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Showing posts from September, 2007

ऑस्कर के लिए मारामारी

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ऑस्कर के लिए परेशान हैं सभी.चवन्नी की समझ में नहीं आ रहा है कि विदेशी पुरस्कार के लिए एेसी मारामारी क्यों चल रहीं है?याद करें तो ऑस्कर पुरस्कारों की विदेशी भाषा श्रेणी की नामांकन सूची में लगान के पहुंचने के बाद सभी भारतीय फिल्मकारों को लगने लगा है कि उनकी फिल्म इस प्रतियोगिता के लिण अवश्य भेजी जानी चाहिए.अस साल एकलव्य भेजी जा रही है या यों कहें कि भेजी जा चुकी है,लेकिन धर्म की निर्देशक भावना तलवार को लगता है िक एकलव्य के निर्माता निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने अपने प्रभाव से अपनी फिल्म को चुनवा लिया.फिल्म इंडस्ट्री तो क्या हर क्षेत्र में इस तरीके के मैनीपुलेशन चलते हैं. आइए,आाप को किस्सा सुनाते हैं.ऑस्कर के नियमों के मुताबिक हर देश से एक फिल्म िवदेशी भाषा श्रेणी के पुरस्कार के लिए भेजी जा सकती हैणयमं तो हर साल एक फिल्म जाती है,लेकिन लगान के नामांकन सूची में पहुंचने के बाद फिल्म इंडस्ट्री और आम लोग इस पुरस्कार के प्रति जागरूक हुए.भारत से फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया ही ऑस्कर के लिए भेजी जाने वाली फिल्म का चुनाव करती है.इस कार्य के लिए एक ज्यूरी बनायी जाती है.इस ज्यूरी में फिलहाल मुंबई के ज्या

दीवाली के दिन टकराएगी सांवरिया से ओम शांति ओम

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-अजय ब्रह्मात्मज नवंबर महीने में 9 तारीख को दो बड़ी फिल्में आमने-सामने होंगी। दोनों ही फिल्मों के शुभचिंतकों की राय में इन फिल्मों को टकराना नहीं चाहिए था। इस टकराहट से दोनों का नुकसान होगा, लेकिन वहीं कुछ ट्रेड विशेषज्ञों की राय में दोनों ही फिल्मों को दर्शक मिलेंगे। इन दिनों दर्शक इतने संपन्न हो गए हैं कि फिल्में अच्छी हों, तो वे पैसे जेब से निकाल ही लेते हैं। रिलीज डेट 9 नवंबर ही क्यों? इस बार 9 नवंबर को दीवाली है और उस दिन शुक्रवार भी है। त्योहार के दिनों में फिल्में रिलीज हों, तो उन्हें ज्यादा दर्शक मिलते हैं। त्योहार की छुट्टियों में मौज-मस्ती और मनोरंजन के लिए सिनेमा से अधिक सुविधाजनक कोई माध्यम नहीं होता। बड़े शहरों में लोग सपरिवार फिल्में देखने जाते हैं। मल्टीप्लेक्स बनने के बाद तो सपरिवार फिल्म देखने की प्रवृत्ति महानगरों में और बढ़ी ही है। फिल्म वितरक, प्रदर्शक और आखिरकार निर्माताओं के लिए रिलीज के सप्ताहांत में दर्शकों की भीड़ मुनाफा ले आती है। संजय लीला भंसाली की सांवरिया की रिलीज की तारीख पहले से तय थी। फराह खान की ओम शांति ओम भी उसी दिन रिलीज करने की योजना बनी। बीच में

राजनीतिक फिल्म है दिल दोस्ती एटसेट्रा

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-अजय ब्रह्मात्मज इस फिल्म का भी पर्याप्त प्रचार नहीं हुआ। फिल्म के पोस्टर और फेस वैल्यू से नहीं लगता कि दिल दोस्ती.. इतनी रोचक फिल्म हो सकती है। दिल दोस्ती.. लंबे अरसे के बाद आई राजनीतिक फिल्म है। इस फिल्म के राजनीतिक टोन को समझे बिना फिल्म को समझना मुश्किल होगा। ऊपरी तौर पर संजय मिश्रा (श्रेयस तलपड़े) और अपूर्व (ईमाद शाह) दो प्रमुख चरित्रों की इस कहानी में संवेदना की कई परते हैं। इस फिल्म को समझने में दर्शक की पृष्ठभूमि भी महत्वपूर्ण होगी। संजय मिश्रा बिहार से दिल्ली आया युवक है, जो छात्र राजनीति में सक्रिय हो गया है। दूसरी तरफ अपूर्व विभिन्न तबकों की लड़कियों के बीच जिंदगी और प्यार के मायने खोज रहा है। दिल दोस्ती.. विरोधी प्रतीत हो रहे विचारों की टकराहट की भी फिल्म है। मध्यवर्गीय मूल्यों और उच्चवर्गीय मूल्यों के साथ ही इस टकराहट के दूसरे पहलू और छोर भी हैं। निर्देशक मनीष तिवारी ने युवा पीढ़ी में मौजूद इस गूढ़ता, अस्पष्टता और संभ्रम को समझने की कोशिश की है। फिल्म अपूर्व के दृष्टिकोण से प्रस्तुत की गई है। अगर इस फिल्म का नैरेटर संजय मिश्रा होता तो फिल्म का अंत अलग हो सकता था। फिल्म में

आनंद और रोमांच का संगम है जॉनी गद्दार

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-अजय ब्रह्मात्मज एक हसीना थी में श्रीराम राघवन की दस्तक फिल्म इंडस्ट्री और दर्शकों ने सुन ली थी। वह फिल्म बॉक्स आफिस पर गिर गई थी, लेकिन थ्रिलर का आनंद मिला था। उस आनंद और रोमांच को श्रीराम राघवन ने जॉनी गद्दार में पुख्ता किया है। जॉनी गद्दार एक तरफ विजय आनंद की थ्रिलर फिल्मों की याद दिलाती है तो दूसरी तरफ फिल्मों की नई शैली का परिचय देती है। जॉनी गद्दार पांच व्यक्तियों की कहानी है। वे मिलकर कारोबार करते हैं। उनके गैंग को एक आफर मिला है, जिससे चार दिनों में उनकी किस्मत पलट सकती है। योजना बनती है, लेकिन पांचों में से एक गद्दारी कर जाता है। उस गद्दार की जानकारी हमें हो जाती है, लेकिन बाकी किरदार नावाकिफ रहते हैं। जॉनी गद्दार की यह खूबी दर्शकों को बांधे रहती है। घटनाओं का ऐसा क्रम नहीं बनता कि पहले से अनुमान लगाया जा सके। श्रीराम राघवन ने बार-बार चौंकाया है और हर बार कहानी में ट्विस्ट पैदा किया है। श्रीराम राघवन की पटकथा और फिल्म का संपादन इतना चुस्त है कि संवाद की गति से दृश्य बदलते हैं। शार्प कट और बदलते दृश्यों की निरंतरता हिलने नहीं देती। कई प्रसंग ऐसे हैं, जहां दर्शक अपनी सुध भूल जा

शुक्रवार, 28 सितंबर, 2007

इस हफ्ते श्रीराम राघवन की 'जॉनी गद्दार' और मनीष तिवारी की 'दिल दोस्ती एट्सेट्रा' फिल्में रिलीज हो रही हैं. श्रीराम राघवन की पिछली फिल्म 'एक हसीना थी' चवन्नी ने देखी थी. उस फिल्म से ही लगा था कि श्रीराम राघवन में पॉपुलर सिनेमा और थ्रिलर की अच्छी समझ है. अ।पको याद होगा कि अपने छोटे नवाब के एटीट्यूड में भी इसी फिल्म से बदलाव अ।या था, जिसकी परिणति 'ओमकारा' के लंगड़ा त्यागी में हुई. एक्टर को एक्टिंग से परिचित कराने का काम समर्थ डायरेक्टर करते रहे हैं. हृषीकेष मुखर्जी, गुलजार, महेश भट्ट जैसे फिल्मकारों ने समय-समय पर एक्टरों को नयी छवि दी और उन्हें खिलने के नए अ।याम दिए. धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, संजय दत्त, जीतेन्द्र, हेमामालिनी, डिंपल कपाड़िया अ।दि एक्टरों की फिल्मों से डायरेक्टर के योगदान के इस पहलू को चवन्नी ने समझा. बहरहाल, श्रीराम राघवन की 'जॉनी गद्दार' थ्रिलर फिल्म है. एक ऐसा थ्रिलर , जिसमें दर्शकों को मालूम है कि गद्दार कौन है? लेकिन दर्शक भी उसकी अगली हरकत से चौंकते हैं. कहते हैं, श्रीराम राघवन ने बेहद चुस्त फिल्म बनायी है. चवन्नी को अजय ब्र

रणबीर कपूर को जन्मदिन की बधाई

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चवन्नी की मुलाकात रणबीर कपूर से हो गई.जी हां,उनका नाम हिंदी में रणबीर लिखा जाएगा.कुछ लोग रणवीर तो कुछ लोग रनबीर लिख रहे थे.कल चवन्नी ने उनसे पूछा तो उन्होंने अपना नाम रणबीर लिखा.और चवन्नी को आपको यह बताते हुए खुशी हो रही है कि आज यानी 28 सितंबर को रणबीर कपूर का जन्मदिन है. उन्हें जन्मदिन की बधाई.और हां,चैनल वालों की तरह बात करें तो आप यह याद रखिएगा कि चवन्नी ने सबसे पहने उनका सही नाम और उनके जन्मदिन के बारे में आप को बताया था. रणबीर का आत्मविश्वास उनकी बातों से छलकता है.कपूर खानदान के इस लड़के को मालूम है कि उनसे लोगों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं. उन्हें मालूम है कि आरके बैनर के वारिस के तौर पर उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है.वे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार हैं.छोटी सी मुलाकात में रणबीर ने भरोसा दिलाया कि आरके बैनर को सक्रिय किया जाएगा.रणबीर ने तो यह भी कहा कि एक दिन वह फिल्म निर्देशित भी करेगा.शायद आप नहीं जानते हों कि राज कपूर का पूरा नाम रणबीर राज कपूर था.ऋषि कपूर ने अपने बैटे को पिता का नाम दिया.चवन्नी चाहता है कि रणबीर अपने दादा का मुकाम हासिल करे.रणबीर की तैयारी अच्छी है और उसका

फिल्म कैसे बनती है - ख्वाजा अहमद अब्बास

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हर बार जब तुम अच्छी फिल्म देखने के लिए टिकट खरीदते हो तो तुम अच्छी फिल्मों के निर्माण में सहायक होते हो और जब बुरी फिल्म का टिकट खरीदते हो तो बुरी फिल्मों को बढ़ावा देते हो - ख्वाजा अहमद अब्बास ख्वाजा अहमद अब्बास ने यह बात अ।ज से तीस साल पहले 'फिल्म कैसे बनती है' में लिखी. बच्चों को फिल्म निर्माण की जानकारी देने के उद्देश्य से लिखी गयी यह किताब नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापी थी. अभी तक इसके बारह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. पिछली बार दिल्ली प्रवास में चवन्नी ने यह पुस्तक हासिल की. सिर्फ 12 रूपए मूल्य की यह पुस्तक सभी सिनेप्रेमियों को पढ़नी चाहिए. और हां, चवन्नी महसूस करता है कि इसे रिफ्रेश या अद्यतन करने की जरूत है. इस बीच सिनेमा का तकनीकी विकास बहुत तेजी से हुअ। है. विकास के इन तत्वों को जोड़कर पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है. इस पुस्तक के अध्याय हैं - 1. पर्दे का जादू 2. चलचित्र जो चलते नहीं 3. एक समय की बात है 4. अलादीन और उसका जादुई चिराग 5. सागर तट पर पिकनिक 6. छद्म गायक 7. फिल्म का संपादन 8. लाखों के लिए संगीत 9. दुल्हन का श्रृंगार 10. सिनेमा का गणित 11. फिल्म कैसे देखे

देव आनंद: रोमांसिंग विद लाइफ

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-अजय ब्रह्मात्मज देव आनंद की आत्मकथा का इससे अधिक उपयुक्त शीर्षक नहीं हो सकता था। उन्होंने अपनी आत्मकथा पूरी कर ली है। उनके 84वें जन्मदिन के मौके पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसका विमोचन करेंगे। हिंदी फिल्मों के इतिहास में यह एक अनोखी घटना होगी, जब देश के प्रधानमंत्री के हाथों किसी फिल्मी व्यक्तित्व की किताब का विमोचन हो रहा हो। भारतीय राजनीति और भारत सरकार सिनेमा और फिल्मी हस्तियों से एक दूरी बनाकर रहती है। हालांकि अभी संसद में कई फिल्मी हस्तियां हैं, फिर भी इस रवैए में ज्यादा फर्क अभी तक नहीं आया है। बहरहाल, देव आनंद की आत्मकथा की बात करें, तो आजादी के बाद लोकप्रिय हुई अभिनेताओं की त्रयी (दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद) में केवल देव आनंद ही अभी तक सक्रिय हैं। राज कपूर असमय काल कवलित हो गए। दिलीप कुमार केवल समारोह या अपने प्रोडक्शन की गतिविधियों में बीवी सायरा बानो के साथ दिखते हैं। दरअसल, सालों पहले उन्होंने अभिनय से संन्यास ले लिया। केवल देव आनंद ही अपनी क्रिएटिविटी के साथ मौजूद हैं और वे लगातार फिल्में बना रहे हैं और साथ ही साथ देश-विदेश घूम भी रहे हैं। अपनी कोई भी फिल्म पूरी करन

सांवरिया: रंग,रोगन और रोमांस

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-अजय ब्रह्मात्मज अभी सिर्फ एक मिनट तीस सेकॅन्ड का ट्रेलर आया है और बातें होने लगी हैं। सभी को संजय लीला भंसाली की अगली फिल्म का इंतजार है। इस फिल्म का नाम अंग्रेजी में सावरिया लिखा गया है, जबकि बोलचाल और प्रचलन में सांवरिया शब्द है। सांवरिया शब्द सांवर से बना है, जो सांवल का अपभ्रंश और देशज रूप है। स्वयं सांवल शब्द श्यामल से बना है। गौरतलब यह है कि श्यामल और उसके सभी उच्चारित रूपों का उपयोग कृष्ण के लिए होता रहा है। हिंदी फिल्में कई स्तरों पर मिथकों से प्रभावित हैं। फिल्मों के लेखक, निर्देशक और गीतकार अनेक शब्दों, स्थितियों और भावों का उत्स जाने बगैर उनका उपयोग करते रहते हैं। ऐसे ही सांवरिया शब्द धीरे-धीरे प्रेमी और पति का पर्याय बन गया। मालूम नहीं कि भंसाली ने अपनी फिल्म के नाम में सांवरिया/सावरिया का उपयोग किस अर्थ में किया है! सांवरिया शब्द में से बिंदी गायब होने का एक कारण यह हो सकता है कि महाराष्ट्र में आनुनासिक ध्वनि का उच्चारण नहीं होता, क्योंकि मराठी भाषी हिंदी बोलते समय हैं नहीं है ही बोलते हैं। ऐसा लगता है इसी उच्चारण दोष से सांवरिया सावरिया बन गया है। वैसे, यहां यह बता दें क

अनिल-सोनम कपूर:चार भावमुद्राएं

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पिता अनिल कपूर निहार रहे हैं बेटी सोनम कपूर को... क्या ख़ूब है बाप-बेटी का इठलाना दोहरी खुशी का वक़्त बेटी के कंधे पर सिर टिकाने का भरोसा

महानतम क्रांति है ब्लॉग-शेखर कपूर

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मशहूर फिल्मकार शेखर कपूर नियमित रूप से ब्लॉग लिखते हैं.उन्होंने अपने ब्लॉग पर इसके महत्व के बारे में लिखा है...मेरे विचार से ब्लॉग हमारे समय की महानतम क्राति है.अभी तो हम इसकी परिधि ही देख सके हैं.अपनी बात रखने का यह परम लोकतांत्रिक माध्यम है.यह अपने संविधान से मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही नया रूप है.आप अपनी बात नहीं कह सकते तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ रह जाता है. निहित स्वार्थ से नियंत्रित मीडिया का विकल्प है यह...मुझे ब्लॉग लिखने में आनंद आता है.मैं पूरी दुनिया से सीधे संबंध स्थापित कर लेता हूं और वह भी दोतरफा...

आमिर खान के ब्लॉग से

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कल से आगे ... मुझे लगता है कि तारे जमीं पर के बैकग्राउंड संगीत का काम ठीक चल रहा है. हमलोगों ने अ।श्चर्यजनक तरीके से तेज काम किया. और हमलोगों ने लाइव रिकार्डिंग भी की. फिल्मों में पिछले 15 सालों से ... जी हां, 15 सालों से ऐसी रिकार्डिंग नहीं की जा रही है. अ।पको बताऊं, जब हमलोग बैकग्राउंड संगीत डालते हैं तो सबसे पहले कोई दृश्य/प्रसंग लेते हैं, फिर तय करते हैं कि उस दृश्य में संगीत कहां से अ।रंभ हो और उसे कहां खत्म हो जाना चाहिए ... और क्या बीच में हम कोई बदलाव भी चाहते हैं... अ।दि..अ।दि. यह सब तय होने के बाद, और क्रिएटिव की स्पष्टता होने के बाद रिकार्डिंग अ।रंभ होती है. अ।जकल यह तकनीकी प्रक्रिया हो गयी है. सारे कीबोर्ड कंप्यूटर से जुड़े होते हैं और कंप्यूटर पर फिल्म डाल दी जाती है. उस पर अ।रंभ बिंदु लगा देते हैं, एक ग्रिड तैयार हो जाता है, संगीत की गति ग्रिड की लंबाई से तय होती है ... इसका मतलब ढेर सारा काम गणितीय ढंग का होता है. यह सब कंप्यूटर के अ।विष्कार से हुअ। है. मेरी राय में यह कार्य करने का स्वाभाविक तरीका नहीं है, लेकिन निश्चित ही नियंत्रित और व्यावहारिक तरीका है. इसे सिक्वेसिं

मनोरमा सिक्स फीट अंडर

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रियल सिनेमा है मनोरमा सिक्स फीट अंडर =अजय ब्रह्मात्मज नाच-गाना, विदेशी लोकेशन, हीरो-हीरोइन के चमकदार कपड़े, बेरंग रोमांस से ऊब चुके हों और चाहते हों कि कुछ रियल सिनेमा देखा जाए तो आप मनोरमा सिक्स फीट अंडर देखने जा सकते हैं। अपने देश के गांव-कस्बों और छोटे शहरों की कहानियां ऐसी ही होती हैं। मनोरमा ़ ़ ़ मध्यवर्गीय परेशानियों और आकांक्षाओं की फिल्म है। युवा निर्देशक नवदीप सिंह ने कुछ अलग कहने और दिखाने की कोशिश की है। राजस्थान के छोटे से शहर लाखोट में रह रहे सत्यवीर (अभय देओल) के जीवन में कोई उमंग नहीं है। वह सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर है। मामूली सी नौकरी, सरकारी क्वार्टर, चखचख करती बीवी और कुछ ज्यादा ही जिज्ञासु पड़ोसी से ऊब चुका सत्यवीर जासूसी कहानियां लिखने में सुख पाता है। उसे रियल जासूसी का एक आफर मिलता है तो इंकार नहीं कर पाता। स्थानीय नेता और पूर्व महाराज पीपी राठौड़ की बीवी उसे अपने पति के खिलाफ जासूसी के लिए लगाती है। बाद में पता चलता है कि वह औरत तो पीपी राठौड़ की बीवी ही नहीं थी। पूरा मामला उलझता है और उसे सुलझाने के चक्कर में सत्यवीर और ज्यादा फंस जाता है। नए अभिनेताओं

ढोल

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-अजय ब्रह्मात्मज प्रियदर्शन की फिल्मों का एक ढर्रा बन गया है। ढोल भी उसी ढर्रे की फिल्म है। फिल्म में एक ही नयापन है कि कुणाल खेमू पहली बार कामेडी करते नजर आए और निराश भी नहीं करते। शरमन जोशी, तुषार कपूर और राजपाल यादव फिल्म में घिसे-पिटे किरदारों में खुद को दोहराते हैं। लंपट और मूर्ख नौजवानों के अमीर बनने की ख्वाहिश पर इस बीच आधा दर्जन फिल्में आ चुकी हैं। इन फिल्मों का हास्य अब फूहड़ता की सीमा में प्रवेश कर चुका है। फिर भी भद्दे मजाक, उल्टे-सीधे प्रसंग और कामेडी की कसरत देखते हुए दर्शक हंस ही देते हैं। वास्तव में कामेडी फिल्में दर्शकों को पहले से उस मनोदशा में ले जाती हैं, जहां हाथ का इशारा भी गुदगुदी पैदा करता है। हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक इसी का बेजा फायदा उठा रहे हैं, लेकिन ढोल जैसी फिल्में कामेडी की पोल खोल रही हैं। सावधान हो जाएं प्रियदर्शन और उन जैसे अन्य निर्देशक।

मैं जिंदा हूं, हां जिंदा हूं-आमिर खान

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बुधवार, 19 सितंबर, 2007 अ।उच! 2000 से ज्यादा पोस्ट मिले अ।पके. लगता है मेरी मुश्किलें बढ़ेंगी. फिर भी यही कहूंगा कि नंबर बढ़ता देख खुशी होती है. सभी को मेरा हेलो! इतने दिनों तक गायब रहा. अ।पसे कटा महसूस करता रहा, खासकर जब देखता हूं कि अ।प हूं कि अ।प मेरे बगैर भी अपने काम में मशगूल हैं. लगता है कि मैं पीछे छूट गया. सोच रहा हूं कि पहले अ।पके पोस्ट पढूं या अपना पोस्ट लिखूं... अभी पूरी नहीं पढ़ पाया हूं. कुछ पन्नों को पढ़ कर ही लग रहा है कि मजेदार चीजें छूट रही थीं. ठीक है, मैं अपना काम जल्दी कर लूं. मैं अभी ब्रुसेल्स में हूं... मुंबई के रास्ते में. एक सम्मेलन के सिलसिले में 4-5 दिन अमेरिका में था. मैं वादा करता हूं कि तारे जमीं पर का पहला क्रिएटिव मेरे ब्लॉग पर अ।एगा. अ।प लोग सबसे पहले उसे देखेंगे. अ।ज कल मैं उसी पर काम कर रहा हूं. शंकर... अ।पको अपने ब्लॉग पर देखकर खुशी हो रही है. पंचगनी में सब कुछ रहा. दोस्तों मशहूर शंकर एहसान लॉय के शंकर की बात कर रहा हूं. शायद अ।प सभी को मालूम होगा कि वे ही तारे जमीं पर के संगीतकार हैं. शंकर पंचगनी की याद दिला रहे हैं. हमलोग तारे जमीं पर के बैकग्राउंड

शुक्रवार,२१ सितंबर

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माफ़ करें -चवन्नी ने आप से वादा किया था कि हर शुक्रवार को आप से बात करेगा]लेकिन अगले ही हफ्ते उसे मुम्बई से बाहर निकलना पड़ा.कुछ ऐसी व्यस्तता रही कि चाह कर भी चवन्नी कुछ लिख नही सका.एक माफ़ी तो मिल ही सकती है।इस हफ्ते कई बड़ी बातें हुईं.सांवरिया और ओम शांति ओम फिल्मों के मुजिक रिलीज हुए.बड़ा जलसा रहा .सांवरिया में दोनों कपूर परिवार मौजूद था तो ओम शांति ओम में शाहरुख़ खान का जलवा था.अजीब बात है कि दोनों फ़िल्में एक ही दिन रिलीज हो रही है.चवन्नी के पाठकों में से ज़्यादातर पहले दिन सांवरिया देखने की योजना बाना राहे हैं। आज ३ फ़िल्में रिलीज हुई हैं.मनोरमा सिक्स फीट अंडर,ढोल और लायंस ऑफ पंजाब रिलीज हुई हैं.इनमें से नवदीप सिंह की की मनोरमा उल्लेखनीय आर दर्शनीय फिल्म है.समाज के काले और अंधेरे सच को नवदीप ने वास्तविकता के साथ चित्रित किया है.ढोल जैसी दर्जनों फिल्में आप देखा चुके हैं,इसलिए चवन्नी की राय है कि मनोरमा ही देखने जाएं.लायंस ऑफ पंजाब चवन्नी के पाठकों की फिल्म नहीं है.वैसे भी वह अंग्रेजी में बनी है.इधर मल्टीप्लेक्स आने से अंग्रेजी सिनेमा कं दर्शक बढ़े हैं.चवन्नी वैसे दर्शकाें की परवाह

दरअसल...कॉमेडी का गिरता स्तर

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-अजय ब्रह्मात्मज कॉमेडी फिल्मों का बाजार गर्म है। दर्शक देख रहे हैं, इसलिए निर्माता-निर्देशकों को कॉमेडी फिल्मों में मुनाफा दिख रहा है। दरअसल, आजकल निर्माता कॉमेडी फिल्मों में निवेश के लिए तैयार हो जाते हैं। डेविड धवन, प्रियदर्शन, इंद्र कुमार और नीरज वोरा सरीखे निर्देशकों की चांदी हो गई है। किसी निर्देशक ने एक भी सफल कॉमेडी फिल्म बना ली है, तो उसे प्रोड्यूसर और एक्टर की दिक्कत नहीं होती। पहले कॉमेडी फिल्मों में कॉमेडियन की जरूरत पड़ती थी। बाद में संजीव कुमार, धर्मेद्र और अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्मों में कॉमेडी की और धीरे-धीरे वे ऐसी फिल्मों के नायक भी बन बैठे। पिछले एक दशक में सारे एक्टर कॉमेडी में किस्मत आजमा चुके हैं। हर तरफ हंसी बिखेरी जा रही है। तर्क दिया जा रहा है कि सोसायटी में इतना टेंशन है कि दर्शक रिलीफ के लिए सिनेमाघर में आता है। अगर वहां भी दर्शकों की लाइफ का टेंशन ही चित्रित किया जाए, तो उन्हें क्या खाक मजा आएगा? एक जमाना था, जब हिंदी की रोमांटिक और सामाजिक फिल्मों में कॉमेडी ट्रैक रखे जाते थे। तब के डायरेक्टर यह मानते थे कि तीन घंटे की फिल्म देखते समय दर्शकों को थोड़ी रा

काटी चिकोटी दीया के...

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चवन्नी चटखारे लेने के लिए यह सच्चा किस्सा नही सुना रहा है.हुआ यों कि संजय गुप्ता गोआ में अपनी नयी फिल्म अलीबाग की शूटिंग कर राहे थे.आम तौर पर आउटडोर शूटिंग में पारिवारिक माहौल रहता है.आप ने सुना भी होगा,फिल्म स्टार अपनी बातचीत में हमेशा कहते हैं कि फैमिली जैसा माहौल था.ऐसे ही फैमिली माहौल में दिन भर kee शूटिंग से थकी-हारी दीया मिर्ज़ा स्वीमिंग पुल में नहा रही थीं.पानी थकान दूर करता है.उन्हें क्या पता था कि स्वीमिंग पुल में आदमी की शक्ल में मगरमच्छ घुस आया है.रोहित राय नाम है इस मगरमच्छ का.दीया आराम से पानी के छापाके ले रही थीं,तभी पीछ्हे से रोहित राय आये और उनहोंने दीया मिर्ज़ा के नितम्ब में चिकोटी काट ली.दीया समझ नही पायीं.दीया ने विरोध किया और पुल से निकल आयीं.उनहोंने शोर तो नही मचाया ,लेकिन यह बात फैल गयी.चश्मदीद लोगों ने पूछा तो बेशर्म रोहित ने कह कि दीया के नितम्ब में है क्या कि मैं चिकोटी काटूंगा। चवन्नी इस प्रसंग के जरिये आप को बताना चाहता है कि फिल्म इंडस्ट्री की हीरोइनें भी सुरक्षित नही है.उन्हें आये दिन हीरो,निर्माता और निर्देशक के हवस का शिकार होना पड़ता है.आश्चर्य है कि

देव डी का आइडिया-अनुराग कश्यप

अब चूंकि घोषणा हो चुकी है ... इसलिए मुझे बता ही देना चाहिए ... मैं नवंबर में देव डी अभय देओल के साथ बना रहा हूं। हमलोग पिछले साल से ही इस फिल्म के निर्माण की कोशिश में हैं, लेकिन कोई भी हाथ लगाने को तैयार नहीं है , क्योंकि इंडस्ट्री में प्रस्ताव बनते हैं ़ यहां फिल्में नहीं बनतीं ़ ़ ़ शुरू में मैं भी इस फिल्म को लेकर उतना गंभीर नहीं था, क्योंकि मैं अपना तथाकथित बाजार खराब नहीं करना चाहता था, जो अभी-अभी मेरे लिए खुला है ़ ़़ ़ मैं जिससे भी मिला, एक ही बात सुनने को मिली ़ ़ ़ अभय बहुत नैचुरल एक्टर है, लेकिन वह बिकता नहीं ़ ़ ़ मेरा जवाब होता था कि हम देवदास बेच रहे हैं, अभय नहीं ़ ़ ़ क्या भारतीयों के बीच देवदास नहीं बेच पाएंगे? क्या बात कर रहे हैं ? लेकिन वे अपनी जिद पर अड़े रहते ़ ़ ़ मैंने उन्हें नहीं बताया कि मेरी फिल्म में ' मिट्टी वजन मार्डीं' और 'हवाएं ' जैसी फिल्में कर चुकी पंजाबी अभिनेत्री पारो का रोल करेगी ़ ़ ़ देवदास के बारे में हमारी टेक से वे चौंक सकते थे ़ ़ ़ हमारा देवदास निष्ठाहीन है और पारो भी कुंवारी कन्या नहीं है। चंद्रमुखी अपनी पसंद से एस्कॉर्ट का का

१ मिनट की फिल्म बनायें

क्या आप को लगता है कि आप के अन्दर फिल्म बनने की प्रतिभा है तो देर किस बात की.पैशन फ़ॉर सिनेमा के लिंक पर जाएँ और वहाँ से पूरी जानकारी लेकर अपनी फिल्म बनायें.अगर आप विजेता हुए तो आप अनुराग कश्यप,हंसल मेहता,रामू रमनाथान, ओनिर और निशिकांत कामत के साथ प्रशिक्षु बन सकते हैं.इसके लिए आप को १ मिनट की फिल्म बनानी होगी.आप इस पोस्ट के दाहिने में दिए लाल रंग के पीएफसीवन के लिंक पर क्लिक करें.चवन्नी को लगा कि यह हिंदी भाषियों के लिए भी अच्छा मौका है.

सांवरिया समारोह:ऋषि की दारु ,अनिल का ठुमका

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शनिवार,१५ सितंबर की रात यादगार रहेगी.चवन्नी दिल्ली में था.वहाँ पता चला कि शनिवार को सांवरिया का म्यूजिक रिलीज समारोह है. वह भाग कर मुंबई पहुचा.समारोह का समय आठ बजे बताया गया था.रात दस बजे तक सुगबुगाहट नहीं दिखी तो चवन्नी चिंतित हो गया.उसने देर होने की वजह मालूम कि तो पता चला कि कृष्णा जी देर से आ पाएंगी.अब आप यह न पूछ बैठना कि कृष्णा जी कौन हैं?कृष्णा जी राज कपूर की पत्नी और सांवरिया से लांच हो रहे हीरो रणवीर कपूर की दादी हुईं. हिंदी फिल्मों के निर्माण में म्यूजिक रिलीज का खास महत्व होता है.मुहूर्त के बाद यह ऐसा मौका होता है,जब फिल्म के सारे लोग एकत्रित होते हैं.आम दर्शकों को फिल्म की पहली झलक गानों से ही मिलती है.वैसे भी हिंदी फिल्मों में संगीत का हमेशा खास स्थान रहा है.इन दिनों तो फिल्म के प्रचार के लिए अलग से गाने शूट किये जाते हैं और उन्हें फिल्म के अंत या शुरू में दिखाया जता है.उसके पहले उनका उपयोग फिल्म के टीवी विज्ञापन में किया जाता है.सांवरिया संजय लीला भंसाली की फिल्म है.इस बार वे ऋषि कपूर के बेटे रणवीर कपूर और अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर के साथ रोमांटिक फिल्म बना रहे हैं.रणवी

नन्हे जैसलमेर- विश्वास, कल्पना और हकीकत का तानाबाना

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-अजय ब्रह्मात्मज विश्वास , कल्पना और हकीकत के तानेबाने से सजी समीर कर्णिक की नन्हे जैसलमेर नाम और पोस्टर से बच्चों की फिल्म लगती है। इसमें एक दस साल का बच्चा है जो जैसलमेर में रहता है। छोटी उम्र से ही पारिवारिक जिम्मेदारियां निभा रहा नन्हे काफी तेज-तर्रार और होशियार है। वह चार भाषाएं जानता है और जैसलमेर घूमने आए पर्यटकों को आसानी से खुश कर लेता है। समीर कर्णिक ने इस बार बिल्कुल अलग भावभूमि चुनी है और अपनी बात कहने में सफल रहे हैं। उन्होंने नन्हे को लेकर एक फंतासी कथा बुनी है। इस कथा में उन्होंने एक बच्चे के मनोविज्ञान को समझते हुए रोचक तरीके से संदेश भी दिया है। नन्हे जैसलमेर बहुत छोटा था तो फिल्म स्टार बॉबी देओल ने अपनी जैसलमेर यात्रा में उसे संयोग से गोद में उठा लिया था। थोड़ा बड़ा होने पर नन्हे यह मान बैठता है कि बॉबी उसका दोस्त है। नन्हे का लॉजिक है कि बॉबी ने तमाम बच्चों के बीच से उसे ही क्यों उठाया? वह बॉबी को पत्र लिखता रहता है और अपने परिवार की ताजा जानकारियां भेजता रहता है। उसके कमरे में बॉबी की अनगिनत तस्वीरें लगी हैं। उसकी मां और बहन भी बॉबी के प्रति उसके इस लगाव से परेशान ह

मुसलमान हीरो

पहले 'चक दे इंडिया' और फिर 'धोखा'... अ।गे-पीछे अ।ई इन दोनों फिल्मों के नायक मुसलमान हैं. और ये दोनों ही नायक हिंदी फिल्मों में सामान्य तौर पर अ।ए मुसलमान किरदारों या नायकों की तरह नहीं हैं. पहली बार हम उन्हें अ।सप।स के वास्तविक मुसलमान दोस्तों की तरह देखते हैं. याद करें तो हिंदी फिल्मों में मुसलमान किरदारों को त्याग की मूर्ति के रूप में दिखाने की परंपरा रही है. नायक का यह नेकदिल मुसलमान दोस्त दर्शकों का प्यारा रहा है, लेकिन निर्माता-निर्देशकों के लिए वह एक फार्मूला रहा है. फिर मणि रत्नम की 'रोजा' अ।ई. हालांकि काश्मीर की पृष्ठभमि में उन्होंने अ।तंकवादी मुसलमानों का चित्रण किया था, लेकिन 'रोजा'के बाद की फिल्मों में मुसलमान किरदार मुख्य रूप से पठानी सूट पहने हाथों में एके-47 लिए नजर अ।ने लगे. 'गर्म हवा', 'सरफरोश', 'पिंजर' अ।दि ऐसी फिल्में हैं, जिन में मुसलमान किरदारों को रियल परिप्रेक्ष्य में दिखाया गया. उन्हेंइन फिल्मों में किसी खास चश्मे से देखने या सांचे में ढ़ालने के बजाए वास्तविक रूप में चित्रित किया गया. हिंदी फिल

इंस्टैंट खुशी का धमाल

- अजय ब्रह्मात्मज यह ऐसी फिल्म है जिसके पोस्टर और परदे से हीरोइन नदारद है। इंद्र कुमार ने एक प्रयोग तो कर लिया। हो सकता है सिर्फ हीरोइनों के नाम पर फिल्म देखने वाले दर्शक निराश हों। धमाल चार बेवकूफ किस्म के लड़कों की कहानी है जो जल्द से जल्द अमीर बनना चाहते हैं। उनकी बेवकूफियों के चलते हाथ आया हर काम बिगड़ जाता है। उन्हें अचानक एक ऐसा व्यक्ति मिलता है जो मरते-मरते दस करोड़ रुपयों का सुराग बता जाता है। संयोग से उसी व्यक्ति के पीछे इंस्पेक्टर कबीर नाइक भी लगा हुआ है। काफी देर तक इनकी लुका छिपी चलती है। 10 करोड़ हासिल करने के चक्कर में वो एक-दूसरे को धोखा देने से बाज नहीं आते। आखिरकार रुपये हासिल करने में कामयाब होते हैं और पैसे आपस में बांट लेते हैं। तभी वो लाइमलाइट में आते हैं और घोषणा होती है कि एक चैरिटी संस्था में रकम देने आये हैं। उन पर भी नेकनीयती हावी होती है और वे बगैर मेहनत से अर्जित धन को दान कर संतुष्ट हो जाते हैं। इंद्र कुमार की यह फिल्म चुटकुलों, हास्यपूर्ण परिस्थितियों और किरदारों की बेवकूफियों के कारण हंसाती है। थोड़ी देर के बाद आप तैयार हो जाते हैं कि उन चारों को कोई न को

साधारण फिल्मों की फेहरिस्त में डार्लिग

-अजय ब्रह्मात्मज राम गोपाल वर्मा की डार्लिग उन दर्शकों के लिए सबक है जो विवाहेतर रिश्तों में फंसे हैं। आपकी प्रेमिका भूत बनकर भी आपका पीछा कर सकती है। सो, बेहतर है कि अभी से संभल जाएं। बीवी और वो के साथ डबल शिफ्ट कर रहे आदित्य सोमण (फरदीन खान) को लगता है कि वह डबल मजे ले रहा है। एक दिन अचानक पता लगता है कि वो गर्भवती हो गई है। उनमें हाथापाई होती है और वो को ऐसी चोट लगती है कि वह मर जाती है। किस्सा यहीं से शुरू होता है। वो यानी कि गीता मेनन (एषा देओल) बदले की भावना से आदित्य की जिंदगी और घर में प्रवेश करती है। भेद खुलने तक स्थितियां काफी उलझ चुकी होती हैं। बीवी अश्विनी की मौत हो जाती है। गीता की भटकती आत्मा अपने प्रेमी आदित्य के साथ रहने के लिए अश्विनी (ईशा कोप्पिकर) के शरीर में प्रवेश कर जाती है। वहम, अंधविश्वास और अतार्किक घटनाओं की यह कहानी किसी भी स्तर पर नहीं छूती। राम गोपाल वर्मा की कमजोर और साधारण फिल्मों की फेहरिस्त में डार्लिग भी शामिल की जाएगी। सोच के स्तर पर इस दिवालियापन को लेकर क्या कहें?

अपना आसमान के बहाने यथार्थ का धरातल

-अजय ब्रह्मात्मज कौशिक राय ने विशेष किस्म के बच्चों और उनके माता-पिता के रिश्तों को लेकर अत्यंत संवेदनशील फिल्म बनाई है। ऐसे विषयों पर कम फिल्में बनी हैं। सुना है कि आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर की भावभूमि भी यही है। वहां किरदार और रिश्ते अलग हैं। मध्यवर्गीय परिवार के रवि (इरफान खान) और पद्मिनी (शोभना) के खुशहाल परिवार में बुद्धि (ध्रुव पियूष पंजनानी) के आने से नई खुशी आती है। एक दिन बुद्धि रवि के हाथों से गिर जाता है। बुद्धि के थोड़ा बड़ा होने पर रवि और पद्मिनी पाते हैं कि उनका बेटा अन्य बच्चों की तरह सामान्य नहीं है। वह ठीक से बोल नहीं पाता। कुछ भी सीखने में ज्यादा समय लेता है। वे उसे सामान्य रूप में देखने के लिए हर कोशिश करते हैं। डाक्टर से लेकर चमत्कार तक आजमाते हैं। एक चमत्कारी दवा से बुद्धि तेज दिमाग का लड़का बन जाता है लेकिन उसके बाद दूसरी परेशानियां आरंभ होती हैं, जो माता-पिता के साथ ही बुद्धि को भी भावनात्मक रूप से झकझोर देती हैं। अपना आसमान का स्पष्ट मैसेज है कि अपने विशेष बच्चे की विशेषताओं को समझें और उसे उसी रूप में स्वीकार करें। उन्हें दया या सहानुभूति से अधिक प्यार और

हारे (सितारे) को हरिनाम

कोई कहीं भी आए.जाए... चवन्नी को क्या फर्क पड़ता है? इन दिनों संजय दत्त हर प्रकार के देवतओं के मंदिरों का दरवाजा खटखटा रहे हैं. उन्हें अमर्त्य देवताओं की सुध हथियार मामले में फंसने और जेल जाने के बाद आई. आजकल तो आए दिन वे किसी न किसी मंदिर के चौखटे पर दिखाई पड़ते हैं और हमारा मीडिया उनकी धार्मिक और धर्मभीरू छवि पेश कर खुश होता है. हाथ में बध्धी, माथे पर टीका और गले में धार्मिक चुनरी डाले संजय दत्त से सभी को सहानुभूति होती है. उन पर दया अ।ती है. चवन्नी को लगता है कि संजय दत्त इन धार्मिक यात्राओं से अपने मकसद में कामयाब हो रहे हैं. अगोचर देवता तो न जाने कब कृपा करेंगे? संसार के गोचर प्राणियों की धारणा है कि बेचारा संजू बाबा नाहक फंस गया. उसने जो अवैध हथियार रखने का अपराध किया है, उसकी सजा ज्यादा लंबी होती जा रही है. चवन्नी ने गौर किया है कि कानून की गिरफ्त में अ।ने के बाद संजू बाबा ने अपनी हिंदू पहचान को मजबूत किया है. उन्होंने मुसलमान दोस्तों से एक दूरी बनाई और सार्वजनिक स्थलों पर नजर आते समय हिंदू श्रद्धालु के रूप में ही दिखे. बहुत लोगों को लग सकता है कि यह कौन सी बड़ी बात हो गई

शुक्रवार ७ सितंबर

चवन्नी ने तय किया है कि आज से हर शुक्रवार को वह मुम्बई की फिल्म इंडस्ट्री में चल रही चर्चाओं और बदलती हवा के रुख़ की जानकारी आप को देगा.कल देर रात चवन्नी 'धमाल' के प्रीमियर से लौटा.मुम्बई के अंधेरी उपनगर के पश्चिमी इलाक़े में कई मल्टीप्लेक्स आ गए हैं.वहीँ फिल्मों के प्रीमियर हुआ करते हैं.वैसे प्रीमियर तो अब नाम भर ही रह गया है.ना वो पहले जैसा ताम-झाम बच गया है और ना लाव -लश्कर राग गया है.प्रीमियर पैसे बचाने का साधन बन गया है।खैर,कल रात 'धमाल' के प्रीमियर में संजय दत्त आये थे.एक तरह से कहें तो उनके जमानत पर छूटने की खुशी में ही इस प्रीमियर का आयोजन हुआ था.अगर आप को याद हो तो उनकी गिरफ्तारी के समय कई कार्यक्रम रद्द कर दिए गए थे.संजय दत्त आये थे.उन्होने काली बंडी पहन रखी थी.आप ने देखा होगा कि वह झूम कर चलते हैं.कल रात उनकी चाल में पुराना जोश नही था.कानून,जेल और सजा से लोग टूट जाते हैं.संजय के साथ जो हुआ और हो रह है उस पर फिर कभी.'धमाल' चवन्नी के ख़्याल से पहली हिंदी फिल्म है,जिस में कोई हीरोइन नही है.इसके पोस्टर पर भी मर्द ही मर्द हैं.है ना अजूबी बात.लेकिन इसका मतल

खोया खोया चांद और सुधीर भाई - 4

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सुधीर भाई की फिल्मों में पीरियड रहता है, लेकिन भावनाएं और प्रतिक्रियाएं समकालीन रहती हैं. सबसे अधिक उल्लेखनीय है उनकी फिल्मों का पॉलिटिकल अंडरटोन ... उनकी हर फिल्म में राजनीतिक विचार रहते हैं. हां, जरूरी नहीं कि उनकी व्याख्या या परसेप्शन से अ।प सहमत हों. उनकी 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' रियलिज्म और संवेदना के स्तर पर काफी सराही गयी है और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अधिकांश लोग बगैर फिल्म के मर्म को समझे ही उसकी तारीफ में लगे रहते हैं. होता यों है कि सफल, चर्चित और कल्ट फिल्मों के प्रति सर्वमान्य धारणाओं के खिलाफ कोई नहीं जाना चाहता. दूसरी तरफ इस तथ्य का दूसरा सच है कि अधिकांश लोग उन धारणाओं को ही ओढ़ लेते हैं. एक बार चवन्नी की मुलाकात किसी सिनेप्रेमी से हो गयी. जोश और उत्साह से लबालब वह महत्वाकांक्षी युवक फिल्मों में घुसने की कोशिश में है. वह गुरुदत्त, राजकपूर और बिमल राय का नाम लेते नहीं थ कता. चवन्नी ने उस से गुरुदत्त की फिल्मों के बारे में पूछा तो उसने 'कागज के फूल' का नाम लिया. 'कागज के फूल' का उल्लेख हर कोई करता है. चवन्नी ने सहज जिज्ञासा रखी, 'क्या अ।पने '

धन्य हैं देव साहेब!

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देव साहेब धन्य हैं.उनका निमंत्रण पत्र आया है.एसएमएस और ईमेल के ज़माने में उनहोंने हाथ से लिखा पत्र भेजा है.हाँ ,तकनीकी सुविधा का फायदा उठा कर उनहोंने यह पत्र स्कैन करवा कर भेजा है.आप इस पत्र को यहाँ पढ़ सकते हैं.चवन्नी ७ की शाम को बतायेगा कि उनहोंने चाय पर क्यों बुलाया था.उनकी सादगी देखिए,लिख रहे हैं अपने साथ चाय पीने का सौभाग्य दीजिए.

क्यों वंचित रहे चवन्नी ?

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पिछले दिनों अजय ब्रह्मात्मज ने दैनिक जागरण के मनोरंजन परिशिष्ट 'तरंग' के अपने कॉलम 'दरअसल' में चवन्नी सरीखे दर्शकों की चिंता व्यक्त की. आजकल मल्टीप्लेक्स संस्कृति की खूब बात की जा रही है, लेकिन इस मल्टीप्लेक्स संस्कृति ने नए किस्म का मनुवाद विकसित किया है. मल्टीप्लेक्स संस्कृति के इस मनुवाद के बारे में सलीम आरिफ ने एक मुलाकात में बड़ी अच्छी तरह समझाया. क्या कहा,आप उन्हें नहीं जानते? सलीम आरिफ ने गुलजार के नाटकों का सुंदर मंचन किया है. रंगमंच के मशहूर निर्देशक हैं और कॉस्ट्यूम डिजाइनर के तौर पर खास स्थान रखते हैं. बहरहाल, मल्टीप्लेक्स संस्कृति की लहर ने महानगरों के कुछ इलाकों में सिंगल स्क्रीन थिएटर को खत्म कर दिया है. इन इलाकों के चवन्नी छाप दर्शकों की समस्या बढ़ गई है. पहले 20 से 50 रूपए में वे ताजा फिल्में देख लिया करते थे. अब थिएटर ही नहीं रहे तो कहां जाएं ? नयी फिल्में मल्टीप्लेक्स में रिलीज होती हैं और उनमें घुसने के लिए 100 से अधिक रूपए चाहिए. अब चवन्नी की बिरादरी का दर्शक जाएं तो कहां जाएं ? चवन्नी चैप जिस इलाके में रहता है. उस इलाके में 6 किलोमीटर के दायरे में

चवन्नी पर बोधिसत्व

चवन्नी को बोधिसत्व की यह टिपण्णी रोचक लगी.वह उसे जस का तस् यहाँ यहाँ प्रस्तुत कर खनक रहा है।आपकी टिपण्णी की प्रतीक्षा रहेगी.- चवन्नी चैप चवन्नी खतरे में है। कोई उसे चवन्नी छाप कह रहा है तो कोई चवन्नी चैप । वह दुहाई दे रहा है और कह रहा है कि मैं सिर्फ चवन्नी हूँ। बस चवन्नी। पर कोई उसकी बात पर गौर नहीं कर रहा है। और वह खुद पर खतरा आया पा कर छटपटा रहा है। यह खतरा उसने खुद मोल लिया होता तो कोई बात नहीं थी। उसे पता भी नहीं चला और वह खतरे में घिर गया। जब तक इकन्नी, दुअन्नी, एक पैसे दो पैसे , पाँच, दस और बीस पैसे उसके पीछे थे वह इतराता फिरता रहा।उसके निचले तबके के लोग गुम होते रहे, खत्म होते रहे फिर भी उसने उनकी ओर पलट कर भी नहीं देखा। वह अठन्नी से होड़ लेता रहा। वह रुपये का हिस्सेदार था एक चौथाई का हिस्सेदार। पर अचानक वह खतरे के निशान के आस-पास पाया गया। उसे बनाने वालों ने उसकी प्रजाति की पैदावार पर बिना उसे इत्तिला दिए रोक लगाने का ऐलान कर दिया तो वह एक दम बौखला गया। बोला बिना मेरे तुम्हारा काम नहीं चलेगा। पर लोग उसके गुस्से पर मस्त होते रहे। निर्माताओं की हँसी से उसको अपने भाई-बंदों के साथ

सलमान खान के प्रशंसक ना पढ़ें

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अगर आप सलमान खान के प्रशंसक हैं तो कृपया इसे ना पढ़ें.चवन्नी यहाँ कुछ ऐसी बातें करने जा रहा है ,जिससे आप को ठेस पहुंच सकती है. चवन्नी भी सलमान खान को पसंद करता है.परदे पर जब सलमान के ठुमके लगते हैं तो चवन्नी भी सीट पर उछलता है.सलमान का अंदाज़ चवन्नी को भी पसंद है.लेकिन परदे के बाहर सलमान के बर्ताव की तारीफ़ नही की जा सकती.ऐसा लगता है और यही सच भी है कि सलमान केवल अपने अब्बा के सामने खामोश और शरीफ बने रहते हैं.भाई- बहनों से उन्हें असीम प्यार है और अपने दोस्तो की भी वे परवाह करते हैं.उनको सबसे ज्यादा प्यारे माईसन और माईजान हैं ,इनके अलावा और किसी के प्रति ना तो उनके मन में इज़्ज़त है और ना ही वे परवाह करते हैं कि कौन क्या सोच रहा है.अभी जेल से छूट कर आने पर किसी टीवी पत्रकार ने उनसे पूछ दिया कि उनके घर वालों की क्या प्रतिक्रिया रही तो सामान्य तरीके से जवाब देने के बजाय उनहोंने कह कि मेरे घर वालों को मेरा जेल से आना बहुत बुरा लगा.जाहिर सी बात है कि सवाल का जवाब उनहोंने मजाक में दिया,लेकिन अमूमन उनका यही रवैया रहता है.पिछले दिनों हिंदुस्तान टाइम्स का रिपोर्टर उनसे भिड़ गया था.सलमान की आदत है क

आमिर खान का ब्लॉग

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आमिर खान ब्लॉग लिख रहे हैं.चवन्नी ने सोचा क्यों न उनकी बातों को हिंदी के चिट्ठाकारों और पाठकों तक पहुंचाया जाए.इसी दिशा में यह प्रयास है.इस बार थोड़ी देर हो गई है.बगली बार से उधार उन्होंने लिखा और इधर आप ने पढ़ा. शर्म करो रविवार,26 अगस्त,2007 आज का दिन बहुत ही उदास रहा.कल हैदराबाद में हुए बम ब्लास्ट के बारे में पढ़ा और घोर निराशा में डूब गया.दुख की बात है, और शर्म की बात है,कि लोग इतने बीमार दिमाग के हो सकते हैं.निर्दोष लोगों को मार कर भला किसी को क्या मिलेगा.मुझे लग रहा है कि इस ब्लास्ट के लिए जिम्मदर लोग दक्षिणपंथी,अतिवादी और धार्मिक समूह के होंगे...जैसा कि देश में हुए आतंक के अधिकांश हादसों में रहा है.चाहे जो भी हो,बीमार दिमाग के लोगों की ऐसी आतंकवादी गतिविधियों से निर्दोष बच्चे,औरतें और मर्द मारे जाते हैं.आप का कोई भी धर्म हो ,मैं जानना चाहता हूं कि किस धर्म में निर्दोषों की हत्या का पाठ पढाया जाता है? इतना ही नहीं ,किसी भी धर्म में निर्दोषों को नुकसान पहुचाने वालों को माफ नहीं किया जाता.जीव का अनादर मतलब ईश्वर का अनादर है. शर्म करो!

धोखा: सराहनीय है मौलिकता

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अजय ब्रह्मात्मज पूजा भट्ट निर्देशित फिल्म 'धोखा' समसामयिक और सामाजिक फिल्म है। 'पाप' और 'हॉली डे' में पूजा भट्ट ने व्यक्तियों के अंतर्र्सबंधों का चित्रण किया था। हिंदी फिल्मों की प्रचलित परंपरा में यहां भी फोकस में व्यक्ति है लेकिन उसका एक सामाजिक संदर्भ है। उस सामाजिक संदर्भ का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी है। पूजा भट्ट की 'धोखा' का मर्म मुस्लिम अस्मिता का प्रश्न है। जैद अहमद (मुजम्मिल इब्राहिम) पुलिस अधिकारी है। एक शाम वह अपने कालेज के पुनर्मिलन समारोह में शामिल होने आया है। उसकी बीवी सारा (ट्यूलिप जोशी) किसी और काम से पूना गई हुई है। तभी उसे मुंबई में बम धमाके की खबर मिलती है। उसे पता चलता है कि धमाके में उसकी बीवी भी मारी गई है। लेकिन ऐसा लगता है कि इ स विस्फोट में वह मानव बम थी। जैद अहमद पर आरोप लगते हैं। उसकी नौकरी छूट जाती है। जैद लगातार बहस करता है कि अगर उसकी बीवी जिहादी हो गई तो इसके लिए वह कैसे दोषी हो सकता है? जैद पूरे मामले की जड़ में जाता है। वह अपने साले को जिहादी बनने से रोकता है और अपने व्यवहार से साबित करता है कि वह भी इस देश का जिम्मेदार न

'आग' से जख्मी हुए रामू

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अजय ब्रह्मात्मज रामगोपाल वर्मा ने आगे बढ़कर 'शोले' को फिर से बनाने का जोखिम लिया था। इस जोखिम में वह चूक गए हैं। 'शोले' इस देश की बहुदर्शित फिल्म है। इसके संवाद, दृश्य और पात्र हमारी लोकरुचि का हिस्सा बन चुके हैं। लगभग हर उम्र के दर्शकों ने इसे बार-बार देखा है। यह फिल्म रामू को भी अत्यंत प्रिय है। रामू तो पूरे खम के साथ कह चुके हैं कि 'शोले' नहीं बनी होती तो मैं फिल्मकार नहीं बन पाता। बहरहाल, घटनाएं और संवेदनाएं 'शोले' की हैं, सिर्फ परिवेश और पात्र बदल गए हैं। कहानी रामगढ़ की जगह कालीगंज की हो गई है। यह मुंबई के पास की टापूनुमा बस्ती है, जहां ज्यादातर मछुआरे रहते हैं। खूंखार अपराधी बब्बन की निगाह इस बस्ती पर लगी है। इंस्पेक्टर नरसिम्हा से उसकी पुरानी दुश्मनी है। नरसिम्हा को भी बब्बन से बदला लेना है। वह हीरू और राज को ले आता है। ये दोनों छोटे-मोटे अपराधी हैं। जो नासिक से मुंबई आए हैं रोजगार की तलाश में ़ ़ ़ बसंती यहां घुंघरू बन गई है और तांगे की जगह ऑटो चलाती है तो राधा का बदलाव दुर्गा में हुआ है, जिसका अपना नर्सिग होम है। बाकी सारे पात्र भी नाम और भेष