कॉमेडी का कन्फ्यूजन कन्फ्यूजन में कॉमेडी

-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले कुछ समय से हिंदी फिल्मों में कॉमेडी का चलन पूरी तरह से बढ़ा है, क्योंकि इसे सफलता का फार्मूला माना जा रहा है। कह सकते हैं कि यही ताजा ट्रेंड है, लेकिन चंद वर्षो और चंद फिल्मों के बाद अब यह ट्रेंड दम तोड़ता नजर आ रहा है। हाल की असफल कॉमेडी फिल्मों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अभी के निर्माता-निर्देशक कॉमेडी के नाम पर पूरी तरह से कंफ्यूजन के शिकार हैं!
कॉमेडी फिल्मों का एक इतिहास रहा है। दरअसल, जब शुद्ध रूप से कॉमेडी फिल्में नहीं बनती थीं, तो फिल्मों में कॉमेडी का पैरलल ट्रैक रहता था। दरअसल, एक सच यह भी है कि जॉनी वॉकर और महमूद सरीखे कलाकारों को उन दिनों हीरो जैसा दर्जा हासिल था। उनके लिए गाने रखे जाते थे और कई रोचक प्रसंग भी कहानी में जोडे़ जाते थे। यह सिलसिला लंबे समय तक चला। सच तो यह है कि उन दिनों हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कॉमेडियन की एक अलग जमात हुआ करती थी। अमिताभ बच्चन के आगमन के बाद जिन फिल्मी तत्वों का नुकसान हुआ, उनमें कॉमेडी भी रही। एंग्री यंग मैन के अवसान के बाद फिर से फिल्मों की कहानी बदली और जॉनी लीवर, डेविड धवन और गोविंदा का उदय हुआ। डेविड धवन और गोविंदा की जोड़ी ने कुछ कामयाब कॉमेडी फिल्में दीं। सलमान खान, अक्षय कुमार और संजय दत्त को अपनी फिल्मों में लाने के पहले डेविड ने गोविंदा के साथ दर्शकों को खूब हंसाया। उनकी पिछली फिल्म पार्टनर में सलमान खान और गोविंदा थे। पार्टनर हालांकि सफल रही, लेकिन उस फिल्म से जाहिर हुआ किकहानी पर अधिक मेहनत नहीं की जा रही है। हर दस-पंद्रह मिनट पर एक हास्य स्थिति या प्रसंग डाल दिया गया है, जिनके बीच कोई तारतम्य नहीं है। यही वजह है कि पार्टनर हिस्सों में अच्छी लगती है। इन दिनों कॉमेडी फिल्मों में डेविड धवन की सक्रियता थोड़ी कम हो गई है।
बीच में दक्षिण से आए निर्देशक प्रियदर्शन ने हेराफेरी से कॉमेडी फिल्मों को नई दिशा दी। उनकी पहली दो-तीन फिल्मों में किरदार और कहानी दिखे। बाद में प्रियदर्शन ने कंफ्यूजन को अपनी फिल्मों का मूल आधार बना लिया। उन्होंने एक फार्मूला विकसित किया, जिसमें इंटरवल के बाद भारी कंफ्यूजन के बीच सारे किरदार दौड़ते-भागते नजर आते हैं। कॉमेडी के इस सरलीकरण से निर्माताओं को भले ही फायदा हुआ हो, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री का दूरगामी नुकसान ही हुआ। उस नुकसान के नतीजे अब दिख रहे हैं। कंफ्यूजन की कहानी चित्रित करने में प्रियदर्शन माहिर हैं, लेकिन उनकी उस विशेषता के अनुकरण में दूसरे निर्देशक बुरी तरह विफल रहे। कॉमेडी फिल्मों का मुख्य उद्देश्य दर्शकों को हंसाना है। सवाल उठता है कि दर्शकों को कैसे हंसाएं? पहले की कॉमेडी फिल्मों और आज की कॉमेडी फिल्मों की तुलना से हम इस मामले में निर्देशकों की सोच में आए फर्क को समझ सकते हैं। पहले हास्य की स्थितियां जीवन के प्रसंगों से ली जाती थीं। ऐसे किरदारों की मूर्खता के पीछे भी एक लॉजिक होता था और कोशिश यही होती थी कि दर्शकों की भावनात्मक संवेदना को चोट न पहुंचे। इधर की कॉमेडी फिल्मों में यह संयम सिरे से गायब है।
अब दर्शकों को आहत करने के साथ हंसाने की कोशिश की जा रही है। हम फिल्मों में हंसने के बजाए चिढ़ने और रोने लगते हैं। प्रियदर्शन की नकल में सारे निर्देशक कंफ्यूजन क्रिएट करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे स्वयं उसमें फंस जाते हैं। नतीजा यह होता है कि दर्शक भी असहज हो उठते हैं। इस दौर में पड़ोसन, अंगूर और चुपके चुपके जैसी कॉमेडी फिल्मों की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उस सहज हास्य के लिए एक कहानी की जरूरत होती है और फिर सामान्य जीवन के हास्यास्पद दृश्य चुनने पड़ते हैं। वैसी फिल्मों में मेहनत और कल्पना दोनों की ज्यादा जरूरत होती है। अभी सब कुछ फटाफट चाहिए, यही वजह है कि सिर्फ दृश्यों को ही जोड़ा जाता है। इस जल्दबाजी में जीवन पकड़ में नहीं आता, तो हंसी कहां से समझ में आएगी

Comments

कुश said…
बिल्कुल ठीक बात.. हालिया प्रदर्शित धूम धड़ाका ,क्रेज़ी 4, वन टू थ्री में भी यही ग़लती की गयी थी..
PD said…
मेरी समझ में दर्शकों को हंसाना आसान काम है, रूलाना मुश्किल.. और इसमें भी आज-कल के निर्माता पीछे होते जा रहें हैं..
आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद लगा कि फिल्मी हास्य विश्लेणषण भी कॉमेडी फिल्म निर्देशकों की तर्ज पर फटाफट कर दिया है। इस फटाफट में विषय के कई पक्ष सफाचट हो गए हैं। संभव हो तो इस विषय पर खटाखट न लिखकर अन्य पक्षों को विस्तार दे मुझ जैसे क्षुधातुर यानी भूखे-दूखे पाठकों की जिज्ञासा को शांत करें. साथ में कोशिश हो कि सामाजिक विद्रूपताओं के यथार्थ से जोड़ कर पूरे परिदृश्य को रेखांकित किया जाए।

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