होप एंड ए लिटिल सुगर:एक संवेदनशील विषय का सत्यानाश

-अजय ब्रह्मात्मज
तनुजा चंद्रा की अंग्रेजी में बनी फिल्म होप एंड ए लिटिल शुगर का विषय प्रासंगिक है। उन्होंने विषय को सुंदर तरीके से किरदारों के माध्यम से पेश किया है, लेकिन कहानी कहने की जल्दबाजी में उन्होंने प्रसंगों को सही क्रम में नहीं रखा है।
दर्शक के तौर पर हम फिल्म से जुड़ते हैं और किसी बड़े अंतद्र्वद्व की उम्मीद करते हैं कि फिल्म खत्म हो जाती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बजट का संकट आ गया या फिर तनुजा का ही धैर्य खत्म हो गया। जो भी हो, एक संवेदनशील विषय का सत्यानाश हो गया।
कहानी अली की जिंदगी से आरंभ होती है। हम उसे 1992 में हुए मुंबई के दंगों के दौरान एक बच्चे के रूप में देखते हैं। बड़ा होकर वह अमेरिका चला जाता है। किसी प्रकार से गुजर-बसर करता हुआ वह फोटोग्राफी के अपने शौक को जिंदा रखता है। उसकी मुलाकात सलोनी से होती है। सलोनी उसकी फोटोग्राफी को बढ़ावा देती है। सलोनी के परिवार से अली की निकटता बढ़ती है। इस बीच 11 सितंबर की घटना घटती है। इसमें सलोनी का पति हैरी मारा जाता है। हैरी के पिता सेना के रिटायर्ड कर्नल हैं। उन्हें मुसलमानों से सख्त नफरत है। वह अली को बर्दाश्त नहीं कर पाते। सलोनी से अली की निकटता उन्हें बुरी लगती है। एक रात वह उसे मारने के इरादे से घर से निकलते हैं, लेकिन रास्ते में उन पर आक्रमण होता है। कुछ अमेरिकी उन्हें ओसामा कह कर मारते हैं। कर्नल को अहसास होता है कि अमेरिकी समाज में फैली नफरत उनकी घृणा से बड़ी है। वह अली से माफी मांगते हैं और सलोनी को उसके हाल पर छोड़ कर भारत लौट जाते हैं।
तनुजा चंद्रा ने कर्नल के आकस्मिक फैसलों की ठोस जमीन नहीं तैयार की है। अमेरिकी समाज में एशियाई मूल के लोगों के प्रति बढ़ी घृणा को भी वह उचित प्रभाव के साथ चित्रित नहीं कर पाई हैं। फिल्म अधूरी और जल्दबाजी में समेटी गयी लगती है।
महिमा चौधरी और अनुपम खेर ने अपने किरदारों को संजीदगी से निभाया है। लंबे समय बाद बातों बातों में वाले रंजीत चौधरी इस फिल्म में दिखाई पड़े। कलाकारों ने फिल्म को संवारने में कोई कोताही नहीं की है, फिर भी फिल्म संभल नहीं पाई है।

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