'उत्सुशी-ए' - सिनेमा से पहले मनोरंजन की जापानी लोकशैली




सिनेमा, फिल्म, मूवी, पिक्चर, चलचित्र ... आप इसे जो नाम दें और जिस अर्थ में समझें, मनोरंजन का सशक्त माध्यम हो गया है। सिनेमा के वजूद में आने के पहले भी तो मनोरंजन के साधन और माध्यम होंगे। हम उन्हें मनोरंजन की लोकशैली कहते हैं। भारत की बात करें तो हर क्षेत्र और प्रदेश की नाट्य एवं नृत्य शैलियां हैं। कठपुतलियों का नृत्य रहा है। छाया और प्रकाश के माध्यम से भी नागरिकों के बहलाने के प्रयास होते रहे पश्चिमी और योरोपीय देशों में 'फैंटसमैगोरिया' का चलन रहा तो चीन और जापान में छायाचित्रों के माध्यम से गांव-कस्बों में मनोरंजन किया जाता रहा।

जापान की एक ऐसी ही मनोरंजक लोकशैली 'उत्सुशी-ए' है। जापानी भाषा, संस्कृति और इतिहास के जानकार चवन्नी और उसके पाठकों की जानकारी में इजाफा कर सकते हैं। चवन्नी को इसके संबंध में जो जानकारी मिली, वह उसे बांटने के लिए तत्पर है। सिनेमा के प्रचलित होने के पहले जापान में उत्सशी-ए के शो काफी पसंद किए जाते थे। अठारहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी के अंत तक उत्सशी-ए का बोल बाला रहा। इदो और मेइजी काल में इस शैली का विकास और विस्तार हुआ।

उत्सशी-ए में छवियां पर्दे पर नाचती, घूमती और थिरकती हैं। पश्चिमी देशों में मुख्य रूप से एक लालटेन की रोशनी में यह प्रदर्शन किया जाता था। जापान के कलाकारों ने छह और उससे ज्यादा लालटेनों की मदद से इस कला को सिनेमा की खूबियों तक विकसित कर लिया था। कट, फेड, डिजॉलव, डबल एक्सपोजर और जूम जैसी तकनीक का इस्तेमाल वे कैमरे और फिल्म के विकास के पहले कर रहे थे। सिनेमा के आविष्कार से सौ साल पहले ही जापानियों ने प्रोजेक्शन तकनीक से दर्शकों का मनोरंजन करना सीख लिया था। इस प्रदर्शन में कुछ लालटेनें स्थिर रख दी जाती हैं या फिर हाथों में लेकर उन्हें आगे-पीछे कर प्रकाश की तीव्रता को बदला जाता है। उत्सुशी-ए के प्रदर्शन में छह से ज्यादा कलाकारों की जरूरत पड़ती थी।

सिनेमा के विकास के बाद यह मनोरंजन की यह कलाशैली लुप्तप्राय हो रही थी । 1950 से 1980 के बीच अयाको शिबा ने अपने पिता गैजिरो कोबायाशी की मदद से इसे बचाया। दोनों ने उस समय तक जीवित उत्सुशी-ए कलाकारों की मदद से इस शैली को संरक्षित किया। जापान में आए 1923 के भूकंप और विश्वयुद्धों में अन्य कलाओं के साथ 'उत्सुशी-ए' का भी भारी नुकसान हुआ था।

उत्सुशी-ए की लालटेनें और स्लाइड्स बालसा की लकड़ी से बनाए जाते हैं। बालसा की लकड़ियां हल्की होती हैं। कलाकार दो-तीन घंटों तक उंगलियों, हथेलियों की मदद से उन्हें विविध रूपों में संयोजित करने में नहीं थकते थे। उत्सुशी-ए के प्रदर्शन में लालटेन थामने वालों के साथ संगीतज्ञों और कथावाचकों की जरूरत पड़ती थी। परफॉर्मिंग आर्ट की खूबी है कि हर प्रदर्शन में थोड़ी विविधता आ जाती है। कई बार दर्शकों की रुचि और प्रतिक्रिया से कहांनियां भी बदल जाती हैं या नया मोड़ ले लेती हैं। उत्सुशी-ए में इसकी भरपूर संभावना रहती थी।

(अगर कोई तथ्यात्मक भूल हो तो चवन्नी सुधारने के लिए तैयार है। अपने सुधी पाठकों से चवन्नी की गुजारिश है कि वे सिनेमा के पहले की मनोरंजन परंपराओं के बारे में अपनी जानकारी बांटे।)

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