहता हूँ-एक दीवाल की दूरी पर। आज सवेरे उससे कहा - 'स्लमडाग करोड़पति लगे तो मुझे कहना। देखने चलेंगे।' सुनकर उसने मुझे