हिन्दी टाकीज:मन के अवसाद को कम करता है सिनेमा-डॉ मंजु गुप्ता

हिन्दी टाकीज-२१
हिन्दी टाकीज में इस बार डॉ मंजु गुप्ता के संस्मरण..डॉ गुप्ता दर्शन शास्त्र की प्राध्यापिका हैं.वे मुंगेर के आरडी एंड डीजे कॉलेज में पढ़ाती है। सिनेमा और साहित्य में उनकी रुचि है.चवन्नी के आग्रह को उन्होंने स्वीकार किया और यह संस्मरण भेजा.उनकी कहानियो का संग्रह मुठभेड़ नाम से प्रकाशित हो चुका है.उन्होंने भरोसा दिया है कि वे भविष्य में भी सिनेमा पर कुछ लिखेंगीं चवन्नी के लिए।
जीवन की एकरसता जीवन को नीरस बना देती है। न उसमें आनंद होता हे और न कोई उल्लास। नित्य एक जैसे कार्यकलापों से मन उंचाट सा हो जाता है, हृदय की प्रसन्नता मानो खो सी जाती है। परंतु सुंदर दृश्यों एवं मनोरम वस्तुओं को देखने से हमारा हृदय कमल खिल उठता है, मन गुनगुनाने लगता है। अपने कमरे की खिडक़ी के पास बैठी मैं बाहर गिरती हुई वर्षा की रिमझिम बूंदों को देख रही थी। जिसे देखकर मन को बड़ा सकून मिल रहा था। बारिश की वे बूंदें अनायास मुझे कहीं दूर स्मृति में ले जातीं। कहते हैं न कि अतीत की यादें यदि सुनहरी हो तो हमेशा वह तरोताजा ही लगती है। बाहर हो रही वर्षा को देख बार-बार मन में यह विचार आता 'काश! कालिदास के मेघदूत की तरह ये भी उनकी खबर लाते तो कितना अच्छा होता।' पुरानी यादें चित्त को चंचल भर उसकी बेचैनी बढ़ा देती हैं। मुझे इसका अहसास हो रहा था। अपनी यादों में मैं इस तरह खोई थी कि मुझे पता ही नहीं चला कि कब भाभी मेरे पास आकर खड़ी हो गई थी। उनकी आवाज से मैं वर्तमान में लौट आई। 'चलो, तुम्हें आज पीवीआर में शाहरुख की 'डॉन' दिखा लाते हैं। लौटते वक्त सहारा मॉल घूम लेंगे और वहीं डिनर भी ले लेंगे।' संभवत: भाभी मेरी मनोदशा समझ रही थीं। करीब पन्द्रह दिनों से में अपने भैया के यहां लखनऊ में थी। जीवन की एकरसता से बचने के लिए मैं अपने शहर से दूर यहां चली आई थी।
झटपट तैयार होकर हमलोग पीवीआर पहुंचे थे। किसी मल्टीप्लेक्स में बैठकर फिल्म देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। न कहीं अत्यधिक भीड़, न टिकट के लिए आपाधापी। एक ही हॉल में तीन-तीन फिल्म चल रहे थे फिर भी कहीं कोई हंगामा नहीं। sअब कुछ व्यवस्थित था। जगह-जगह सुरक्षाकर्मी तैनात थे। पूरी तरह साफ-सुथरा सिनेमा हॉल कोई महल प्रतीत हो रहा था। टिकट लेकर हमलोग अन्दर गए। अपनी सीट देखकर भैया के साथ हमलोग बैठ गए। एक-एक कर लोग अन्दर आ रहे थे और अपनी-अपनी सीट पर शांति से बैठ जा रहे थे। कहीं कोई शोर-गुल नहीं। आरामदेह कुर्सी, बड़े पर्दे पर मध्यम आवाज - सब मिला कर फिल्म की अहमियत और बढ़ा रहा था। तीन घंटे का समय कैसे बीता, पता ही नहीं चला। मुझे लगता है विज्ञान ने अभी तक जितने भी आविष्कारों को जन्म दिया है संभवत: सिनेमा उनमें सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। सिनेमाघर ही एक ऐसी जगह है जिसमें हृदय में किसी के लिए भिन्नता नहीं है बल्कि साम्य ही साम्य है। चाहे वह निर्धन हो या धनवान, पिता हो या पुत्र, मित्र हो या शत्रु सभी का समान रूप से स्वागत करने के लिए अपनी बांहें फैलाए रहता है। यों तो आज के समय के मनोविनोद में साधनों की कोई कमी नहीं परन्तु सिनेमा ही एक ऐसा साधन है जिसे देखने के लिए हम कम व्यय में ही सिनेमा घर में जा बैठते हैं और अपने जीवन के संघर्षमय क्षणों में से कुछ क्षण कभी हंसते हुए तो कभी रो कर बिता देते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पर्दे पर हो रही घटनाओं को हम आत्म अनुभूति में ले आते हैं। इसीलिए सिनेमा आज सभी वर्गों के लिए मनोरंजन का साधन बन गया है। इसमें आप हम ऐसी चीजों के बारे में जान जाते हैं जिसे हमने न कभी पढ़ा हो और न सुना हो। 'गांधी' पिक्चर देखकर हम कई ऐसी चीजों को देखने और जानने को मिला, जिन घटनाओं के बारे में हमें पता तक नहीं था। गांधीजी के हाथ किए गए कार्यों, जो हमारी आजादी के लिए था, उनके बारे में जान पाए। साथ ही अंग्रेजों के कुकृत्यों का भी पता चला। पढऩे से जल्दी देखकर ज्ञान हासिल होता है - यह बिल्कुल सच है।
घर लौटकर जब मैं सोने के लिए बिस्तर पर गई तो बार-बार मन सिनेमा की ओर ही चला जाता। कितना अन्तर आ गया है आज के सिनेमा के साथ सिनेमाघरों में? पहले भी पिक्चरें काफी अच्छी बनती थी परंतु हर जगह सिनेमाघर अच्छे नहीं होते थे। कुछ शहरों को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी जगहों के सिनेमाघर का कमोबेश हाल बुरा ही रहता था। बचपन में देख गए सिनेमा तथा उस सिनेमाघर की विस्मृतियां एक-एक कर आंखों के सामने से गुजरने लगीं।
एक छोटा सा गांव जहां मैं पली और बड़ी हुई थी। एक ही सिनेमा हॉल था। घर से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर। रिक्शे पर सिनेमा के प्रचार की आवाज घर के आंगन तक सुनाई पड़ती थी। हम सभी भाई-बहनें चुपचाप आपस में बातें करते। उस वक्त सिनेमा के बारे में खुले रूप से बातें करने का मतलब बुजुर्ग यह लगाते थे कि बच्चों का पढ़ाई से ध्यान उचट गया है। कभी कोई फिल्म देखने की इच्छा होती तो पहले मां को मनाना होता फिर दादी को। जब दादी मान जातीं तो वो पापा को मनातीं - 'ले जाओ, बच्चे हैं, कभी-कभी इनकी मर्जी भी सुना करो।' दादी के कहने पर पापा मान तो जाते परंतु हमें यह कैफियत दे देते -'पहले अपना होमवर्क व पढ़ाई पूरा करो, वर्ना पिक्चर जाना कैंसिल।' किस शो में चलना है यह तो पूछना ही नहीं था क्योंकि पापा को शाम पांच बजे के बाद ही फुर्सत होती थी। अकेले जाने की अनुमति तो थी ही नहीं। पिक्चर देखने की लोभ भला कौन सा -- करता, झटपट हमलोग अपनी पढ़ाई पूरी कर पांच बजे से पहले तैयार हो जाते। सिनेमा घर पहुंचने तक पापा का मूड ठीक रहता परंतु जैसे ही टिकट कटाने के लिए भीड़ में घुसना पड़ता, उनका मूड ही बिगड़ जाता। सिनेमा हॉल के बाहर चारों तरफ चाट, पकौड़ी घुघनी-मूढी, लिट्टी तथा भुंजावाले की दुकान लगी रहती थीं जिसमें भीड़ इतनी रहती मानो सब घर से भूखे ही आए हों। किसी तरह टिकट लेकर पापा जब वापस आते तो उनका क्रीजदार सिल्क का कुरता चूर-चूर होकर ऐसा दिखता मानो गंदे कपड़े की गठरी से निकाल कर पहन लिया गया हो। उनका गुस्सा फूट पड़ता -'आज के बाद में तुम लोगों के ससाथ नहीं आने वाला।' मां किसी तरह पापा को शांत कर हॉल के अंदर चलने को कहतीं ताकि उस भीड़ से छुटकारा मिले। परंतु हॉल के अन्दर का नजारा तो बाहर से कुछ कम नहीं होता था। टिकट वाले को टिकट देकर अपनी सीट पर बैठना कोई आसान काम नहीं था। लोग अपनी सीट छोड़ दूसरे की सीट पर ही बैठे रहते जिन्हें समझा-बुझा कर उठाने में काफी समय लग जाता। तब तक ट्रेलर शुरू हो चुका होता और पीछे बैठे लोग 'सामने से हटो, सामने से हटो' की रट लगा देते। ऊपर से खोमचे वाले, बादाम वाले और चने वाले अपने-अपने सामानों को बेचने हेतु धमा-चौकड़ी मचाए रहते। यह सब तब तक चलता रहता जब तक फिल्म न शुरू हो जाती। फिल्म शुरू होने पर थोड़ी देर शांति जरूर रहती परंतु जैसे ही कोई प्रणय दृश्य आता, सीटियों और फूहड़ संवादों की बौछार कर दी जाती और यदि कहीं थोड़ी देर के लिए बिजली चली जाती तब तो पूछिए मत। मिनट भर के अंदर कई कुर्सियां पटक-पटक कर तोड़ दी जाती। चिल्ला-चिल्ला कर लोग सिनेमाघर को सिर पर उठा लेते। भला उस असभ्य भीड़ को कौन यह समझाए कि जेनरेटर चलाने में मिनट-दो मिनट का समय तो जरूर लगेगा। इतना सबकुछ पापा का मूड खराब करने के लिए काफी होता था। घर लौटते ही वो अपना गुस्सा यह कहकर उतार देते कि 'अब सिनेमा हॉल जाने की कोई जरूरत नहीं, घर में टीवी है उसे ही देखो।' मुझे याद है फिल्म 'नदिया के पार' के बाद हमलोग कभी उस हॉल में पिक्चर देखने नहीं गए।
आज जिस गति से सिनेमा का प्रचार और प्रसार हो रहा है उससे उसकी सर्वप्रियता स्पष्ट है कि ब्रह्मा के चार मुख थे और प्रत्येक मुख से उन्होंने एक-एक वेद की रचना की। ठीक उसी तरह मुझे लगता है कि सिनेमा की चार कलाओं का सम्मिश्रण है और वे हैं - पटकथा, चित्र, संगीत और अभिनय। सैकड़ों लोगों के मेहनत और लगन से कोई फिल्म तैयार होती है। एक फिल्म को पूरा करने में पहले तो कई वर्ष लग जाते थे परन्तु आधुनिक तकनीकों ने समय को कम कर दिया है। करोड़ों की लागत से बनने वाले ये फिल्म, फिल्म निर्माताओं की बुद्धि और सफल निर्देशन का कमाल होती है। यो तो किसी भी चीज में खूबियां और खामियां दोनों होती हैं परंतु यह हमारी सोच पर निर्भर है कि हम क्या ग्रहण करना चाहते हैं। यदि हम अच्छाई ढूंढऩा चाहें तो सिनेमा में हमें वो सब मिलेगा इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि फिल्म निर्माताओं के प्रयास से आज देश में नवीन चेतना और नवीन जागृति पैदा हो रही है। सिनेमा न केवल हमारा मनोरंजन करती है बल्कि हमारे मन के अवसाद को कम करने का भी प्रयास करती है।




Comments

Respected Manju Ji,
Apne hindi cinema ke bare men jo vishleshan prastut kiya hai,vo kafee had tak theek hai.Ye sach hai ki film ya koi bhee manoranjan ka madhyam hamare tanav,avasad ko kam karke hamen kuch der ke liye sapnon kee duniya men le jata hai.aur ham kuchh der ke liye hee sahee apne sare dukh bhool jate hain.
Lekin aj hindi men jo bambaiya masala filmen ban rahee hain kya vo hamare avasad ko kam karne men sahayak hain?
Ap agar hindee cinema ke itihas par najar dalen to apko unke star ka graf saf dikhai dega.takneekee drishti ko chhod den to kya aj kee hindee filmen samaj ko kuchh dene men saksham hai.sivaya hinsa,balatkar,badla...aur bhee bahut kuchh.
han bambaiya masala filmon se alag hat kar jo kala filmen hain vo to desh,samaj ko kuchh de saktee hain..lekin unke darshak kitne hain?
Jahan tak avsad,dukh,ya mansik tanav ko kam karne kee bat hai.in sabhee ko kam karne ya ghatane ke liye jaroorat hotee hai melodious sngeet,madhur geeton,achchhe kathanak kee.aj banane valee kitanee filmon men melodious sangeet,achchhe geet ya kathanak hain?kitanee filmen aisee atee hain jinhen ham parivar ke sath baith kar dekh sakte hain.
Main hindee filmon ka virodh naheen kar raha...lekin apne jis film DON ka jikra kiya hai..vo aj se lagbhag 30 sal pahale banee thee.aj filmon kee market,banane vale,darshak sabhee kuchh badal gaye hain.
Aj ke producers,directors,writers ko...film shuru karne se pahle kam se kam samaj,desh,parivesh ka bhee dhyan to rakhna chahiye.
Vaise apkee vishaya ko prastut karne kee shailee bahut achchhee lagee.Badhai sveekar karen.Yadi kuchh galat likh gaya houn to maf kariyega.
Hemant Kumar
Anonymous said…
нюша прикольная девчонка

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